ये पूरी रस्साकशी 2015 को शुरू हुई थी. इस साल ही राजीव गांधी हत्याकांड के एक दोषी पेरानीवलन ने तमिलनाडु सरकार के समक्ष माफी की प्रार्थना की. साल 2018 में तमिलनाडु सरकार ने न सिर्फ पेरानीवलन बल्कि बाकी 6 लोगों की माफी की प्रार्थना स्वीकार कर ली. चूंकि माफ करने का अधिकार राज्यपाल को है, इसलिए अनुमति के लिए उनके पास बढ़ा दिया गया. राज्यपाल ने इस पर असहमति जता दी और माफी के फैसले को फिर से सरकार के पास वापस भेज दिया. सरकार ने फिर से माफी स्वीकार करके फैसले को राज्यपाल के लिए बाधक बना दिया. राज्यपाल ने फिर से एक संवैधानिक पेंच खोज कर चुप्पी साध ली.
असल में संविधान में यह तो लिखा है कि दूसरी बार भेजी गई सरकार की सहमति को राज्यपाल को मानना पड़ेगा, लेकिन कितने वक्त में? इसका कोई उल्लेख नहीं है. इस बात का फायदा उठाकर राज्यपाल ने अब तक फैसला नहीं लिया है. हालांकि मद्रास हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट लगातार कहते रहे हैं कि राज्यपाल फैसला लें. गुरुवार को राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता मौजूद थे. उन्होंने कोर्ट से कहा कि राज्यपाल 3-4 दिन में फैसला ले लेंगे.
आपको बता दें कि राजीव गांधी की हत्या 21 मई 1991 में तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर में हुई थी. हत्या में श्रीलंका के आतंकवादी संगठन एलटीटीई और भारत के कई लोगों को दोषी पाया गया था.

राजीव गांधी की हत्या तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर में 1991 में की गई. इस मामले से जुड़े लोगों की सजा माफी पर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है.
राष्ट्रपति और राज्यपाल के माफी के अधिकार भारत के संविधान में किसी सजा को माफ करने का अधिकार दो संवैधानिक पदाधिकारियों को है. एक राष्ट्रपति और दूसरा राज्यपाल. लेकिन ये अधिकार अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह नहीं मिले हैं. अमेरिका का राष्ट्रपति तो खुद को भी किसी अपराध के लिए माफ कर सकता है. सजा माफी के मामले में भारत के राष्ट्रपति या राज्यपाल मनमर्जी नहीं कर सकते. राष्ट्रपति को इसके लिए भारत सरकार और राज्यपाल को प्रदेश की सरकार से अनुमति लेनी होती है. माफी का यह प्रावधान इस भावना के तहत रखा गया है कि किसी बेगुनाह को सजा न हो जाए. जब किसी शख्स को लगता है कि उसे निचली अदालत में न्याय नहीं मिला तो वो उसके ठीक ऊपर वाली अदालत में जा सकता है. और यूं करते-करते केस, सेशन कोर्ट, हाई कोर्ट से होते-होते सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाता है.
ठीक ऊपरी अदालत में केवल दोषी ही नहीं पीड़ित भी अपील कर सकता है.
जैसे माना, एक दोषी को हाई कोर्ट ने चौदह साल की सज़ा दी है तो दोषी अपनी सज़ा कम करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जा सकता है. दूसरी तरफ पीड़ित को यदि लगता है कि यह सज़ा दोषी के अपराध के हिसाब से कम है, तो वो भी दोषी की सज़ा बढ़ाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जा सकता है.
सज़ा देने के बाद कोर्ट (चाहे वो डिस्ट्रिक्ट कोर्ट हो, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट) functus officio हो जाती है. यानी उसके अधिकार समाप्त हो जाते हैं, इसलिए वो सज़ा को घटा बढ़ा नहीं सकती. ‘पार्डन’ या ‘रेमिसन’ नहीं दे सकती.
