साल 2018-19 के बजट में सेस कुल 3 % से बढ़ाकर 4 % कर दिया गया है. तो क्या होता है ये सेस?
क्या होता है 'सेस' जो चोरी से आपकी जेब काट लेता है?
रेस्टोरेंट का बिल हो या सूपरमार्केट का, बढ़ा हुआ सेस देना ही पड़ेगा.

इस लेख को आखिर तक पढ़ेंगे तो आप समझ जाएंगे कि सेस क्या होता है. लेकिन वो बहुत ड्राय सी बात है. आप बोर हो जाएंगे. इसलिए पहले एक एक्टिविटी में भाग लीजिए. जहां भी हैं, वहां से भाग लीजिए और किसी रेस्टोरेंट पहुंचिए. यहां ऐसा कुछ भी खा लीजिए कि जीएसटी सहित राउंड फिगर बिल बने. 100 या 1000 या 10,000. अब काउंटर पर जाकर सौंफ फांकते हुए बिल मांगिए. यहां आपको एक सरप्राइज़ मिलेगा. आप मानकर चल रहे थे कि आपने जीएसटी सहित 1000 रुपए का खाना खाना खाया, लेकिन आपसे लिए जाएंगे 1030 रुपए. यही 30 रुपए का फटका सेस कहलाता है. सेस माने वो चपत जो सारे टैक्स चुका देने के बाद अलग से लगती है.
टैक्स जैसा लेकिन टैक्स नहीं
#. ये सेस की सबसे सही व्याख्या है. सेस भी एक तरह का टैक्स ही होता है जो केंद्र सरकार लगाती है, लेकिन ये टैक्स से काफी अलग भी होता है. टैक्स लगाने के पीछे सरकार का एक मोटा सा मकसद होता है - देश का खर्च चलाना. लेकिन सेस एक बड़े खास मकसद के लिए लगया जाता है - जैसे शिक्षा या स्वास्थ्य से जुड़ी कोई स्कीम, या फिर सड़कें बनाना.

लाल चौकोन में बिल की कुल रकम पर लगा सेस नज़र आ रहा है.
#. टैक्स और सेस में दूसरा फर्क ये है कि टैक्स से जमा होने वाला पैसा कंसॉलिडेटेड फंड ऑफ इंडिया में जमा हो जाता है. ये भारत सरकार का खाता होता है. इसे भारत सरकार चाहे जैसे खर्च कर सकती है. सेस से जमा होने वाला पैसा भी पहले कंसॉलिडेटेड फंड में जाता है, लेकिन इसे वहां से किसी खास फंड में जमा करा दिया जाता है (लेकिन सेस जमा करने की लागत काट ली जाती है). जैसे पेट्रोल-डीज़ल पर लगने वाले फ्यूल सेस से इकट्ठा हुआ पैसा सेंट्रल रोड फंड में जमा होता है. इस पैसे को सड़कों से जुड़ी योजनाओं पर ही खर्च किया जा सकता है. इसके लिए संसद अप्रोप्रिएशन बिल नाम का एक विधेयक पास करती है (बजट प्रस्ताव ऐसे ही लागू होते हैं).
#. सेस और टैक्स में तीसरा फर्क होता है पैसे के बंटवारे का. टैक्स से जमा हुए पैसा देश के संघीय ढांचे के तहत बंटता है. माने केंद्र सरकार को ये पैसा राज्यों के साथ बांटना पड़ता है. वो न ऐसा करने से मना कर सकती है, न ही इससे जुड़े नियम बदल सकती है. लेकिन सेस में ये पचड़ा नहीं होता. ये पैसा केंद्र के पा पूरी तरह अपनी मर्ज़ी से खर्च करता है.

