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कौन हैं पसमांदा मुस्लिम और BJP उन्हें हक दिलाने की बात क्यों कर रही है?

लखनऊ में 16 अक्टूबर को BJP ने पसमांदा मुस्लिमों के साथ बैठक की.

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सांकेतिक तस्वीर. (इंडिया टुडे)

बीजेपी ने अपने सबसे मुश्किल अभियान की शुरुआत कर दी है. ये अभियान है मुस्लिमों का वोट जुटाने का. इसके अलावा भारतीय राजनीति के मौजूदा दौर में मोदी-शाह की बीजेपी के लिए कुछ भी मुश्किल कहना बेमानी होगा. पसमांदा मुस्लिमों तक पहुंचने की कवायद में जुटी बीजेपी, अपनी उस छवि से बाहर निकलना चाहती है जिसमें कहा जाता है कि इस राइट विंग पार्टी को मुसलमानों से परहेज है. यही वजह है कि हैदराबाद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि पार्टी को पसमांदा मुस्लिमों तक पहुंचना है. और कल यानी 16 अक्टूबर को यूपी की राजधानी लखनऊ में बीजेपी ने पसमांदा मुस्लिमों के साथ पहली बार बैठक की. बैठक में यूपी के उप मुख्यमंत्री ने कहा कि पसमांदा मुस्लिमों को बिरयानी में तेजपत्ता की तरह इस्तेमाल किया जाता है, जिसका स्वाद आने के बाद उसे निकाल कर फेंक दिया जाता है.

कौन हैं पसमांदा मुसलमान?

पसमांदा मुसलमानों को समझने से पहले हमें मुस्लिम समाज के वर्गीकरण को समझना पड़ेगा. हालांकि, इस्लाम सभी तरह के वर्गीकरण का विरोध करता है. लेकिन भारत में जमीन पर वर्गीकरण है. इसमें तीन वर्ग हैं. अशराफ, अजलाफ और अरजाल. अशराफ में आती हैं पॉवरफुल जातियां. इन्हें आर्थिक और सामाजिक तौर पर संपन्न भी कहा जा सकता है. अगर आर्थिक नहीं तो सामाजिक तौर पर ये संपन्न होते हैं. इन्हें किसी तरह के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता. इनमें आते हैं सैयद, पठान, मुगल, शेख और मिर्जा.

इसके बाद आते हैं अजलाफ. इसे मध्य वर्ग भी कहा जा सकता है. इसमें आते हैं, जैसे- रईनी, जो सब्जी बेचते हैं और मोमिन यानी बुनकर.

फिर बारी आती है अरजाल की. इसमें सामाजिक और आर्थिक तौर पर कमजोर जातियां शामिल हैं. इन जातियों में शामिल लोग साफ-सफाई, बाल काटने, चप्पल-जूते सिलने, चमड़े से जुड़े काम इत्यादि करते हैं. इन्हीं जातियों में शामिल लोग खुद को पसमांदा कहते हैं.

पसमांदा एक पारसी शब्द है जिसका अर्थ होता है 'जिन्हें पीछे छोड़ दिया गया'. पिछड़े, दलित और आदिवासी मुस्लिम समुदाय के लोग खुद को पसमांदा कहते हैं.

पसमांदा मुस्लिमों पर राज्यसभा के पूर्व सांसद अली अनवर अंसारी ने एक किताब लिखी है. किताब का नाम है मसावत की जंग. इसका हिंदी में शाब्दिक अर्थ है समानता की लड़ाई. साल 1998 में उन्होंने 'पसमांदा मुस्लिम महाज' की स्थापना की. उसके बाद से पसमांदा मुस्लिमों पर ज्यादा चर्चा शुरू हुई. दी लल्लनटॉप से बात करते हुए अनवर कहते हैं कि पसमांदा में दलित मुस्लिम भी हैं और पिछड़े भी. संगठन बनाने के बाद देशभर से लोग जुड़ने लगे. पसमांदा में दलित आते तो हैं, लेकिन संविधान के हिसाब से ये सभी OBC हैं यानी पिछड़े हैं, दलित नहीं.

दरअसल, देश के संविधान के हिसाब से मुस्लिम OBC और कुछ जनजातियों को तो आरक्षण मिलता है लेकिन मुस्लिम दलितों का कोई जिक्र नहीं है. और सारी लड़ाई इसी बात की है कि मुस्लिमों में भी दलितों को उनका दर्जा दिया जाए ताकि उन्हें आरक्षण का लाभ मिल सके. सालों से यही मांग है.

