अटकल या कयास हमेशा अधूरी जानकारी से बनते हैं. लेकिन राजनीति में अधूरी बात से भी पूरा मतलब निकालने की परंपरा है. संकेतों की राजनीति में किसी भी बयान या तस्वीर को इग्नोर नहीं किया जाता.
टीवी की खबरों में आजकल अटकलें बहुत हैं. हर रोज रूस-यूक्रेन युद्ध में जीत-हार के कयास लगाए जाते हैं. पाकिस्तान में इमरान खान कुर्सी बचा पाएंगे या नहीं, ISI का अगला कदम क्या होगा, कुर्सी नहीं बची तो पाकिस्तान का नया प्रधानमंत्री कौन होगा. इसे लेकर भी अटकलें लगाई जा रही हैं. मगर हमारा ध्यान अंतर्राष्ट्रीय की जगह राष्ट्रीय विमर्श पर ज्यादा गया. जिसमें कहा जा रहा है कि बिहार में मद्धम आंच पर कुछ पक तो जरूर रहा है. बिहार की राजनीति में उथल-पुथल को लेकर चर्चा है, टिप्पणीकार कह रहे हैं कि अगला बड़ा खेला यहीं होने वाला है.
बिहार के सीएम नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. इनकी दो तस्वीरें वायरल हैं. दोनों तस्वीरों में नीतीश कुमार की बॉडी लैंग्वेज का बड़ा फर्क था. 90 डिग्री के कोण से घुमते हुए शरीर का झुकाव 60 के कोण पर पहुंच गया. लोग कहने लगे. सब वक्त-वक्त की बात है. कभी तन कर मिला जाता था, बराबरी की बात होती थी. अब सत्ता की ताकत ने स्वरूप बदल दिया है. गणित के नियम में भले ही कोण का गिरना झुकाव दर्शाता हो, मगर राजनीति का विज्ञान दूसरा है. कई बार यहां झुकाव में उन्नति का रास्ता खुलता है. वैसे कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने कहा कि ये सम्मान की बात है. मान-सम्मान की बात में उलझ कर इतिहास में झांकना खड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा होगा.
मोदी-नीतीश की वायरल फोटो
हमको बात वर्तमान की करनी है. वर्तमान ये कि 74 सीटें जीतकर बड़े भाई की भूमिका में बीजेपी तो पहले ही आ चुकी थी. अब भाजपा मुकेश सहनी की पार्टी VIP के 3 विधायक आने के बाद 77 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है. 2015 के बाद का थोड़ा समय छोड़ दें तो बीजेपी करीब 20 सालों से नीतीश कुमार की JDU के साथ बिहार की सत्ता में है. मगर ये इकलौता हिंदी पट्टी का राज्य है, जहां आज तक बीजेपी अपना सीएम नहीं बना पाई है. 43 सीटें जीतने के बावजूद 2020 में भी नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बने.
लेकिन यूपी समेत 4 राज्यों में बीजेपी की जीत के बाद सेनारियो बदलने लगा है. इसी बीच कल एक बात जंगल में आग की तरह फैल गई. बताया गया कि नीतीश कुमार ने कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से विधानसभा के अपने कक्ष में अनौपचारिक बातचीत की. क्या निकला ये वहां से ? ये कि पत्रकारों ने पूछा कि पिछले दिनों आपने अपने पुराने संसदीय क्षेत्र बाढ़ का दौरा किया, पुराने साथियों से मुलाकात. क्या 2024 में लोकसभा लड़ने का मन है ? जवाब आया अरे अब कहां ? किसी ने छेड़ा राजनीति के चारों धाम में एक धाम रह गया है. चारों धाम का मतलब यहां लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, विधान परिषद. नीतीश कुमार तीन सदनों के सदस्य रह चुके हैं. 1989 में बाढ़ संसदीय सीट से सांसद बने, कुल 6 बार सांसद रहे. 1995 में नालंदा जिला की हरनौत से विधानसभा पहुंचे. अभी विधान परिषद के सदस्य हैं. तीन हो गए, बचा एक राज्यसभा. सूत्रों ने बताया कि नीतीश कुमार ने हामी भरी कि हां राज्यसभा का मुंह नहीं देखा.