अब जब इस दौरान सबसे अंतिम सुनवाई वाली अदालत, यानी सुप्रीम कोर्ट के ऊपर कोई कोर्ट नहीं बचती तो दोषी के पास सुप्रीम कोर्ट की सज़ा स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रहता. चाहे फिर उसे सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सज़ा ही क्यों न दी हो. अब इस फांसी की सज़ा पाए दोषी के पास बेशक न्यायिक प्रक्रिया में तो कोई विकल्प नहीं बचता, लेकिन न्यायिक प्रक्रिया से इतर भी उसके लिए आशा की एक किरण और होती है.

भारत के राष्ट्रपति (रामनाथ कोविंद) को फांसी की सजा को माफ करने की संवैधानिक शक्ति मिली है. लेकिन कोई भी फैसला लेने के लिए वह सरकार की अनुमति के लिए बाध्य हैं. (फोटो-पीटीआई)
आशा की आखिरी किरणः राष्ट्रपति और राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद 72 के मुताबिक राष्ट्रपति और संविधान के अनुच्छेद 161 के अनुसार राज्यपाल सजा को माफ कर सकते हैं, स्थगित कर सकते हैं, कम कर सकते हैं या उसमें बदलाव कर सकते हैं. हालांकि फांसी की सजा को माफ करने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति के पास ही है. ये फैसला राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र से बाहर है.
अब हमने ऊपर स्पेसिफाई किया था कि ‘न्यायिक प्रक्रिया’ में उसके पास कोई विकल्प नहीं बचता. ये बात समझनी महत्वपूर्ण है. यदि राष्ट्रपति ने उसकी सज़ा में ढील दी है तो इसका मतलब ये नहीं कि उसके साथ पिछली अदालतों में न्याय नहीं हुआ था. इसका मतलब तो दरअसल ये है कि उसके साथ उच्चतम न्यायलय ने पूरा न्याय किया था, और सारी बातें सोच समझकर ही उसे फांसी दी गई. ये तो बस राष्ट्रपति या राज्यपाल की ‘दया’ है कि उन्होंने दोषी को माफ़ कर उसकी सज़ा स्थगित कर दी, कम कर दी या उसमें बदलाव कर दिया.
इसे एक उदाहरण से समझें – यदि किसी दोषी को हाई कोर्ट फांसी की सज़ा देता है और सुप्रीम कोर्ट उसे बरी कर देता है तो बरी हुआ शख्स कह सकता है कि वो निर्दोष था. जबकि यदि किसी दोषी को सुप्रीम कोर्ट फांसी की सज़ा देता है और राष्ट्रपति उसकी सज़ा माफ़ कर देते हैं तो वो ये नहीं कह सकता कि वो निर्दोष था. बल्कि उसे ऐसा कहना चाहिए कि वो दोषी था लेकिन राष्ट्रपति ने उसकी सज़ा माफ़ कर दी.
राष्ट्रपति और राज्यपाल को दी गई यह शक्ति या विशेषाधिकार इस अवधारणा पर आधारित है कि राजा किसी भी अपराधी के दंड को क्षमा कर सकता है. चूंकि राजा देश का प्रमुख होता था, अतः यह शक्ति संविधान के द्वारा देश एवं राज्य के प्रमुख क्रमशः राष्ट्रपति एवं राज्यपाल में निहित की गई है.
अब ये जो ‘माफ़ी’ है, राष्ट्रपति अपनी मर्जी से किसी को भी ऐसे ही नहीं दे देते. संविधान में साफ कहा गया है कि राष्ट्रपति मंत्री परिषद से सलाह लेकर ही माफ़ी या छूट दे सकते हैं. दरअसल गृह मंत्रालय राष्ट्रपति को लिखित में अपना पक्ष देता है. इसे ही कैबिनेट का पक्ष मानकर राष्ट्रपति दया याचिका पर फैसला लेते हैं.
दया याचिका देने का जो प्रोटोकॉल है उसके अनुसार ज़रूरी नहीं कि अपराधी ही दया याचिका लिखकर या साइन करके दे. उसके बदले भारत (या विदेश का भी) कोई भी व्यक्ति राष्ट्रपति या गृह मंत्रालय को दया याचिका भेज सकता है. दया याचिका राज्यपाल के द्वारा भी गृह मंत्रालय या राष्ट्रपति को भेजी जा सकती है.
