गांव में प्रधानी का चुनाव होता है. तो प्रधान बनने की ख्वाहिश रखने वाले भावी प्रधान जी एक पोस्टर छपवाते हैं. पोस्टर वायरल हो जाता है. काहे कि वादे इतने जबर किए कि हर किसी का दिमाग चकरा गया. पोस्टर पर घोषणा लिखवाई. मुखिया बनते ही पूरे गांव को सरकारी नौकरी. गांव में हवाई अड्डे की सुविधा. प्रत्येक सिंगल युवाओं को अपाची बाइक और 5 हज़ार रुपया प्रतिदिन भत्ता सीधे खाते में. लड़कियों को फ्री स्कूटी एवं एक सिलाई मशीन की व्यवस्था. नल जल योजना में पानी की जगह दूध की सप्लाई की जाएगी. आदि-आदि...अब ये पोस्टर किसी ने मीम की शक्ल में मजाक के लिए बनाया था या फिर किसी विरोधी ने मौज ले ली. ये तो प्रधान जी ही जानें. ये सारे वादे तो कोई पूरा नहीं कर सकता है. मगर इसमें एक सार छिपा था, सार ये कि नेता चुनाव में बड़े-बड़े वादे करते हैं. बहुत कुछ मुफ्त में देने की घोषणा भी करते हैं. वादे - जो या तो पूरे नहीं होते, और अगर होते हैं तो राजकोषीय खजाने पर उसका तगड़ा असर पड़ता है.
'रेवड़ी कल्चर' पर सुप्रीम कोर्ट ने की मारक टिप्पणी, केंद्र और राज्य का क्या रुख है?
वादे- जो या तो पूरे नहीं होते हैं, और अगर होते हैं, तो उनका राजकोषीय खजाने पर गहरा प्रभाव पड़ता है.

ये चर्चा अब तक आम जनमानस में हुआ करती थी. मगर अब ये बहस चुनाव आयोग से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुकी है. सुप्रीम कोर्ट किस निष्कर्ष तक पहुंचा है? सुप्रीम कोर्ट में इसपर क्या दलीलें दी गई? उस पर आएंगे. लेकिन इससे पहले आप याद करिए पीएम मोदी का 16 जुलाई का भाषण जिसमें उन्होंने रेवड़ी कल्चर को बंद करने की वकालत की थी. इसके बाद से ही ये बहस और तेज हो गई.
प्रधानमंत्री मोदी ने रेवड़ी कल्चर को देश के घातक बताया. मुफ्त की घोषणाओं पर टिप्पणी से परे, इसे विरोधियों पर हमले के तौर पर देखा गया. विरोधियों ने भी सरकार की तमाम योजनाओं और वादों को इंगित कर इसी बयान के बहाने प्रधानमंत्री को निशाने पर ले लिया. इसी मसले से जुड़ी एक याचिका PIL की शक्ल में 22 जनवरी 2022 को बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की. मांग की, कि चुनाव में मुफ्त उपहार बांटने या वादा करना रिश्वत घोषित हो. मुफ्त के वादे करने वाली पार्टियों की सदस्यता तक रद्द करने की मांग कर डाली. केस को Ashwini Upadhyay vs Union of India के नाम से जाना गया. इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 25 जनवरी को नोटिस जारी किया. इस पर 3 अगस्त की तारीख यानी कल तक लंबी जिरह चली है.
बारी-बारी से हर दिन की सुनवाई के मुख्य अंश को रीकैप की तरह समझ लेते हैं. फिर 3 अगस्त की बहस पर आते हैं. पहली सुनवाई 25 जनवरी को हुई. उस दिन सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस एन वी रमना, जस्टिस ए एस बोप्पानन और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच मामले की सुनवाई के लिए बैठी. पहली सुनवाई में CJI रमना ने पूछा,
"हम जानना चाहते हैं कि इसे कैसे नियंत्रित किया जाए. नि:संदेह यह एक गंभीर मुद्दा है. मुफ्त की घोषणाओं का बजट नियमित बजट से आगे जा रहा है. हमने चुनाव आयोग को दिशानिर्देश बनाने का निर्देश दिया है."
