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कैंसर और डायबिटीज़ का इलाज अब पास? इस बार के नोबेल प्राइज ने खोल दिए शरीर के राज़

मेडिसिन के क्षेत्र में मिला मायरी ब्रंको (Mary Brunkow), फ्रेड रम्सडेल (Fred Ramsdell) और शिमॉन साकागूची (Shimon Sakaguchi) को नोबल प्राइज. शरीर के इम्यून सिस्टम के बारे में बताई ऐसी रोचक बात की जानकर हैरान हो जाएगें

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noble prize in medicine 2025

साल था 1788. यूरोप में ऑस्ट्रिया और ऑटोमन साम्राज्य के बीच जंग छिड़ी हुई थी. एक रात ऑस्ट्रियाई सैनिक गश्त पर निकले - थके हुए, भूखे-प्यासे. तभी रास्ते में दिख गई प्रीमियम शराब की कुछ बोतलें. जंग थमी नहीं थी, लेकिन माहौल हल्का करने के लिए कुछ पेग लगाने में क्या हर्ज़ था!

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बस, यहीं से गड़बड़ शुरू हुई. शराब के सुरूर में डूबे सैनिकों के पास जब उनके ही साथी पहुंचे, तो बोतलें छीनने की नौबत आ गई. थोड़ी कहासुनी, फिर बंदूकें तान दी गईं. कैंप में बैठे सैनिकों ने आवाज़ सुनी तो समझे - दुश्मन ने हमला कर दिया है!

रातभर अफरा-तफरी मची रही. सुबह जब सूरज उगा, तो पता चला - ऑस्ट्रिया के सैनिकों ने किसी दुश्मन को नहीं, अपने ही साथियों को गोलियों से छलनी कर दिया था. यानी पूरा “फ्रेंडली फायर”!

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जंग के मैदान में ये ‘सेल्फ गोल’ ऑस्ट्रियाई सेना की भारी बेइज़्जती का सबब बन गया.

अब सुनिए - ऐसा ही एक “युद्ध” हमारे शरीर के अंदर भी चलता रहता है. हर पल, बिना रुके. फर्क बस इतना है कि यहां कोई शराब नहीं, बल्कि लाखों-करोड़ों सूक्ष्म कीटाणु होते हैं - और उनसे जंग लड़ती हैं हमारी एंटीबॉडीज़.

लेकिन सोचिए, जब शरीर के अंदर इतनी भीड़ होती है, तो हमारी इम्यून सेल्स (प्रतिरक्षा कोशिकाएं) कैसे पहचानती हैं कि कौन दुश्मन है और कौन अपना? आखिर ये अपनी ही स्वस्थ कोशिकाओं पर क्यों नहीं हमला करतीं?

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यही रहस्य सुलझाया तीन वैज्ञानिकों ने - मायरी ब्रंको (Mary Brunkow), फ्रेड रम्सडेल (Fred Ramsdell) और शिमॉन साकागूची (Shimon Sakaguchi) ने.

और इसी खोज - पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस (Peripheral Immune Tolerance) - के लिए उन्हें 2025 का नोबेल प्राइज इन मेडिसिन मिला.

इम्यून सिस्टम का छोटा क्रैश कोर्स

हमारी इम्यून सिस्टम यानी प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर की “डिफेंस आर्मी” है.

इसमें कई यूनिट्स हैं, लेकिन दो सबसे खास हैं -

  • T-cells : जो सीधे संक्रमित कोशिकाओं पर हमला करती हैं.
  • B-cells : जो एंटीबॉडीज़ बनाकर वायरस और बैक्टीरिया को ढूंढ-ढूंढकर खत्म करती हैं.

ये दोनों हमारे “सेंट्रल ट्रेनिंग कैंप” - बोन मैरो और थाइमस - में तैयार की जाती हैं. इसके बाद इन्हें पूरे शरीर में “पोस्टिंग” मिलती है - यानी “पेरिफेरल इम्यून सिस्टम” में तैनाती.

लेकिन जैसा हर आर्मी में होता है, यहां भी कुछ “बागी सैनिक” निकल आते हैं - जो गलती से अपने ही शरीर की कोशिकाओं को दुश्मन समझ बैठते हैं. यहीं से जन्म लेती हैं “ऑटोइम्यून बीमारियां” - जैसे टाइप 1 डायबिटीज़ या रुमेटॉयड आर्थराइटिस.

खोज कैसे हुई

वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में नवजात चूहों पर एक्सपेरिमेंट किए. जब चूहे के शरीर से उसका थाइमस (T-cells का ट्रेनिंग कैंप) निकाल दिया गया, तो उसका इम्यून सिस्टम बेकाबू हो गया. वो अपने ही अंगों को नुकसान पहुंचाने लगा. यहीं से शुरू हुआ रहस्य - “कौन रोकता है इस बेकाबू इम्यून सिस्टम को?”

शिमॉन साकागूची की खोज

साकागूची ने हेल्दी चूहों के कुछ टी सेल्स उन बीमार चूहों में ट्रांसफर किए और नतीजा चौंकाने वाला था. कुछ ही समय में इम्यून सिस्टम शांत हो गया!

इससे साबित हुआ कि कुछ स्पेशल टी सेल्स होते हैं जो बाकी टी सेल्स को कंट्रोल करते हैं. शरीर की “रेगुलेटरी फोर्स” की तरह. 

साकागूची ने इन्हें नाम दिया - Regulatory T-cells (Tregs). ये टी-सेल्स हमारे शरीर के अंदर “इंटर्नल सिक्योरिटी एजेंसी” की तरह काम करती हैं -

जो किसी भी बागी सेल को तुरंत पहचानकर “न्यूट्रलाइज” कर देती हैं.

फ्रेड रम्सडेल और मायरी ब्रंको का योगदान

1940 के दशक में अमेरिकी लैब्स में कुछ अजीब चूहे पैदा हुए थे. जिनकी त्वचा छिल रही थी, स्प्लीन सूज गई थी और वो जल्दी मर जाते थे. उन्हें कहा गया - Scurfy Mice.

दशकों बाद रम्सडेल और ब्रंको ने इनके DNA की जांच की और पाया कि इनमें FOXP3 नामक जीन में गड़बड़ी थी. यही जीन रेगुलेटरी टी सेल्स (Tregs) के लिए ज़रूरी होता है.

जब ये जीन खराब होता है, तो शरीर का इम्यून सिस्टम खुद के खिलाफ लड़ने लगता है. यानी Autoimmune Disease.

इसी खोज ने ऑटोइम्यून बीमारियों के इलाज, कैंसर थेरेपी और इम्यून मॉड्यूलेशन रिसर्च के नए दरवाज़े खोल दिए.

नोबेल प्राइज देने की वजह

तीनों वैज्ञानिकों की खोज ने ये साफ़ कर दिया कि शरीर में “शांति” सिर्फ़ इम्यूनिटी का साइड इफेक्ट नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक रूप से संगठित रणनीति है. एक ऐसी रणनीति जो हर दिन लाखों “फ्रेंडली फायर” होने से रोकती है.

अगर 1788 में ऑस्ट्रियाई सेना के पास भी ऐसा सिस्टम होता तो शायद वो रात “इतिहास की सबसे बड़ी भूल” नहीं कहलाती.

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