बस फिर क्या था, खबर चल पड़ी. अगस्त में उपराष्ट्रपति का चुनाव होना है. बीजेपी नीतिश कुमार को उपराष्ट्रपति बना सकती है. उनको दिल्ली लाकर बिहार में अपना मुख्यमंत्री बना सकती है. इससे उनकी राज्यसभा जाने की ख्वाहिश भी पूरी हो जाएगी. हम यहां डिस्क्लेमर के तौर पर क्लीयर कर देते हैं ये अटकलें हैं. आई रिपीट अटकलें हैं. मगर राजनीति में संभावनाओं से इनकार नहीं कर सकते.
तो सारी खबरें यहीं से उठने लगी. संभावनाओं के इस खेल में सवाल कई हैं. आखिर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी क्यों छोड़ेंगे ? नीतीश कुमार को उपराष्ट्रति बनाने से बीजेपी को क्या फायदा होगा, जबकि उसके पास खुद बड़ी लीडरशिप है. और लाख टके का सवाल ये कि नीतीश कुमार अगर दिल्ली आ गए तो बिहार का मुख्यमंत्री कौन होगा ? बारी-बारी से सारे तर्कों टटोला जाए.
1. नीतीश कुमार के दिल्ली आने के पीछे सबसे बड़ा तर्क ये दिया जा रहा है कि अब उनकी ताकत वो नहीं रही, जो पिछले चुनाव तक हुआ करती थी. विधायकों की संख्या भी कम है और वोट शेयर भी गिर चुका है. विरोधी कहते हैं बीजेपी की कृपा पर मुख्यमंत्री बने हैं. समर्थक कहते हैं ये तो बीजेपी की मजबूरी है, अगर नीतीश ने फिर से पाला बदल लिया तो बांस और बांसूरी दोनों के लाले पड़ जाएंगे. दोनों बातें अपनी जगह सही हैं. रहा सवाल नीतीश क्या दिल्ली आने को राजी हो जाएंगे..
तो नीतीश कुमार ने चुनाव के वक्त कहा था कि ये उनका आखिरी चुनाव है. अगर अगला चुनाव नहीं लड़ना तो उपराष्ट्रपति पद के जरिए उन्हें सेफ एग्जिट मिल सकता है. कई जानकार पार्टी में टूट का भी खतरा जताते हैं. जैसा बीजेपी ने कई राज्यों में किया भी. ऐसे में समरता बनी उसके लिए दिल्ली कूच किया जा सकता है. पदक्रम के आधार पर देखेंगे तो उप राष्ट्रपति का पद राष्ट्रपति से नीचे और प्रधानमंत्री से ऊपर होता है. उप राष्ट्रपति विदेश दौरों पर भी जाते हैं ताकि अन्य देशों के साथ कूटनीतिक रिश्ते मज़बूत किए जा सकें.
2. दूसरा ये कि नीतीश कुमार को उपराष्ट्रपति बनाने से बीजेपी को क्या फायदा ? फौरी तौर पर पहला फायदा तो यही है कि बीजेपी के लिए अपना मुख्यमंत्री बनाने की राह खुल जाएगी. दूसरा फायदा लांग टर्म है. आम तौर पर बीजेपी को बाकी जगहों पर OBC के बड़े तबके - कुर्मी और कोइरी मतदाताओं का वोट मिलता है. मगर बिहार में कुर्मी और कोइरी नीतीश कुमार के कोर वोटर माने जाते हैं.
8 फीसदी कुर्मी और 6 फीसदी कोइरी. दोनों मिलाकर 14 फीसदी होते हैं जो 13 फीसदी यादव वोटों को बैलैंस करते हैं. नीतीश कुमार की सम्मानजनक विदाई से बीजेपी इस जाति के वोटों पकड़ बना सकती है. जात-पात से ऊपर उठने की बातें कितनी भी क्यों ना हो, मगर बिहार की राजनीति की एक-एक ईंटे जाति के मोरंग पर ही टिकी है. नीतीश कुमार ने जातियों को लेकर गजब का प्रयोग किया था. दलितों को दो हिस्सों में बांटा, दलित और महादलित.
