सदियों से चांद पर न जाने क्या-क्या लिखा गया है. शेरों शायरियां. फिल्मों के डायलॉग. और वॉट्सऐप के मैसेज(इसे कैसे भूल सकते हैं). इन सभी के सेंटर में होती है चांद की खूबसूरती. इस खूबसूरती के साथ कॉन्ट्रास्ट बनाने करने के लिए 'चांद के दाग' को साथ लपेट लिया जाता है.
चांद खूबसूरत होता है. ठीक है, अच्छी बात है. अपना सवाल ये है कि चांद पर दाग क्यों होते हैं. मतलब चांद पर ये दाग कहां से आए?
बताते हैं, पूरी कहानी बताते हैं.
करीब 45 लाख साल पहले चांद बना
. तब अंतरिक्ष में पत्थरबाज़ी चल रही थी. भयंकर स्पीड से बड़ी-बड़ी चट्टानें इधर-उधर भाग रही थीं. बड़ी-बड़ी चट्टानें मतलब एस्टेरॉइड और मीटियोर. हिंदी में बोले तो क्षुद्र ग्रह और उल्का पिंड. ये चट्टानें आकर चांद से टकराईं और चांद पर दाग बन गए.

लेफ्ट में एस्टेरॉइड की तस्वीर है. मंगल के उस तरफ बहुत सारे एस्टोरॉइड्स का एक झुंड सूरज के चक्कर काटता है. राइट में मीटियोर है. इसी मीटियोर को हम टूटता तारा बोलते हैं. (सोर्स - विकिमीडिया)
बस? इत्ती सी बात? कहानी इतनी सिंपल नहीं है. एक सीक्रेट बात बताता हूं. और ये बात जानकर आपके मन में सवाल उठेंगे.
चांद का सीक्रेट पिछवाड़ा
पृथ्वी से सिर्फ चांद की एक ही साइड दिखती है. क्या मतलब? मतलब ये कि चांद पृथ्वी के चक्कर तो काटता है, लेकिन वो पृथ्वी के चक्कर ऐसे काटता है कि हमें उसकी एक ही साइड दिखे. इस हरकत को टाइडल लॉकिंग बोलते हैं. इस टाइडल लॉकिंग का नतीजा ये होता है कि धरती पर रहने वाला इंसान कभी चांद की पीठ नहीं देख पाया.
चांद का एक ही मुंह धरती तरफ है. यही है टाइडल लॉकिंग. (सोर्स - विकिमीडिया)
इससे पहले कि आप सबूत मांगें, चांद की पूरी 27 दिन की साइकिल देखिए -

इंसान ठहरा क्यूरियस प्राणी. बिना चांद की पीठ देखे उससे रहा नहीं गया. चांद की पीठ देखने के लिए एक कैमरा फिट करके अपना अंतरिक्षयान पहुंचाया गया. 1959 में रूस के लूना 3 ने चांद की पीछे वाली साइड की सबसे पहली तस्वीर खींची. बाद में अमेरिका और रूस के बहुत सारे मून मिशन्स चांद की पीठ देखकर आए. जब इंसान ने चांद की दूसरी साइड देखी तो मुंह खुला रह गया, आंखें फटी रह गईं और गले का टेंटुआ बाहर आ गया.
पता चला कि चांद के अगवाड़े से उसका पिछवाड़ा बिलकुल अलग है.
आगे की साइड बड़े-बड़े काले धब्बे हैं. पीछे की साइड दिखे खूब सारे गड्ढे.इन गड्ढों को क्रेटर बोलते हैं. जब अंतरिक्ष वाली चट्टानें सतह से टकराती हैं तो ये क्रेटर बना देती हैं. चांद की सामने वाली साइड पर भी क्रेटर हैं लेकिन पीछे के मुकाबले बहुत कम. एस्टेरॉइड और मीटियोर के टकराने से गड्ढे होना तो समझ आता है लेकिन ये काले धब्बे कहां से आये?
लेफ्ट में है चांद की सामने वाली साइड जो हमें दिखती है. राइट में है चांद की पीछे वाली साइड, जिसका ज़्यादातर हिस्सा हमें नहीं दिखता. (सोर्स - नासा)
पहले एस्ट्रोनॉमर्स ने इन काले धब्बों का नाम रखा था - मारिया. लैटिन भाषा में समुद्रों को मारिया कहते हैं. पहले के एस्ट्रोनॉमर्स को ऐसा लगता था कि ये धब्बे चांद के समुद्र थे, जो अब सूख चुके हैं. ये मून मिशन्स के पहले की समझ थी. जब हम चांद पर पहुंचे, तो वहां से चांद के सैंपल्स (चट्टानों के टुकड़े) ले आए. और इन सैंपल्स से कुछ और बात पता चली.