इस बार अरुण जेटली ने जो सेस बढ़ाया है, उससे इकट्ठा पैसा वो शिवराज सिंह चौहान या वसुंधरा राजे से बांटे बिना खर्च कर सकते हैं.
#. टैक्स और सेस में चौथा फर्क खर्च करने के समय में होता है. टैक्स से जमा पैसा जब किसी योजना में लगता है, तो उसे एक साल में खर्च करना होता है. न हो पाए तो पैसा वापस सरकारी खाते में चला जाता है. लेकिन सेस के मामले में पैसा योजना में ही बना रहता है और अगले साल भी खर्च किया जा सकता है.
नाम कैसे पड़ा?
आखिर में ये भी मालूम कर लीजिए कि सेस का नाम सेस क्यों पड़ा. तो किस्सा ये है कि आइरलैंड में कभी अंग्रेज़ों का राज था. और वहां अंग्रेज़ों सरकार का कामकाज देखता था द लॉर्ड डेप्यूटी. अब इस लॉर्ड डेप्यूटी ने 15 वीं सदी में आइरलैंड के लोगों पर टैक्स के अलवा एक और चीज़ लाद दी. नियम बना कि लॉर्ड डेप्यूटी के घर और अंग्रेज़ फौज को जो आयरलैंड के लोग जो सामान बेचेंगे तो, उनकी दरें सरकार असेस करेगी- अंग्रेज़ी का 'assess'. आइरलैंड के लोग अंग्रेज़ों को पसंद नहीं करते थे. उनके लिए इस असेसमेंट का मतलब यही था कि उन्हें अपना सामाना औने-पौने दाम में अंग्रेज़ सरकार को बेचना पड़ेगा. तो इस असेसमेंट को एक नए टैक्स की तरह लिया गया और कालांतर में 'assess' बन गया आज का 'cess' - टैक्स के अलावा एक खास तरह का टैक्स (जिसे लोग पसंद नहीं करते ;) ).
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#. ये सेस की सबसे सही व्याख्या है. सेस भी एक तरह का टैक्स ही होता है जो केंद्र सरकार लगाती है, लेकिन ये टैक्स से काफी अलग भी होता है. टैक्स लगाने के पीछे सरकार का एक मोटा सा मकसद होता है - देश का खर्च चलाना. लेकिन सेस एक बड़े खास मकसद के लिए लगया जाता है - जैसे शिक्षा या स्वास्थ्य से जुड़ी कोई स्कीम, या फिर सड़कें बनाना.

लाल चौकोन में बिल की कुल रकम पर लगा सेस नज़र आ रहा है.
#. टैक्स और सेस में दूसरा फर्क ये है कि टैक्स से जमा होने वाला पैसा कंसॉलिडेटेड फंड ऑफ इंडिया में जमा हो जाता है. ये भारत सरकार का खाता होता है. इसे भारत सरकार चाहे जैसे खर्च कर सकती है. सेस से जमा होने वाला पैसा भी पहले कंसॉलिडेटेड फंड में जाता है, लेकिन इसे वहां से किसी खास फंड में जमा करा दिया जाता है (लेकिन सेस जमा करने की लागत काट ली जाती है). जैसे पेट्रोल-डीज़ल पर लगने वाले फ्यूल सेस से इकट्ठा हुआ पैसा सेंट्रल रोड फंड में जमा होता है. इस पैसे को सड़कों से जुड़ी योजनाओं पर ही खर्च किया जा सकता है. इसके लिए संसद अप्रोप्रिएशन बिल नाम का एक विधेयक पास करती है (बजट प्रस्ताव ऐसे ही लागू होते हैं).
#. सेस और टैक्स में तीसरा फर्क होता है पैसे के बंटवारे का. टैक्स से जमा हुए पैसा देश के संघीय ढांचे के तहत बंटता है. माने केंद्र सरकार को ये पैसा राज्यों के साथ बांटना पड़ता है. वो न ऐसा करने से मना कर सकती है, न ही इससे जुड़े नियम बदल सकती है. लेकिन सेस में ये पचड़ा नहीं होता. ये पैसा केंद्र के पा पूरी तरह अपनी मर्ज़ी से खर्च करता है.

इस बार अरुण जेटली ने जो सेस बढ़ाया है, उससे इकट्ठा पैसा वो शिवराज सिंह चौहान या वसुंधरा राजे से बांटे बिना खर्च कर सकते हैं.
#. टैक्स और सेस में चौथा फर्क खर्च करने के समय में होता है. टैक्स से जमा पैसा जब किसी योजना में लगता है, तो उसे एक साल में खर्च करना होता है. न हो पाए तो पैसा वापस सरकारी खाते में चला जाता है. लेकिन सेस के मामले में पैसा योजना में ही बना रहता है और अगले साल भी खर्च किया जा सकता है.
नाम कैसे पड़ा?
आखिर में ये भी मालूम कर लीजिए कि सेस का नाम सेस क्यों पड़ा. तो किस्सा ये है कि आइरलैंड में कभी अंग्रेज़ों का राज था. और वहां अंग्रेज़ों सरकार का कामकाज देखता था द लॉर्ड डेप्यूटी. अब इस लॉर्ड डेप्यूटी ने 15 वीं सदी में आइरलैंड के लोगों पर टैक्स के अलवा एक और चीज़ लाद दी. नियम बना कि लॉर्ड डेप्यूटी के घर और अंग्रेज़ फौज को जो आयरलैंड के लोग जो सामान बेचेंगे तो, उनकी दरें सरकार असेस करेगी- अंग्रेज़ी का 'assess'. आइरलैंड के लोग अंग्रेज़ों को पसंद नहीं करते थे. उनके लिए इस असेसमेंट का मतलब यही था कि उन्हें अपना सामाना औने-पौने दाम में अंग्रेज़ सरकार को बेचना पड़ेगा. तो इस असेसमेंट को एक नए टैक्स की तरह लिया गया और कालांतर में 'assess' बन गया आज का 'cess' - टैक्स के अलावा एक खास तरह का टैक्स (जिसे लोग पसंद नहीं करते ;) ).
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