मुस्लिम दलित

दिल्ली की जामिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ. जुनैद हारिस कहते हैं कहते हैं कि इस्लाम में ना तो वर्ण व्यवस्था है ना जाति व्यवस्था. ये सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित है. प्रोफेसर जुनैद कहते हैं,

"देश में मुस्लिमों का एक बड़ा हिस्सा धर्म परिवर्तन के बाद मुसलमान बना. इनमें बहुतेरे ऐसे भी हैं जो हिंदू धर्म में भेदभाव का शिकार थे और उन्होंने मुस्लिम धर्म अपना लिया. लेकिन छुआछूत और भेदभाव धर्म परिवर्तन से भी नहीं गया. और यही वजह है कि भारत में कुछ मुस्लिमों को भी भेदभाव का शिकार होना पड़ता है."

जुनैद कहते हैं कि इस्लाम में भेदभाव नहीं है और इसका साक्ष्य प्रॉफेट की आखिरी स्पीच में है. वो कहते हैं कि प्रॉफेट ने हज्जत-उल-विदा में कहा था,

किसी गोरे को किसी काले, किसी काले को किसी गोरे पर, किसी अरब को किसी गैर-अरब पर, किसी गैर-अरब को किसी अरब पर, किसी भी तरफ की बढ़त हासिल नहीं है.

लेकिन प्रॉफेट के इसी भाषण का जिक्र करते हुए अली अनवर कहते हैं कि भेदभाव सिर्फ भारत में नहीं है. ये इस्लाम से पहले भी अरब में था. अली अनवर कहते हैं,

"अगर उस समय ऐसा भेदभाव नहीं होता तो प्रॉफेट इसका जिक्र करते ही क्यों. ये सिर्फ कहने की बात है कि मुस्लिमों में जाति व्यवस्था सिर्फ भारत में है."

अनवर कहते हैं कि जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने 2007 में अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र भी किया है कि भारत में सभी धर्मों में जाति व्यवस्था कायम है और इसमें मुस्लिम धर्म भी शामिल है.

पसमांदा मुस्लिमों की आबादी

पसमांदा मुस्लिमों के हक की बात करने वाले कहते हैं कि मुस्लिमों की करीब 85 फीसदी आबादी पसमांदा है. हालांकि, इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि देश में पिछड़े और SC/ST मुस्लिमों की आबादी 40 प्रतिशत है.

कोई भी राजनीतिक पार्टी जब किसी जाति या धर्म को वोट को टारगेट करती है, तो उसके पीछे की वजह होती है उनकी आबादी. और पसमांदा मुस्लिमों की यही आबादी, वजह है कि BJP उनतक पहुंचकर एक बड़े वोट बैंक को अपने पाले में करना चाहती है.

क्या पसमांदा बीजेपी को वोट देंगे?

दरअसल, बीजेपी को लेकर एक धारणा है कि मुस्लिम उसे वोट नहीं देते. और बीजेपी फिलहाल इसी धारणा को तोड़ने की कोशिश कर रही है. इस बारे में बात करते हुए अली अनवर कहते हैं, 

जिन पसमांदा मुस्लिमों को मोदी जी जोड़ने की बात कर रहे हैं, वो वही हैं जिन पर लव जिहाद का आरोप लगाया जाता है, जिन पर UPSC जिहाद का आरोप लगाया जाता है, जिन्हें जबरन जय श्री राम बोलने को कहा जाता है, जिनकी लिंचिंग की जाती है, जिनके घरों पर बुलडोजर चलाया जाता है. पहले ये सब बंद हो, तब पसमांदा मुस्लिमों को जोड़ने की बात कही जाए.

इंडिया टुडे के नेशनल अफेयर्स एडिटर राहुल श्रीवास्तव कहते हैं,

पसमांदा मुस्लिमों को जोड़ने की कोशिश भले की जाए, लेकिन इसका नतीजा निकलेगा इस पर शक है. ट्रिपल तलाक के खिलाफ कानून बनाने के बाद भी इसी तरह की बात कही जा रही थी. लेकिन क्या मुस्लिमों महिलाओं ने एकजुट होकर बीजेपी वोट देना शुरु कर दिया? अगर कुछ महिलाओं ने दिया, तो भी इसे पूरे मुस्लिम समाज की महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कहा जा सकता है.

राजनीतिक जानकार कहते हैं कि बीजेपी की इस कवायद के फोकस में 2024 के चुनाव हैं. लेकिन सवाल ये है कि क्या अगले ढेड़ साल में पार्टी अपनी उस छवि को तोड़ने में कामयाब हो पाएगी, जिसे विपक्ष मुस्लिम विरोधी कहता है.

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