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झारखंड : क्या आदिवासियों के लिए अब नया धर्म आने वाला है?

क्या है सरना धर्म का पूरा केस? जानिए ए टू जेड.

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झारखंड की सांकेतिक तस्वीर और सीएम हेमंत सोरेन. (फोटो - Daily O/India Today)

9 जून. यानी जल, जंगल और जमीन के लिए आंदोलन करने वाले बिरसा मुंडा की बरसी से ठीक एक दिन पहले झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन एक ट्वीट करते हैं. ट्वीट का सार ये था कि झारखंड की सरकार ने तो सरना धर्म कोड बिल पास कर दिया. लेकिन केंद्र सरकार नहीं कर रही. सीधे शब्दों में कहें तो जैसे हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाइ और दूसरे धर्म होते हैं वैसे एक और 'सरना' धर्म की मांग हो रही है. अब सवाल है कि जरूरत क्या है कि एक नए धर्म की? और कौन हैं वो लोग जो सरना धर्म मानते हैं? इसका आंदोलन कब से चल रहा है? इस पर राजनीतिक दलों की क्या प्रतिक्रियाएं रही हैं? इन सारे सवालों के जवाब हमने तलाशने की कोशिश की है इस रिपोर्ट में.

सरना क्या है?

झारखंड या कहें तो छोटा नागपुर पठार में रहने वाले आदिवासियों की बड़ी संख्या सरना धर्म मानती है. सरना धर्म मानने वाले खुद को प्रकृति का पुजारी बताते हैं. ये किसी भगवान या ईश्वर को नहीं मानते. मूर्ति पूजा नहीं करते. सरना को मानने वाले धर्मगुरु बंधन तिग्गा, दी लल्लनटॉप से बातचीत में कहते हैं कि,

बाकी धर्म वेद-पुराण, कुरान, बाइबल जैसी किताबों से चलते हैं. हमारा धर्म प्रकृति से चलता है. सरना धर्म मानने वाले लोग पृथ्वी की, पेड़ों की, पर्वत की पूजा करते हैं. लेकिन जैसे मंदिर में मंदिर की नहीं किसी भगवान की पूजा होती है, मस्जिद में अल्ला से दुआ मांगी जाती है, ठीक वैसे ही जब हम पृथ्वी, पेड़ या पर्वत की पूजा करते हैं तो हम उस अलौकिक शक्ति की पूजा करते हैं.

बंधन तिग्गा कहते हैं कि पृथ्वी की संरचना के समय से अगर कोई सबसे पुराना धर्म है तो वो सरना धर्म है. वो कहते हैं कि हमारे धर्म में कोई ऊंच नीच नहीं, कोई छोटा बड़ा नहीं और पुरुष और महिलाओं के बीच भेद भाव नहीं होता.

खुद को सरना धर्म से जुड़ा हुआ मानने वाले लोग तीन तरह की पूजा करते हैं. पहले धर्मेश की पूजा. दूसरी सरना मां की पूजा. और तीसरा जंगल की पूजा. इन तीनों को पूजने का एक लॉजिक बताया जाता है. कहते हैं जैसे हिंदू धर्म में पूर्वजों की पूजा की जाती है, माता-पिता की पूजा की जाती है वैसे ही धर्मेश यानी पिता और सरना यानी मां की पूजा की जाती है. तीसरी पूजा जंगल की होती है जिसे प्रकृति के तौर पर भी पूजा जाता है और इसलिए भी क्योंकि जंगल से खाना-पीना भी मिलता है.

सरना धर्म मानने वाले लोग सरहुल त्योहार मनाते हैं. हिंदू कैलेंडर के हिसाब से चैत के महीने की तृतीया को सरहुल मनाया जाता है. सरहुल के दिन ही नया साल मनाया जाता है. इसके अलावा भादो महीने की एकादशी को 'कर्म' त्योहार मनाया जाता है.

अलग धर्म मानने की मांग क्यों?

झारखंड में 32 जनजातियां रहती हैं. इनमें संथाली, उरांव, मुंडा और हो, प्रमुख जनजातियां मानी जाती हैं. क्योंकि इनकी जनसंख्या ज्यादा है. रांची यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड और खुद सरना आंदोलन से जुड़े प्रोफेसर कर्मा उरांव कहते हैं कि, 

सरना को अलग धर्म मानने की मांग 80 के दशक से चल रही है. साल 2011 की जनगणना में 79 लाख से ज्यादा लोगों ने धर्म के कॉलम में 'अन्य' भरा. लेकिन 49 लाख से ज्यादा ने धर्म के कॉलम में लोगों में अन्य नहीं 'सरना' भरा. और इन 49 लाख में से 42 लाख लोग झारखंड के रहने वाले हैं. इसके अलावा बंगाल और ओडिशा के करीब सवा 4 लाख लोगों ने भी धर्म के कॉलम सरना भरा.