पिछड़ों को दो हिस्सों में बांटा. OBC और MBC यानी पिछड़ा और अति पिछड़ा. जातियों के इस बाइफ्रिक्शन को हथियार बनाया और खुद को लालू की ताकत के सामने स्थापित कर लिया. बीजेपी भी नीतीश कुमार के जरिए वही ताकत हासिल करना चाहती है. क्योंकि ये बात सत्य है कि पिछड़ी जातियों का वोट मिले बगैर बिहार की सत्ता हासिल कर पाना लगभग असंभव है.
MBC जातियां बिहार की आबादी में 21% की भागीदारी रखती है. अगर ये वोट बीजेपी अपनी तरफ ट्रांसफर करा ले गई तो हो सकता है कि आने वाले दिनों वो इतनी बड़ी ताकत बन जाए, जो अपने दम पर सत्ता बना पाए. चूंकि नीतीश कुमार के मुंह से राज्यसभा की बात चली तो बीजेपी की उम्मीदें कुलांचे मारने लगी.
बीजेपी नेता कहते हैं कि अगर नीतीश राज्यसभा जाना चाहते हैं तो हम उनकी इच्छा जरूर पूरी करेंगे. इस बयान का मतलब तो हर किसी को समझ आ ही रहा है.
राबड़ी देवी ने ज्यादा तूल नहीं दिया तो वाचाल शैली के लिए मशहूर विधायक भाई वीरेंद्र ने नीतीश कुमार को आड़े हाथों ले लिया.
आखिरी बात गौर करने लायक है. अगर नीतीश कुमार ने राज्यसभा जाने की बात कही तो दूसरा कोई व्यक्ति क्या कह सकता है. और यही सारी बातें खबर को बल दे रही है. एडिशलनल फोर्स के तौर पर कुछ घटना क्रम इसे और आगे बढ़ा रहे हैं. मसलन 28 मार्च को बिहार विधानसभा अध्यक्ष विजय सिन्हा का 28 मार्च को दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान से मिलना. उससे पहले विधानसभा में मुख्यमंत्री और अध्यक्ष के बीच बहस होना.
बिहार बीजेपी अध्यक्ष संजय जायसवाल का जीतनराम मांझी से मिलना. उससे पहले प्रधानमंत्री मोदी का बिहार बीजेपी के सांसदों से मिलना. गिरराज सिंह का जेडीयू पर हमलावर होना. मुकेश सहनी को मंत्रीमंडल से बाहर का रास्ता दिखाना. ऐसे कई वाकये हैं जो इस सुगबुगाट को सुलगाए हुए हैं. चुंकि सारी बातें संभावनाओं के इर्द-गिर्द हो रही हैं. तो संभावनाओं से उपजा बड़ा सवाल ये कि अगर नीतीश कुमार दिल्ली आ गए तो बिहार बीजेपी की तरफ से सीएम कौन होगा.
3. सुशील मोदी के साइडलाइन होने के बाद पहला नाम जो सबसे मजबूती और दावे के साथ लिया जा रहा है. वो है नित्यानंद राय. फिलहाल नित्यानंद राय मोदी सरकार में अमित शाह के जूनियर हैं. मतलब गृहराज्य मंत्री. नित्यानंद राय के नाम के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि वो दिल्ली की पसंद है. दूसरी - फायरब्रांड नेता की छवि है. तीसरी और सबसे बड़ी ये कि वो यादव जाति से आते हैं. बीजेपी नित्यानंद राय के जरिए यादव वोटों में सेंधमारी की कोशिश कर सकती है. जो बिहार में RJD का कोर और बेस वोट बैंक है.
अगर बाकी जातियों में प्रतिनिधित्व के साथ यादव जाति को तोड़ लिया गया तो बिहार बीजेपी की ताकत दोगुनी हो सकती है. ऐसा नहीं है कि बीजेपी को यादव वोट बिलकुल नहीं मिलते. रामकृपाल यादव का दो-दो बार मीसा भारती को हरा देना. खुद नित्यानंद राय का दो बार लोकसभा जीतना बताता है कि प्रभाव वाले नेताओं को यादव वोट मिलता रहा है. ऐसे में बीजेपी ये कोशिश कर सकती है. गाहे-बगाहे नित्यानंद राय का नाम संभावित सीएम के तौर पर लिया जाता रहता है. सगंठन भी उन्हीं के पक्ष में माना जाता है. और बिहार की राजनीति को करीब से समझने वाले भी नित्यानंद राय के नाम पर ही दांव लगाते हैं.