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने सुब्रमनीयम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य केस का भी हवाला दिया. जिसमें कहा गया था कि चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादों को भ्रष्ट आरचण की तरह नहीं बनाना चाहिए, ये लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 123 का उल्लंघन है. याचिकाकर्ता की तरफ से पेश हुए सीनियर वकील विकास सिंह ने तब दलील दी थी कि कुछ राज्यों पर प्रति व्यक्ति 3 लाख से अधिक का बोझ है, और अभी भी मुफ्त/ की पेशकश की जा रही है. और ऐसा सभी पार्टियां करती हैं.
इस पर CJI ने कहा कि जब सभी पार्टियां ऐसा करती हैं तो आपने अपने एफिडेविट में सिर्फ दो पार्टियां का जिक्र क्यों किया? वकील विकास सिंह ने कहा- हम किसी भी पार्टी का नाम नहीं लेना चाहते. इस पर जस्टिस हिमा कोहली ने कहा,
“आप कह रहे हैं कि किसी नाम नहीं लूंगा, मगर एफिडेविट में तो आपने साफ साफ नाम लिए हैं!”
दरअसल याचिका में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का जिक्र किया गया था. दलील में भी पंजाब में आप, कांग्रेस और शिरोमणी अकाली दल की तरफ से की गई घोषणाओं का जिक्र किया गया, यूपी चुनाव में सपा और कांग्रेस की मुफ्त वाली घोषणाओं का जिक्र किया गया. लेकिन कहीं केंद्र और तमाम राज्यों में सत्ताधारी बीजेपी का जिक्र नहीं किया गया.
चूंकि याचिका 5 राज्यों के चुनाव से पहले दाखिल की गई थी. तो उसमें पंजाब का विशेष जिक्र हुआ. याचिका में कहा गया कि आप अगर पंजाब की सत्ता में आती है तो उसे अपने वादे पूरे करने में 12 हजार करोड़ प्रति महीने खर्च करने होंगे, अकाली दल सरकार में आई तो उसे अपने वादे पूरे करने में 30 हजार करोड़ खर्च करने होंगे. कांग्रेस सरकार में आई तो 25 हजार करोड़ हर महीने का खर्च वादों को पूरा करने में आएगा. जबकि राज्य का जीएसटी कलेक्शन सिर्फ 14 सौ करोड़ है. कहा गया कि इससे राज्य की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है. याचिकाकर्ता की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट ने चुनाव और भारत सरकार को नोटिस जारी कर उनको अपना पक्ष रखने को कहा.
ये 25 जनवरी को हुई सुनवाई का सार था. सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई 10 अप्रैल को हुई. चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब एफिडेटविट के तौर दाखिल किया. एफिडेटविट में काफी कुछ लिखा गया. कई नियमों और फैसले का हवाला देते हुए चुनाव आयोग ने जो बात कही, उसमें सबसे महत्वपूर्ण ये थी- चुनाव से पहले या बाद में कोई भी मुफ्त उपहार देना पार्टी का एक नीतिगत निर्णय है. जीतने वाली पार्टी की तरफ से सरकार बनाते समय बनाई गई नीतियों और निर्णयों को चुनाव आयोग नियंत्रित नहीं कर सकता है. एक तरह से चुनाव आयोग ने अपनी तरफ से कोई भी कार्रवाई करने से इनकार कर दिया.
फिर अगली सुनवाई 26 जुलाई को हुई. इस दिन सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा-
"केंद्र चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त में दिए जाने वाले उपहारों की घोषणा को नियंत्रित करने की जरूरत पर एक स्टैंड लें."
सरकार की तरफ से पेश हुए एडिशनल सॉलिसिटर जनरल के एम नटराज से चीफ जस्टिस रमना ने पूछा-
"Why don't you say that you have nothing to do with it and the ECI has to take a call? I'm asking if Government of India is considering whether its a serious issue or not?"
मतबल ये कि केंद्र सरकार क्यों नहीं कह देती कि वो इस पर कुछ नहीं कर सकती और चुनाव आयोग फैसला ले? न्यायालय पूछ रहा है कि भारत सरकार इसे गंभीर मुद्दा मान रही है या नहीं ? आप कोई स्टैंड लेने से हिचकिचा क्यों रहे हैं?
