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अरुंधति रॉय ने ऐसा क्या लिखा जिससे वो 'देशद्रोही' हो गईं?
जिसकी वजह से आरएसएस-बीजेपी इनसे खार खाते हैं?

फोटो - thelallantop
भाजपा सांसद परेश रावल ने ट्विटर पर कहा था कि पत्थरबाज की जगह अरुंधति रॉय को जीप के आगे बांध देना चाहिए था. इससे पहले एक ट्वीट में उन्होंने कहा था, 'अरुंधति रॉय का ये कहना है कि 70 लाख भारतीय सैनिक मिलकर आजादी गैंग को हरा नहीं पाते, ये शर्मसार करने वाला है. अरुंधति का बर्थ सर्टिफिकेट असल में अस्पताल की ओर से खेद जताने वाला ख़त है.'


कश्मीर
अरुंधति रॉय हमेशा से ये कहती है कि भारत ने हथियारों के बल पर कश्मीरियों को हथिया रखा है. 2010 में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी के साथ मिलकर सेमिनार रखने और कश्मीर मुद्दे का एकमात्र हल आजादी बताने के लिए एक कश्मीरी पंडित ने उनपर देशद्रोह का मुकदमा किया था. बाद में गृह मंत्रालय ने इस केस को ड्रॉप करने का फैसला लिया. एक तरफ भारत की आर्मी और दूसरी तरफ पाकिस्तान का समर्थन प्राप्त उग्रवादियों के बीच फंसे कश्मीरियों पर अरुंधति ने कई लेख लिखे हैं: 2011 में 'डेड बिगिन टू स्पीक अप इन इंडिया' शीर्षक से छपे एक लेख में उन्होंने लिखा था कि दो सरकारों की बॉर्डर पेट्रोल के गोले में फंसा कश्मीर जल्द ही बाहरी दुनिया से कट जाएगा. एक गोला दिल्ली से चलता है औऱ दूसरा श्रीनगर से. अपने बॉर्डर के अंदर कश्मीर की सरकार और आर्मी दोनों में ही एक खुला माहौल है. कश्मीरी पत्रकारों और लोगों को घूस, धमकी, ब्लैकमेल और न जाने किस तरह की क्रूरता से अपने वश में रखा जा रहा है.कश्मीर पर आखिरी हक कश्मीरियों का है और वो आजादी चाहते हैं. हमें उनके फैसले का सम्मान करना चाहिए. इस लेख के बाद अरुंधति कश्मीरी अलगावाद की चीयरलीडर बन गईं और सभी अपनी सहूलियत से उनकी आलोचना करने लगे. रॉय ने एक बार कहा था कि कश्मीर की आजादी पर अपनी मन की बात कहने के लिए अगर उन पर देशद्रोह का मुकदमा चला है तो नेहरू पर भी मरने के बाद देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए.
अफजल गुरु
अफजल गुरु, जिसे 2001 में संसद पर हमला करने के जुर्म में फांसी दी गई थी. अरुंधति हमेशा ही उनकी निष्ठावान सपोर्टर रही हैं. रॉय हमेशा कहती रहीं कि अफजल के केस में सबूत काफी नहीं थे और उसको सजा लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखकर दी गई थी. और इस बात का समर्थन बुद्धिजीवी नंदिता हसकर, फिल्ममेकर संजय काक और पत्रकार सुनेत्रा चौधरी ने भी किया था. अफजल को 9 फरवरी 2013 को फांसी पर चढ़ाया गया. उस समय देश में मोदी और हिंदुत्व का मुद्दा मजबूत हो रहा था. तब अरुंधति ने एक लेख लिखा था. जो भारतीय और विदेशी मीडिया में छापा था. द गार्डियन में ये लेख 'स्टेन ऑन इंडियन डेमोक्रेसी' शीर्षक के साथ छपा था और द हिंदू में ये लेख यूजअल कॉकटेल ऑफ पेपल पैशन एंड डेलिकेट ग्रिप ऑन फैक्ट्स शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ था.
ये एक असाधारण मौका है जब देश की सभी राजनीतिक पार्टियां एक साथ आकर न्याय की जीत की खुशी मना रही हैं. और बधाई दे रही हैं. टीवी स्टूडियो के लाइव चैनल इसे लोकतंत्र की जीत बता रहे हैं. हिंदू राष्ट्रवादी मिठाई बांट रहे हैं. और ऐसे कश्मीरियों को पीट रहे हैं, जो दिल्ली की सड़कों पर इसका विरोध कर रहे हैं. अफजल की मौत के बाद ऐसा लग रहा है कि चैनल के एंकर और सड़कों के ठग एक-दूसरे को डरते हुए समर्थन देने की कोशिश कर रहे हैं. जैसे कि मिलकर किसी शिकार को दबोचना हो. शायद वो अंदर ही अंदर जानते हैं कि देश में कुछ ऐसा हो गया है, जो बिल्कुल ही गलत है.