नित्यानंद राय के अलावा कुछ और नेताओं का नाम लिया जाता है. मसलन अगर बीजेपी को लगता है कि वो यादव वोट नहीं तोड़ पाएंगे तो17 फीसदी दलितों को साधने के लिए दलित नेता जनक राम पर भी दांव लगा सकती है. फिलहाल जनकराम नीतीश सरकार में खनन मंत्री हैं. विधानपरिषद से आते हैं. गोपालगंज सीट से सांसद भी रह चुके हैं. एक नाम गिरिराज सिंह का भी चलता है. भूमिहार जाति के लोगों की बड़ी तमन्ना है कि कोई भूमिहार नेता मुख्यमंत्री बने. मगर संभावनाएं क्षींण तब होती हैं, जब जाति का नंबर कम नजर आता है.
एक तर्क ये भी दिया जाता है कि नीतीश कुमार और गिरिराज की खास बैठती है, फैसला सर्वसम्मति से होगा तो गिरिराज बाबू का पलड़ा कमजोर हो सकता है. एक अनुमान ये भी है कि अगर सीएम बीजेपी का हुआ तो दो डिप्टी सीएम जेडीयू से हो सकते हैं. कौन होंगे ? नाम के तौर पर ललन सिंह, विजय चौधरी और श्रवण कुमार. दो भूमिहार, एक कुर्मी. ललन सिंह फिलहाल जेडीयू के अध्यक्ष हैं और बाकी दोनों नेता सरकार में मंत्री. मगर फिर से साफ कर देता हूं देता ये सबकुछ अटकलें, संभावानों के समंदर में गोता लगाती लहरों की तरह.
नेताओं को सुन लिया, विद्वानों सुन लिया. अब आखिर में एक बात और. बिहार की राजनीति बड़ी प्रचलित कहावत है. विरोधी विशेषकर इस्तेमाल करते हैं. क्या है कहावत...कहते हैं नीतीश कुमार के पेट में दांत है. इसका भावर्थ ये निकाला जाता है कि उनकी कथनी और करनी में फर्क है. कुछ तो ये भी कहते हैं पेट वाले दांत का काटा पानी नहीं मांगता. कई मौकों पर नीतीश कुमार प्रिडिक्टेबल जरूर हुए हैं, मगर ज्यादातर उनका राजनीति इतिहास अनप्रिडिक्टेबल रहा है. उनके फैसले अचानक होते हैं. इस बार क्या फैसला लेंगे...राम के मन की राम ही जाने.
अब बात करते हैं AFSPA की. पूरा नाम - आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट. जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, सशस्त्र सेनाओं को विशेष अधिकार देने वाला कानून है. आज केंद्र की मोदी सरकार ने नागालैंड, असम और मणिपुर के कुछ इलाकों से AFSPA हटाने का फैसला ले लिया. 1 अप्रैल से ये फैसला लागू हो जाएगा. इसके तहत असम के 23 ज़िलों से पूरी तरह और एक ज़िले में आंशिक रूप से आफसपा हटा लिया जाएगा. इसी तरह मणिपुर के छह ज़िलों के 15 थाना क्षेत्र और नागालैंड के 7 ज़िलों के 15 थाना क्षेत्रों से आफसपा हटाया गया है.
AFSPA की कहानी शुरू होती है आज़ादी से भी पहले. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेज़ सरकार एक अध्यादेश लेकर आई. भारत आज़ाद हो गया, लेकिन अंग्रेज़ सरकार के बाकी दमनकारी कानूनों के साथ ही आफसपा भी बना रहा.
जब नागा उग्रवाद अपने चरम पर था, तब इस अध्यादेश को कानून बना दिया गया. साल था 1958. मकसद था, उग्रवाद कुचलने के लिए फौज को और अधिकार देना. धीर धीरे पूरा पूर्वोत्तर इस कानून के दायरे में आ गया. उग्रवाद से ग्रसित पंजाब और कश्मीर में भी इसे लागू किया गया.
