
अकाली दल से सांसद हरसिमरत कौर.
कौन-कौन से बिल हैं और इनमें क्या है?
पहला, आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 202050 के दशक में यानी आज़ादी के ठीक बाद भारत में सूखे और अकाल जैसे हालात थे. तब 1955 में आया आवश्यक वस्तु कानून. आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी रोकने के लिए. उनके प्रोडक्शन, सप्लाई और कीमतों को नियंत्रित रखने के लिए.
अब ये आवश्यक वस्तुएं क्या होती हैं? समय के साथ इस कानून में कई बदलाव हुए. आवश्यक वस्तुओं की लिस्ट में कई चीज़ें जोड़ी गईं. कई हटाई गईं. इस साल जून में अध्यादेश लागू होने तक आवश्यक वस्तुओं में ये चीज़ें आती थीं- दवाएं, फर्टिलाइज़र्स, तेल-तिलहन, सूत, पेट्रोलियम और पेट्रोलियम उत्पाद, जूट और जूट के कपड़े, खाद्यान्न, फल और सब्ज़ियों के बीज, जानवरों का चारा, जूट के बीच, रुई के बीज, फेस मास्क और हैंड सैनिटाइज़र. फेस मास्क और सैनिटाइज़र को कोरोना वायरस फैलने के बाद आवश्यक वस्तुओं में जोड़ा गया था.

पंंजाब में किसान मोदी सरकार की ओर से लाए गए बिलों के खिलाफ काफी मुखरता से आवाज बुलंद कर रहे हैं.
किसी सामान को आवश्यक वस्तुओं की लिस्ट में जोड़ने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि सरकार उस वस्तु की कीमत, उसका उत्पादन, उसकी सप्लाई को कंट्रोल कर सकती है. साथ ही उस वस्तु के स्टॉक की सीमा तय कर सकती है. ऐसा अक्सर प्याज और दालों के दाम बढ़ने पर आपने सुना होगा.
नए बिल में क्या है?
- बिल के मुताबिक, सरकार के पास ये अधिकार होगा कि वो ज़रूरत के हिसाब से चीज़ों को आवश्यक वस्तुओं की लिस्ट से हटा सकती है या उसमें शामिल कर सकती है. अध्यादेश में लिखा हैः- अनाज, दलहन, आलू, प्याज़, तिलहन और तेल की सप्लाई पर अति-असाधारण परिस्थिति में ही सरकार नियंत्रण लगाएगी. अति असाधारण परिस्थितियां क्या होंगी? युद्ध, अकाल, कीमतों में अप्रत्याशित उछाल या फिर गंभीर प्राकृतिक आपदा.
- इन चीज़ों और किसी भी कृषि उत्पाद की जमाखोरी पर कीमतों के आधार पर ही एक्शन लिया जाएगा. इसे नियंत्रित करने के आदेश कब जारी किए जाएंगे? जब सब्ज़ियों और फलों की कीमत में 100 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी. या फिर जब खराब न होने वाले खाद्यान्नों की कीमत में 50 प्रतिशत तक का इज़ाफा होगा.
ये बिल लोकसभा में 15 सितंबर को पास हो चुका है.

केंद्र सरकार की ओर से लाए गए बिलों के खिलाफ हरियाणा में किसानों ने प्रदर्शन कियाॉ तो पुलिस ने उन पर लाठियां बरसाई थीं. यह फोटो पंजाब के श्री मुक्तसर साहिब की है.
दूसरा, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020
आपने APMC मंडियों का नाम सुना होगा. एपीएमसी का फुल फॉर्म है एग्रीकल्चर प्रोड्यूस एंड लाइव स्टॉक मार्केट कमिटी. वो बाज़ार, जहां किसान अपना उत्पाद बेच सकते हैं. इन मंडियों का संचालन करती हैं राज्य सरकारें. हर राज्य में इनसे जुड़ा एपीएमसी एक्ट भी होता है. ज्यादातर राज्यों में नियम है कि किसान अपनी फसल एपीएमसी मंडियों में ही बेच सकते हैं. बदले में उन्हें फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है.
नए बिल में क्या है?
किसान एपीएमसी मंडियों के बाहर भी अपना उत्पाद बेच सकते हैं. वो दूसरे ज़िलों और राज्यों में भी अपनी फसल बेच सकते हैं. इसके लिए उनको या उनके खरीदारों को एपीएमसी मंडियों को कोई फीस भी नहीं देनी होगी.