प्रोफेसर कर्मा कहते हैं कि 2011 की जनगणना में जैन धर्म की जनसंख्या 45 लाख थी जबकि 49 लाख लोगों ने सरना धर्म चुना. तो सरना को धर्म मानने में क्या दिक्कत है. सरना को धर्म मानने वाले लोग कहते है कि अगर जनसंख्या के फॉर्म में सरना को जगह दे दी जाए तो पूरी जनसंख्या सामने आ जाएगी.

दी लल्लनटॉप से बातचीत में झारखंड के वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता रामेश्वर उरावं कहते हैं कि,

 देश भर में आदिवासियों की आबादी 9 प्रतिशत है. लेकिन धर्म का दर्जा नहीं. हम अन्य नहीं है. हमारे धर्म को मान्यता मिलनी चाहिए.

17 नवंबर 2021 को झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया. विधानसभा में सरना धर्म कोड बिल पास कराया. और केंद्र सरकार की मंजूरी के लिए एक चिट्ठी लिखी. चिट्ठी हेमंत सोरेन के प्रिसिंपल सेक्रेटरी ने लिखी. इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक चिट्ठी में कहा गया कि,

राज्य में आदिवासियों की जनसंख्या में भारी गिरावट आई है. इनकी जनसंख्या 1931 में 38.3 प्रतिशत थी जो 2011 की जनगणना में घटकर 26.02 प्रतिशत रह गई है. इसका एक कारण ये भी है कि काम के लिए लोग दूसरे राज्यों में चले जाते हैं. और दूसरे राज्यों में इनकी गिनती आदिवासियों में नहीं होती.  लेकिन अगर इनको अलग कोड मिल जाए तो पूरी जनसंख्या की गिनती की जा सकती है. गिरती हुई जनसंख्या से संविधान से मिले अधिकारों पर भी असर पड़ रहा है.

इसकी मांग को लेकर कुछ लोग ये भी कहते हैं कि सुविधाओं के लालच में आदिवासी, ईसाई धर्म अपना रहे हैं. ऐसे में एक बार फिर आइडेंटिटी क्राइसिस का मसला उठता है. इस पर कुछ लोग ये भी आपत्ति जताते हैं कि जो लोग ईसाई धर्म अपना रहे हैं वो धर्म के हिसाब से खुद को अल्पसंख्यक बता कर फायदा उठाते हैं और जाति के आधार पर खुद को जनजाति बता कर भी.

प्रोफेसर कर्मा बताते हैं कि, 

1967 में कांग्रेस के MP कार्तिक उरांव संसद में एक बिल लेकर आए थे. बिल में कहा गया था कि जिन आदिवासियों ने ईसाई या मुस्लिम धर्म अपना लिया है उन्हें ST का दर्जा नहीं मिलेगा. कर्मा के मुताबिक लोकसभा में 348 सांसदों ने इस बिल का समर्थन किया. और इनमें अटल बिहारी वाजपेई भी शामिल थे. लेकिन बाद में ये बिल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.

प्रोफेसर कर्मा कहते हैं कि ये सरना धर्म तो अलौकिक है. लेकिन इसका सबसे ज्यादा नुकसान आर्यों के भारत आने के बाद हुआ. उसके बाद इसे सबसे ज्यादा चोट पहुंचाई ब्राह्मणवाद ने.

हालांकि ईसाई धर्म अपनाने की बात पर राज्य के वित्त मंत्री रामेश्वर राव कहते हैं कि अगर कोई अपनी मर्जी से कोई और धर्म अपना रहा है तो क्या दिक्कत है. और अगर जबरन धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है तो इसके लिए तो कानून है ही. लेकिन किसी पर कोई धर्म थोपा ना जाए.

क्या है सरना धर्म कोड बिल?

सरना धर्म कोड बिल को समझने के लिए जरूरत है धर्म कोड समझने की. जनगणना रजिस्टर में धर्म का कॉलम होता है. इस कॉलम में अलग अलग धर्मों का अलग अलग कोड होता है. जैसे हिंदू धर्म का 1, मुस्लिम धर्म का 2, क्रिश्चियन धर्म का 3. ऐसे ही सरना धर्म के लिए भी एक कोड की मांग हो रही है. झारखंड सरकार ने अपनी चिट्ठी में इसी कोड की मांग की थी.

अड़चन कहां है?

हेमंत सोरेन सरकार ने विधानसभा से बिल पास कर गेंद केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है. लेकिन क्या केंद्र सरकार सरना धर्म को मान्यता देगी? जिसके लिए बाकायदा संसद से बिल पास कराकर कानून पारित करना होगा? इसका जवाब BJP भले ना दे. RSS जरूर देता है.