इस पर याचिकाकर्ता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने इस मुद्दे को गंभीर बताते हुए कहा,
“चुनाव आयोग को राज्य और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को ऐसी चीजें देने से रोकना चाहिए. उन्होंने ये भी कहा कि आयोग को एक पार्टी को राज्य या राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में मान्यता देने के लिए अतिरिक्त शर्तें जोड़नी चाहिए. वादे रीजनेबल या वाजिब लगने चाहिए.”
उपाध्याय ने दलील दी कि देश में साढ़े 6 लाख करोड़ का कर्ज है. उन्होने कहा,
We're on our way to becoming Sri Lanka.
यानी हम श्रीलंका बनने की ओर बढ़ रहे हैं.
कोर्ट में देश की आर्थिक स्थिति की तुलना श्रीलंका की बदहाली से की गई. ये खुद वकील और बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने की. 26 जुलाई की सुनवाई के दौरान कपिल सिब्बल भी मौजूद थे. वो किसी भी पक्ष के वकील नहीं हैं, मगर सीनियर वकील और नेता होने के नाते CJI की तरफ से उनसे सुझाव मांगा गया. तब कपिल सिब्बल ने कहा,
"ये एक गंभीर मुद्दा है लेकिन राजनीतिक रूप से नियंत्रित करना मुश्किल है. वित्त आयोग जब विभिन्न राज्यों को आवंटन करता है, तो वो राज्य के कर्ज और मुफ्त की मात्रा को ध्यान में रख सकते हैं. इससे निपटने के लिए वित्त आयोग उपयुक्त प्राधिकारी है. शायद हम इस पहलू को देखने के लिए आयोग को आमंत्रित कर सकते हैं. इस पर केंद्र से निर्देश जारी करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है."
इसके बाद चीफ जस्टिस रमना ने सरकारी वकील से कहा-
Mr Nataraj, please find out from the Finance Commission as to whether this takes place. You find out who is the authority where we can initiate a debate or something.
मतलब ये कि कृपया वित्त आयोग से पता करें कि क्या ऐसा होता है. आप पता करिए अथॉरिटी कौन है, जिसके बाद हम इस पर बहस कर सकें. केंद्र सरकार को जवाब दाखिल करने का निर्देश देते हुए मामले की अगली सुनवाई के लिए 3 अगस्त की तारीख दे दी गई.
इस दौरान 3 जजों की बेंच में सुनवाई करने वाले जस्टिस एएस बोपन्ना को कोविड हो गया. तो अगली सुनवाई में CJI रमना, जस्टिस हिमा कोहली के साथ उनकी जगह जस्टिस कृष्ण मुरारी ने ले ली. फिर से दलीलें शुरू हुईं. 3 अगस्त को सरकार की तरफ से सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए. उन्होंने सीधे शब्दों में याचिका का समर्थन किया. उन्होंने कहा कि गैर जिम्मेदारी से घोषणाएं करने वाली पार्टियों पर कार्रवाई का मसला चुनाव आयोग पर छोड़ा जाना चाहिए. मेहता ने ये भी कहा कि मुफ्त की घोषणाओं पर अगर लगाम नहीं लगाई गई तो देश की अर्थव्यवस्था तबाह हो जाएगी. मेहता ने सुझाव दिया कि अदालत को भारत के चुनाव आयोग को इस समस्या पर अपना दिमाग लगाने की अनुमति देनी चाहिए. यहां भी सीनियर वकील और सपा सांसद कपिल सिब्बल ने सलाह दी कि मुफ्त की घोषणाओं के मुद्दे पर संसद में चर्चा होनी चाहिए. इस पर चीफ जस्टिस रमना ने कहा-
Mr. Sibal, do you think there will be a debate in the Parliament? Which political party would debate? No political party would oppose freebies. These days everyone wants freebies".
मतलब कि मिस्टर सिब्बल आपको लगाता है कि संसद में इस पर चर्चा होगी, कौन सी पार्टी डिबेट करेगी. कोई भी पार्टी freebies यानी मुफ्त की घोषणाओं का विरोध नहीं करेगी क्यों हर कोई मुफ्त की घोषणाएं चाहता है.