पृथ्वी की सतह के नीचे लावा तैर रहा है. चांद की सतह के नीचे भी यही ऐसा ही है. (सोर्स - विकिमीडिया)
ये काले धब्बे समुद्र तो थे, लेकिन इन समुद्रों में पानी नहीं था. यहां लावा भरा हुआ था. जब बहुत बड़ी-बड़ी चट्टानें जाकर चांद से टकराईं तो बड़े-बड़े गड्ढे बने. ये चट्टानें इतनी भयंकर थीं कि धमाके से चांद की बाहरी सतह फट गई. और अंदर का लावा बाहर आकर गड्ढे में भर गया. बाद में लावा ठंडा हुआ और वहां जम गया. ये लावा जमकर बेसॉल्ट की काली चट्टानों में तब्दील हो गया. यही ठंडा जमा हुआ लावा हमें काले धब्बे के रूप में दिखता है.
लेकिन सामने की साइड का लावा ही क्यों निकला? पीछे की साइड का लावा क्यों नहीं निकला? ये फिलहाल एक मिस्ट्री है. वैसे एक थ्योरी ये कहती है कि चांद की पीछे वाली सतह की मोटाई ज़्यादा है. और सामने वाली सतह की मोटाई कम है.
तो भैया ये है चांद पर दिखने वाले गड्ढों और धब्बों का रहस्य. लेकिन ये सब जानकर आपके मन में एक सवाल ज़रूर उठना चाहिए- पृथ्वी पर चांद जैसे गड्ढे क्यों नहीं दिखते?
पृथ्वी के गड्ढे कहां गए?
पृथ्वी तो चांद से बहूऊत बड़ी है. यहां तो और भी ज़्यादा एस्टेरॉइड और मीटियोर आकर गिरे होंगे. उनके निशान कहां हैं?जवाब है पृथ्वी वो निशान पचा गई. ऐसे कैसे पचा गई? देखो ऐसा है, कुछेक बातें हैं जो पृथ्वी को चांद से अलग बनाती हैं -
1. वायुमंडल - पृथ्वी के पास अपना बेहतरीन वायुमंडल है. कई सारी चट्टानें तो यहां आने से पहले ही हवा में भस्म हो जाती हैं. और वायुमंडल होने के कारण पृथ्वी पर सॉइल इरोज़न होता है. मतलब हवा, पानी वगैरह से यहां की मिट्टी इधर-उधर जाती रहती है. चांद पे कोई हवा ही नहीं है. न ही कोई हलचल होती है. चांद पर होने वाली हलचल इतनी ज़ीरो है कि चांद पर गए एस्ट्रोनॉट्स
के जूतों के निशान अभी तक वहां बने हुए हैं.

लेफ्ट - एस्टेरॉइड वायुमंडल में घुसते ही जल उठता है. राइट - अपोलो 11 से चांद पर पहली बार गए इंसान के कदम. (सोर्स - विकिमीडिया)
2. प्लेट टैक्टॉनिक्स - पृथ्वी की सतह हमेशा से बदलती आ रही है. इंडिया की जो ज़मीन आज एशिया से जुड़ी है, वो पहले अफ्रीका से जुड़ी थी. हमारे पैरों के नीचे की ज़मीन अभी भी धीमी स्पीड से कहीं जा रही है. ये सब प्लेट टैक्टॉनिक्स
के कारण हो रहा है. चांद पर प्लेट टैक्टॉनिक्स जैसा कुछ होता नहीं है.

धरती के नीचे का लावा एक्टिव है. इसलिए धरती पर ज्वालामुखी और प्लेट टैक्टॉनिक्स जैसी चीज़ें होती हैं. चांद के नीचे का लावा एक्टिव नहीं है. (सोर्स - विकिमीडिया)
ऐसी बात नहीं है कि पृथ्वी पर ये गड्ढे (क्रेटर्स) हैं ही नहीं. आज भी पृथ्वी पर कई क्रेटर्स मौजूद हैं. उदाहरण के लिए कैनेडा का Pingualuit Crater, जो अब तालाब बन चुका है. इंडिया में महाराष्ट्र में लोनार लेक है. वो भी एक क्रेटर ही है. पृथ्वी पर बहुत सारे क्रेटर्स हैं. एक तो यार पृथ्वी का दो तिहाई हिस्सा पानी से भरा हुआ है. इसलिए कुछ दिखता नहीं है.

क्यूबिक शहर में मौजूद Pingualuit Crater.(सोर्स - विकिमीडिया)
मंगल पर भी बहुत सारे क्रेटर्स हैं. चांद पर तो हैं ही. पृथ्वी पर भी चट्टानों के टकराने से ये क्रेटर्स बने थे लेकिन पृथ्वी अपनी खासियतों के चलते उन्हें पचा गई.
हमाई धरती बहुत अच्छी है. सबकुछ पचा लेती है. इत्ते सारे इंसानों को और उनकी मनमानियों को सालों से पचा ही रही है. लेकिन प्लास्टिक को पचाने में बहुत दिक्कत हो रही है इनको. ऐसा न हो कि हज़ारों-लाखों साल बाद पृथ्वी पर प्लास्टिक ही प्लास्टिक नज़र आए. और दूसरे ग्रह के लोग, अगर कहीं जीवन है तो, पृथ्वी में प्लास्टिक के पहाड़ों पर स्टडी करें, जैसे हम चांद के दाग पर ज्ञान बघार रहे हैं.
वीडियो - साइंसकारी: इंडियन प्लेट का गोंडवाना से एशिया तक का सफर विस्तार से जानिए