जब तक राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए मृत्युदंड पर विचार कर रहे होते हैं तब तक दोषी का मृत्युदंड स्थगित (पोस्टपॉन) रखा जाता है.
संविधान के अनुसार भी राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति न्यायिक समीक्षा से परे हैं. लेकिन इस पूरी ‘माफ़ी प्रक्रिया’ में चूंकि राष्ट्रपति या राज्यपाल मंत्रिपरिषद के निर्णय के आधार पर फैसला लेते हैं, इसलिए कई बार निर्णय ‘राजनीति से प्रेरित’ भी देखे गए हैं. इसी चक्कर में 2006 में एक केस की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय को यह कहना पड़ा था कि यदि अनुच्छेद 72/161 के अंतर्गत राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग राजनीतिक फायदे के लिए किया गया है तो उसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है. राज्यपाल सिर्फ इन मामलों में ही दे सकता है माफी राष्ट्रपति जहां हर मामले में माफी दे सकता है वहां राज्यपाल की माफी की शक्तियां सीमित हैं.
# जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि राज्यपाल फांसी के मामले में सजा को माफ नहीं कर सकता. इसी तरह से राज्यपाल सेना के कोर्ट में मिली सजा को भी माफ नहीं कर सकता. # राज्यपाल मृत्यदंड की सजा सिर्फ निलंबित (विराम), दंड अवधि को कम (परिहार) या दंड का स्वरूप बदल (लघुकरण) सकता है. इससे कंफ्यूज न हों. राष्ट्रपति को इसे पूरी तरह से माफ करने का अधिकार है. # राज्यपाल किसी भी दंड को माफ कर सकता, अस्थायी रूप से उस पर रोक लगा सकता है या सज़ा की अवधि को कम कर सकता है.

तमिलनाडु के 20वें गवर्नर बनवारीलाल पुरोहित हैं. तमिलनाडु सरकार ने राजीव गांधी की हत्या से जुड़े मामले में 7 लोगों की सजा माफी की फाइल इन्हें भेजी है. माफी पर मंजूरी अब भी अटकी है. (फोटो-पीटीआई)
अब जरा इन तकनीकी शब्दों को भी समझ लीजिए राष्ट्रपति के पास माफी को लेकर कई तरह की शक्तियां होती हैं. इनमें शामिल हैं लघुकरण, परिहार, विराम, प्रतिलंबन और क्षमा. आइए अब इनमें अंतर समझते हैं.
लघुकरण (Commutation) - इसमें सजा की प्रकृति या नेचर को बदल दिया जाता है. मतलब अगर मौत की सजा दी गई है तो उसे बदल कर कठोर कारावास में बदला दिया जाए.
परिहार (Remission) - यह एक तरह से सजा की अवधि को कम करना है. याद रहे इसमें सजा का नेचर नहीं बदला जा रहा है. मान लीजिए किसी को 2 साल के कठोर कारावास की सजा मिली है तो उसे बदल कर 1 साल के कठोर कारावास में बदल दिया जाता है.
विराम (Respite) - किसी खास वजह से सजा को कम कर दिया जाए. मान लीजिए कोई सजा के दौरान अपंग हो गया या किसी महिला कैदी ने बच्चे को जन्म दिया या वह गर्भवती है. ऐसी परिस्थिति में सजा को विराम दिया जा सकता है. मतलब सजा होगी लेकिन कुछ दिन के लिए रोक दी गई है.
प्रविलंबन (Reprieve) - माना कि किसी अपराध के लिए सजा मिली लेकिन दंड को कुछ समय के लिये टाल दिया गया. मिसाल के तौर पर फांसी को कुछ समय के लिए टालना. विराम और प्रविलंबन में यही फर्क है कि विराम के लिए कुछ खास परिस्थितियां चाहिए प्रविलंबन के लिए नहीं.
क्षमा (Pardon) - यह पूरी तरह से माफी है. तकनीकी मतलब यह कि माफी के बाद किसी को भले ही कोर्ट ने सजा दी हो उसे मुजरिम नहीं कहा जा सकता. ऐसा मान लीजिए कि तकनीकी तौर पर अपराध कभी हुआ ही नहीं.