इस पर याचिकाकर्ता के वकील विकास सिंह ने कहा- राजनीतिक दलों और राज्य, जो कर्ज से दबे हुए हैं, उन्हें उदारता के साथ सार्वजनिक रूप से सामने आना चाहिए कि वे मुफ्त की घोषणाओं के भुगतान के लिए पैसे कहां से जुटाएंगे. यह खुलासा करने की जरूरत है कि इन मुफ्त उपहारों का भुगतान किसकी जेब से किया जाता है. एक गरीब को लगता है कि कुछ उसकी बायीं जेब में रखा जाता है तो थोड़े दिन बाद दायीं जेब से निकाल लिया जाता है. इस पर चीफ जस्टिस ने मारक टिप्पणी करते हुए कहा,
ordinary citizens pay taxes on the belief that their money would be used for progress.
मतलब ये कि आम नागरिक इस विश्वास पर टैक्स चुकाते हैं कि उनके पैसे का इस्तेमाल प्रगति के लिए किया जाएगा. लंबी बहस और जिरह चलती है. इस दौरान चीफ जस्टिस की एक टिप्पणी काफी अहम रही. वो ये कि सिर्फ अमीरों को ही सुविधा नहीं मिलनी चाहिए. अगर बात गरीबों के कल्याण की है, तो इसे समझा जा सकता है. पर इसकी भी एक सीमा होती है.
आखिर में मुख्य न्यायाधीश रमना ने कहा समाधान के लिए, सरकार के साथ-साथ नीति आयोग, भारतीय वित्त आयोग, विधि आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक, विपक्ष आदि जैसे संगठनों को मुफ्त उपहारों की समस्या पर, विचार-मंथन की प्रक्रिया में शामिल होना होगा और इसके साथ आना होगा. कुल मिलाकर कहा जाए तो सुप्रीम कोर्ट सैद्धांतिक रूप से केंद्र के साथ सहमत नजर आया. ये भी कहा गया कि माइंडलेस फ्रीबीज यहीं नहीं रुकीं तो भारत एक आर्थिक आपदा की ओर बढ़ जाएगा. ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट इस पर विचार करने के लिए किसी कमेटी का गठन कर सकता है. इस पर अब अगली सुनवाई 11 अगस्त होनी है.
मुफ्त की घोषणाओं पर अब तक सुप्रीम कोर्ट में हुई पूरी सुनावाई को हमने आपके सामने रख दिया. ज्यादातर राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को मानने की बात कह रहे हैं. एक प्रतिक्रिया आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल की भी रही. उन्होंने ट्वीट कर लिखा,
"जनता को मुफ़्त सुविधाएं देने से आर्थिक संकट नहीं आयेगा. “दोस्तों” को लाखों करोड़ों रुपए का फ़्री फ़ायदा देने से आर्थिक संकट आएगा."
अगले ट्वीट में लिखा,
"चुनाव से पहले घोषणाओं पर रोक? क्यों? घोषणाओं से आर्थिक संकट कैसे आयेगा? इनका निशाना कहीं और है. घोषणाओं पर रोक नहीं होनी चाहिए. सरकारी बजट के एक हिस्से से ज़्यादा फ़्री नहीं देने पर विचार हो सकता है."
सुनवाई के बारे में बता दिया. राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया भी दिखा दी. अब सवाल है कि क्या चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा दी जाने वाली मुफ्त की पेशकश आर्थिक आपदा का कारण बनती है? इस सवाल के जवाब के लिए अलग रिसर्च की जरूरत है. मगर ये तो सच्चाई है कि मुफ्त के वादे हर पार्टी करती है. चाहे फ्री बिजली-पानी देना आप का वादा हो, या फिर बीजेपी का फ्री में लैपटॉप-टैबलेट देने का वादा या फिर कांग्रेस का स्कूटी देने का वादा. वादे के फेर में जाएंगे तो फेहरिस्त बड़ी लंबी होगी. फ्री मंगलसूत्र से लेकर घर, टीवी, पैसा तक क्या कुछ देने का वादा नहीं किया गया, उन वादों पर जनता जांनिसार भी खूब होती आई है.
मगर इस मामले में एक चुनौती मुफ्त की रेवड़ियां तय करने में भी आने वाली है. क्या राशन रेवड़ी माना जाएगा, क्या बिजली-पानी रेवड़ी मानी जाएगी, क्या बेरोजगार और वृद्धा पेंशन रेवड़ी मानी जाएगी? ऐसी तमाम चीजें है. जिसको परिभाषित शायद सुप्रीम कोर्ट ही कर पाए.
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