फरवरी 2020 को सर संघचालक मोहन भागवत झारखंड के दौरे पर जाते हैं. झारखंड जाकर मोहन भागवत ने कहा कि आगामी जनगणना में धर्म वाले कॉलम में आदिवासी अपना धर्म हिंदू लिखें. इसके लिए संघ देशभर में अभियान चलाएगा.

थोड़ा और पीछे चलते हैं. साल 2015. नवबंर का महीना था. BBC की खबर के मुताबिक रांची की सड़कों पर मोहन भागवत के पुतले फूंके जा रहे थे. वजह थी संघ में नंबर 2 की हैसियत रखने वाले सरकार्यवाहक कृष्णगोपाल RSS के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में शामिल होने रांची आए थे. कृष्णगोपाल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेस की. इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा- सरना कोई धर्म नहीं है. आदिवासी भी हिंदू धर्म कोड के अधीन हैं. इसलिए उनके लिए अलग से धर्म कोड की कोई ज़रूरत नहीं है.

भागवत और RSS के बयानों पर मंत्री रामेश्वर उरावं कहते हैं कि हमें सनातन धर्म से कोई दिक्कत नहीं है. सनातन धर्म का हृदय तो बहुत बड़ा है. उसमें सबके लिए जगह है. लेकिन हम पर जबरदस्ती हिंदू धर्म ना थोपा जाए.

लेकिन अड़चन इतनी भर नहीं है. झारखंड में 32 जनजातियां क्या सरना धर्म की छतरी तले आना चाहती हैं? जवाब है नहीं. आदिवासियों में अगल-अलग जातियों के अलग-अलग नाम हैं. ऐसे में कई जातियों का कहना है कि वो अपनी पहचान छोड़ सरना को क्यों अपनाएं.

झारखंड को सालों से करीब से देख रहे पत्रकार आनंद दत्ता बताते हैं कि,

80 के दशक में रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग में प्रोफेसर रहे राम दयाल मुंडा ने देश भर में यात्रा की. और अलग-अलग राज्यों में रह रहे आदिवासियों से सरना धर्म की छतरी के नीचे आने की अपील की. लेकिन ऐसा हो ना सका. 

इसका कारण है अलग अलग राज्यों के आदिवासियों की अलग पूजा पद्धति, अलग प्रथाएं और अलग पहचान. मध्य प्रदेश में रहने वाले आदिवासी अलग हैं. नॉर्थ ईस्ट की तरफ जाएंगे तो मेघालय में गारो, खासी और जयंतिया जनजातियों की प्रथाएं अलग हैं. और सारी जनजातियां सरना धर्म मानने में इच्छुक नहीं हैं.

इतिहास क्या कहता है?

देश भर में कुल 750 से ज्यादा जनजातियां है. 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में जनजातियों की जनसंख्या 10 करोड़ से ज्यादा थी. बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक इनमें क़रीब 2 करोड़ भील, 1.60 करोड़ गोंड, 80 लाख संथाल, 50 लाख मीणा, 42 लाख उरांव, 27 लाख मुंडा और 19 लाख बोडो आदिवासी हैं. ब्रिटिश इंडिया के दौरान 1871 से आजादी के बाद तक 1951 तक आदिवासियों के लिए अगल धर्म कोड की व्यवस्था थी. इसके बाद आदिवासियों को शिड्यूल ट्राइब कहा गया. और जनगणना ने 'अन्य' नाम से धर्म से कैटेगरी बना दी गई.

बताया जाता है कि सरना धर्म की मांग तो 80 के दशक से ही शुरू हो गई थी. लेकिन बीते कुछ सालों में अलग धर्म की मांग ने जोर पकड़ा है. rediff.com की खबर के मुताबिक साल 2018 में सरना धर्म की मांग को लेकर रेल रोक दी गई थी. इस प्रदर्शन में कई पैसेंजर ट्रेन फंसी साथ ही राजधानी समेत कुछ एक्सप्रेस ट्रेनों पर भी असर पड़ा. मार्च 2021 में आदिवासियों ने दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया. इस साल अप्रैल में भी आदिवासियों ने जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया. दावा किया गया गया कि इस प्रदर्शन में कई राज्यों से आदिवासी जुटे थे.

फिलहाल झारखंड सरकार ने सरना को अलग धर्म मानने के लिए बिल पास कर दिया है. केंद्र सरकार इस पर चुप है. 8 जून को सीएम हेमंत सोरेन ने मुद्दे को हवा देने की कोशिश की. लेकिन खुद पर चल रहे दो केसों के बीच अचानक सोरेन को धर्म का मुद्दा क्यों याद आया, इसका हर कोई अलग मायने निकाल रहा है. वैसे हेमंत सोरेन खुद भी सरना धर्म मानते हैं.

वीडियो: क्या BJP झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार को गिराने की कोशिश कर रही है