ये बिल 17 सितंबर को लोकसभा में पास हो गया है.
तीसरा, मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा बिल, 2020
इस बिल का मकसद है किसानों को उनकी फसल की निश्चित कीमत दिलवाना. इसके तहत फसल उगाने से पहले ही एक किसान किसी व्यापारी से समझौता कर सकता है. इस समझौते में क्या-क्या होगा?
- फसल की कीमत, साथ ही उस प्रक्रिया की जानकारी, जिससे ये कीमत तय की गई
- फसल की क्वॉलिटी
- कितनी मात्रा में और कैसे खाद का इस्तेमाल होगा
इस समझौते में फसल की ओनरशिप किसान के पास रहेगी और उत्पादन के बाद व्यापारी को तय कीमत पर किसानों से उसका उत्पाद खरीदना होगा. हो सकता है कि व्यापारी खेती को स्पॉन्सर भी करे. ऐसे में उसे खेती में लगने वाले बीज, खाद आदि का खर्च उठाना होगा. ऐसे में इस खर्च को ध्यान में रखते हुए फसल की कीमत तय की जाएगी.
बिल के मुताबिक, व्यापारी को फसल की डिलिवरी के वक्त ही तय कीमत का दो-तिहाई किसान को चुकाना होगा. बाकी पैसा 30 दिन के अंदर देना होगा. इसमें ये प्रावधान भी है कि खेत से फसल उठाने की ज़िम्मेदारी व्यापारी की होगी. अगर किसान अपनी फसल व्यापारी तक पहुंचाता है तो इसका इंतज़ाम व्यापारी को ही करना होगा. बिल में इस बात का भी प्रावधान है कि अगर कोई एक पक्ष अग्रीमेंट तोड़ता है तो उस पर पेनल्टी लगाई जा सकेगी.
ये बिल भी लोकसभा में पास हो चुका है.

पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के किसान बिल के खिलाफ लामबंद हैं.
ये तो हुई इन तीनों बिल की बात. एक बार संक्षेप में जान लेते हैं कि तीनों विधेयकों में क्या हैः
- किसान या व्यापारी अनाज, दलहन, तिलहन, सब्ज़ियों का भंडारण कर सकते हैं. किसान अपनी सब्जियों को अपने हिसाब से बेच सकते हैं.
- किसान सरकारी मंडियों के बाहर भी अपनी फसल बेच सकेंगे. उन्हें बिचौलियों के झंझट में नहीं फंसना पड़ेगा.
- किसान फसल उगाने से पहले ही किसी व्यापारी से समझौता कर सकेंगे ताकि उनकी फसल की तय कीमत उन्हें मिल सके.
लेकिन इनका विरोध क्यों हो रहा है?
किसानों का विरोध मुख्य रूप से दूसरे बिल काे लेकर है, जिसमें एपीएमसी मंडियों के बाहर फसल की बिक्री की बात कही गई है.

(फोटो- रॉयटर्स)
किसानों का कहना हैः
- सरकारी मंडियों में फसल की एक न्यूनतम कीमत मिलने का प्रावधान था. लेकिन मंडी के बाहर वो न्यूनतम कीमत मिलेगी या नहीं, इसे लेकर कोई नियम इस बिल में नहीं है. ऐसे में हो सकता है कि किसी फसल का उत्पादन ज्यादा होने पर व्यापारी किसानों को मजबूर करें कि वो अपनी फसल कम कीमत पर बेचें.- किसानों की एक चिंता ये भी है कि एपीएमसी मंडी में जो आढ़तिये अभी उनसे फसल खरीदते हैं, उन्हें मंडी में व्यापार करने के लिए लाइसेंस लेना होता है. एपीएमसी एक्ट के तहत वेरिफिकेशन के बाद ही उन्हें लाइसेंस मिलता है. ऐसे में किसान इस बात को लेकर आश्वस्त रहते हैं कि वो धोखाधड़ी नहीं करेंगे. नए बिल में लिखा है कि कोई भी व्यापारी जिसके पास पैन कार्ड हो, वो किसान से फसल ले सकता है.