AFSPA की आलोचना ये है कि ये सेना को अधिकार तो देता है, लेकिन जवाबदेही को लगभग खत्म कर देता है. इसीलिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने लगातार शिकायत की है कि एक लोकतंत्र में AFSPA की जगह नहीं हो सकती. क्योंकि उग्रवाद कुचलने की आड़ में लाखों बेगुनाहों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ हो रहा है. हत्याओं, अपहरणों और रेप तक के मामले सामने आए हैं.
2004 में जीवन रेड्डी कमेटी ने AFSPA को हटाने की सिफारिश की. लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने अपनी ही कमेटी की सिफारिश पर अमल नहीं किया. 2014 में मोदी सरकार आई तो सिफारिश को मानने से साफ इनकार कर दिया गया.
ऐसा नहीं है कि आफसपा एक बार लगा तो हटा नहीं. पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर तक में क्रमशः इलाके आफसपा से बाहर किए गए हैं. पंजाब में आज कहीं आफसपा लागू नहीं है. 2018 में मोदी सरकार ने पूरे मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के एक बड़े हिस्से से आफसपा हटा दिया. कारण - क्योंकि आवश्यकता नहीं रह गई. उग्रवाद खात्मे की ओर है और अब स्थिति स्थानीय प्रशासन के काबू में है.
लेकिन जिन इलाकों में अब भी AFSPA लागू है, वहां गाहे ब गाहे ऐसी कोई अप्रिय घटना हो जाता है, जिसके बाद AFSPA को हटाने की मांग ज़ोर पकड़ लेती है. बीते साल 4 दिसंबर को नागालैंड के मोन ज़िले में सेना की 21 पैरा स्पेशल फोर्सेज़ के ऑपरेशन के दौरान यही हुआ. सेना की टुकड़ी उग्रवादियों के लिए घात लगाए बैठी थी, लेकिन चपेट में आ गए 6 आम लोग. इसके बाद हिंसा हुई, जिसमें सेना के एक जवान की जान गई. अगले दिन तक हिंसा ने 7 और लोगों की जान ले ली.
जनाक्रोश शांत करने के लिए दिसंबर के आखिरी हफ्ते में सरकार ने नागालैंड से AFSPA हटाने पर विचार करने के लिए एक कमेटी बना दी. लेकिन महज़ तीन दिन बाद सरकार ने सूबे में AFSPA छह महीने के लिए और बढ़ा दिया.
आज सरकार ने अपनी प्रेस रिलीज़ में कहा है कि सरकार ने मोन कांड के बाद बनी हाई पावर कमेटी की अनुशंसाओं को मान लिया है. और सरकार अब चरणबद्ध तरीके से नागालैंड को आफसपा से बाहर लाएगी. लेकिन सरकार ने कोई डेडलाइन नहीं दी है. सरकार ने ये ज़रूर कहा है कि 2014 की तुलना में 2021 में उग्रवाद से जुड़ी घटनाओं में तीन चौथाई की कमी आई है. सुरक्षा बलों की मृत्यु में 60 फीसदी और आम लोगों की मृत्यु में 84 फीसदी की कमी आई है. 7 हज़ार उग्रवादियों ने हथियार त्याग दिए हैं.
केंद्र के फैसले का पूर्वोत्तर में स्वागत हुआ है. असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने ट्विटर पर फैसले का स्वागत किया और कहा कि अब असम का 60 फीसदी से ज़्यादा इलाका आफसपा से बाहर है. सिर्फ 9 ज़िले और एक सब डिविज़न बाकी है. मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह और नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो ने भी केंद्र को धन्यवाद दिया.
ये मोदी सरकार के आलोचक भी मानते हैं कि 2014 के बाद से पूर्वोत्तर को मुख्यधारा में लाने के गंभीर प्रयास हुए हैं. बीते आठ सालों में प्रधानमंत्री समेत पूरे कैबिनेट ने लगातार पूर्वोत्तर की यात्राएं की हैं. इस सब के नतीजे में लगातार उग्रवादी संगठनों ने हथियार छोड़े हैं और चुनावी राजनीति का हिस्सा बने हैं. राज्यों के बीच आपसी सीमा विवाद पर भी देर से ही सही, काम शुरू हुआ है. यही मोमेंटम अगर बना रहा, तो पूर्वोत्तर में स्थायी रूप से शांति की स्थापना संभव है.