माओवादियों के बारे में
अरुंधति ने माओवादियों पर एक काफी मशहूर लेख लिखा था. इसकी आलोचना देश के सभी कांग्रेसी, लिबरल और केंद्र में बैठे पत्रकारों ने की थी. 'गांधीयन विद गन' नाम के इस लेख से अरुंधति ने तत्कालीन गृहमंत्री पी.चिदंबरम पर सीधा हमला बोल दिया था. वॉकिंग विद द कॉमरेड में रॉय ने लिखा था,विरोध कर रहे ये लोग (माओवादी) हर मामले में हमसे कमजोर और पिछड़े हैं. एक और जहां बढ़ते हुए सुपर पावर की पैरामिलट्री अपने पूरे धन और बल के साथ है. वहीं दूसरी ओर साधारण गांववासी अपने पारंपरिक हथियार और एक जबर्दस्त संगठनात्मक ताकत के साथ. पैरामिलिट्री और माओवादियों में 50 के दशक से ही लड़ाई चलती आ रही है. इसमें तेलंगाना में 50 की दशक में, पश्चिम बंगाल, बिहार और आंध्रप्रदेश में 60-70 की दशक में और आंध्रप्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में 80 की दशक से लेकर अबतक लड़ाई जारी है. दोनों ही एक-दूसरे के तरीके से वाकिफ हैं और एक-दूसरे के लड़ने के तरीके को जानते हैं. हर बार जब लोग सोचते थे कि माओवादी खत्म हो गए तो वो एक बार फिर उठते रहे हैं. पिछली बार से अधिक मजबूत और ज्यादा संगठित होकर. अब एक बार फिर छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा औऱ पश्चिम बंगाल के जंगलों में यह फैल गए हैं. इसमें कई खनिज से भरे जंगल हैं और इन जंगलों पर कॉरपोरेट जगत की नजर है. लिबरल आसानी से मान सकते हैं कि ये लड़ाई सरकार और माओवादियों की लड़ाई है. वहीं माओवादी इलेक्शन का विरोध करते हैं. और सरकार को गिरा देने की खुलेआम बात करते हैं. यह भूल जाना आसान है कि केंद्रीय भारत हमेशा से ही विरोध का केंद्र रहा है. हो, ओराओं, कोल, संथाल, मुंडा और गोंड सभी ने कई बार अंग्रेजों, जमींदारों और साहूकारों के खिलाफ मुहिम चलाई है. ऐसे मुहिम को कई बार कुचला गया और लाखों लोगों को मारा गया है. लेकिन कभी भी इन पर अधिकार नहीं पाया जा सका. आजाद भारत ने जनजाति संघर्ष की शुरुआत नक्सलबाड़ी गांव, पश्चिम बंगाल से हुई थी. तब से लेकर आज तक नक्सली मुहिम जनजातीय संघर्ष से जुड़ गई और अब जनजातीय लोगों के लिए एक पर्यायवाची हो गया है.
जाति और अंबडेकर पर
अंबेडकर की किताब 'एनहिलिएशन ऑफ कास्ट' पर अरुंधति ने 120 पन्ना लंबा इंट्रोडक्शन लिखा है जिसे ‘द डॉक्टर एंड दी सेंट’ नाम दिया है. इसमें भारत में जातिगत पक्षपात, पूंजीवाद, पक्षपात के प्रति आंख मूंद लेने की आदत, अंबेडकर की बात को गांधीवादी बुद्धिजीवियों द्वारा खंडन और संघ परिवार का हिंदू राष्ट्र तक लिखा है. रॉय के अनुसार अंबेडकर के सभी कामों में देखा जाए तो 'एनहिलिएशन ऑफ कास्ट' सबसे पूर्ण है. यह हिंदूवादी कट्टरपंथी के लिए नहीं पर ऐसे लोगों को जो खुद को उदार हिंदू मानते हैं. हिंदू शास्त्रों पर विश्वास करना और खुद को उदार मानना, दोनों ही एक दूसरे के उलट है.आजादी और देशद्रोह
2016 की शुरुआत में जेएनयू के छात्रों ने आजादी की मांग से पूरे देश को हिला दिया. एक मुहिम जो कि रोहित वेमुला के सुसाइड लेटर पर शुरू हुई थी. इस मुहिम ने देश की आजादी से शुरुआत कर संविधान के सभी प्रावधान आजादी, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक जैसे शब्द की मांग शुरू कर दी. जैसे ही जेएनयूएसयू के अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का इल्जाम लगा, देश ने यह देखा कि कैसे कुछ छात्र मिलकर एक सरकार को भी हिला सकते हैं.
न्यूक्लियर टेस्ट
1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने पोखरन में परमाणु परीक्षण किया था. तब अरुंधति ने द एंड ऑफ इमैजिनेशन नाम से लेख लिखा था. अरुंधति किसी भी प्रकार के न्यूक्लियर परीक्षण के खिलाफ थीं और उन्होंने इस परीक्षण को दिखावा करार दिया था.अगर किसी न्यूक्लियर बम का विरोध करना हिंदू धर्म या देश के खिलाफ है तो मैं ऐसे गुट को छोड़ती हूं. मैं ये घोषणा करती हूं कि मैं स्वतंत्र हूं, एक चलती-फिरती गणतंत्र हूं. मैं धरती की नागरिक हूं. मेरा कोई इलाका नहीं है. मेरा कोई झंडा नहीं है. मैं एक महिला हूं, मगर हिजड़ों से मुझे कोई दिक्कत नहीं है. मैं किसी भी न्यूक्लियर डील के खिलाफ दस्तखत करने को तैयार हूं. मेरे देश में अप्रवासियों का स्वागत है. आप हमारे झंडे को डिजाइन करने में मदद कर सकते हैं. मेरी दुनिया मर गई है. और मैं उसके मरने के दुख में लिख रही हूं. भारत का न्यूक्लियर टेस्ट जिस तरीके से किया गया और जैसे उसपर खुशी मनाई जा रही है. उसका मैं किसी भी तरीके से बचाव नहीं कर सकती. मेरे लिए यह बुरी चीजों की शुरुआत है. कल्पना का अंत है.
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