- सरकार स्टॉक करने की छूट दे रही है. लेकिन ज्यादातर किसानों के पास भंडारण की व्यवस्था नहीं है. सब्जी किसानों के पास सब्जियों के भंडारण के लिए कोल्ड स्टोरेज नहीं है. ऐसे में उन्हें उत्पादन के बाद अपनी फसलें औने-पौने दाम पर व्यापारियों को बेचनी होंगी. प्राइवेट कंपनियों के पास ज्यादा क्षमता और संसाधन होते हैं तो वे इनका स्टॉक करके करके अपने हिसाब से मार्केट को चलाएंगे. ऐसे में फसल की कीमत तय करने में किसानों की भूमिका नहीं के बराबर रह जाएगी. कमान बड़े व्यापारी और कंपनियों यानी प्राइवेट प्लेयर्स के हाथ में आ जाएगी. वो ज्यादा फायदा कमाएंगे.
इन विधेयकों के समर्थन और विपक्ष में विशेषज्ञों की क्या राय है?
एग्रीकल्चर इकोनॉमिस्ट अशोक गुलाटी विधेयकों को किसानों के लिए सही मानते हैं. इंडिया टुडे पर राजदीप सरदेसाई से उन्होंने इस बारे में बात की. उन्होंने कहा,1991 में जो लाइसेंस-परमिट राज खत्म हुआ था, ये उसी की तरह है क्योंकि आप बेहतर चॉइस दे रहे हैं. मार्केट खोल रहे हैं, जहां व्यापारी और किसान एकसाथ पहुंच सकते हैं और सीधे व्यापार कर सकते हैं. इससे बिचौलियों को जो कमीशन देना पड़ता है, वो पूरी तरह बच सकता है. कई राज्य इसका विरोध कर रहे हैं क्योंकि ये काम बंद होने से उनको मंडी फीस के तौर पर जो रेवेन्यू मिलता था, वो कम हो जाएगा.डॉक्टर अशोक गुलाटी ने एयरलाइंस का उदाहरण देते हुए कहा,
एक वक्त था, जब भारत में एक ही एयरलाइन चलती थी. तब हवाई यात्रा की कीमत ज्यादा थी, और सुविधाएं कम मिलती थीं. फिर चार-पांच और एयरलाइंस आईं. इससे कीमतें घटीं और चूंकि कॉम्पिटीशन था तो सुविधाएं भी बढ़ीं. इससे यात्रियों को फायदा हुआ. अभी के केस में किसान उन यात्रियों की जगह पर हैं और उनको फायदा होना चाहिए. इसलिए कानून में कॉम्पिटीशन की जगह बनाई गई है. एपीएमसी मंडियां खत्म नहीं की जा रही हैं, जो सरकारी मंडियों में अपनी फसल बेचना चाहते हैं, वो वहां बेच सकते हैं.वहीं एग्रीकल्चर एक्सपर्ट देवेंद्र शर्मा का मानना है कि ये विधेयक किसानों के हित में नहीं है. उनका कहना है कि अमेरिका में जो सिस्टम फेल हुआ, वही सिस्टम हमारे देश की जनता पर थोपा जा रहा है. उन्होंने बिहार का उदाहरण देते हुए कहा,
2006 में बिहार में एपीएमसी मंडियों को हटाया गया था, किसानों को प्राइवेट व्यापारियों को अपनी फसल बेचने की आज़ादी दी गई थी. उस बात को 14 साल हो गए हैं. वहां अब क्या हालात हैं, ये आपको देखने चाहिए.बिहार में एपीएमसी मंडियों के हटने के साथ ही किसान प्राइवेट व्यापारियों को अपनी फसल बेचने लगे थे. एपीएमसी मंडियों में किसानों को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता था. लेकिन प्राइवेट ट्रेड में ये खत्म हो गया. शुरुआत में व्यापारियों ने अच्छी कीमत पर फसल खरीदी, जब ज्यादा उत्पादन होने लगा तो किसान कम कीमत पर अपनी फसल बेचने को मजबूर होने लगे. मध्य प्रदेश में जब गेहूं का एमएसपी 1500-1600 के आसपास था, तब बिहार के किसान 800-900 रुपये में गेहूं बेच रहे थे. 2000 और 2016-17 के बीच में किसानों को 45 लाख करोड़ का नुकसान हो चुका है. इसी का नतीजा ये हुआ कि बिहार के किसानों का खेती से मोहभंग होने लगा. बड़ी संख्या में किसान बड़े शहरों में पलायन कर गए. ये लॉकडाउन के दौरान बिहार में रिवर्स माइग्रेशन करने वालों की संख्या देखकर भी समझा जा सकता है.
Video: मोदी सरकार के नए किसान बिल के विरोध में हरसिमरत कौर बादल ने इस्तीफा दे दिया