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केजरीवाल शुक्र मनाइए कि आप सिख नहीं हैं!

तनखैया घोषित होने पर महाराजा रणजीत सिंह को पड़े थे कोड़े! जानिए तनखैया क्या है और पंजाब पॉलिटिक्स में क्या है इसका रोल.

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फोटो - thelallantop

पंजाब इलेक्शंस की क्यूरॉसिटी इस बार इतनी है कि घर से भी जब फोन आता है तो मम्मी-पापा इसी बारे में बात करने लगते हैं. दोस्त चाय पीने जाते हैं तो भी आम आदमी पार्टी, अकाली दल और कांग्रेस ही आस-पास घूमती रहती हैं. सब अपनी-अपनी राजनैतिक समझ से पार्टियों पर दांव लगाने लगते हैं. लेकिन इस सब डिस्कशन का अंत एक ही बात से होता है. और वो बात ये कि अगर आम आदमी पार्टी को पंजाब में अपने पैर पसारने हैं, तो उन्हें सिख धर्म और उनसे जुड़े मामलों पर अधिक सेंसेटिव होना पड़ेगा. क्योंकि ये एक ऐसा पहलू है जिस से आहत होकर पंजाबी शायद आम आदमी पार्टी को ना अपनाए. 

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साल की शुरुआत में हुई माधी मेला रैली में AAP को खूब समर्थन मिला. इतना कि बाकि दोनों पार्टियां बैकफुट पर आ गईं. उत्साह बढ़ा और AAP ने सूबे में प्रचार का काम तेज़ कर दिया. लेकर आए अपना 51 प्वाइंटर यूथ मेनिफेस्टो. लेकिन एक गलती कर बैठे. ऐसी गलती, जिसकी वजह से चर्चा मेनिफेस्टो के कंटेट से ज़्यादा उसके कवर की होने लगी. कवर पर थे गोल्डन टेम्पल, केजरीवाल और उनका चुनाव चिह्न यानी झाड़ू. दुसरी पॉलिटिकल पार्टियों ने कहा कि उनके पवित्र स्थल के साथ झाडू़ लगा कर आप ने धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाया है(हालांकि इस से पहले कांग्रेस और अकाली दल के चुनाव चिन्ह भी गोल्डन टेम्पल के साथ लगाए जा चुके हैं). बची-खुची कसर पूरी कर दी आशीष खेतान ने. अपने यूथ मेनिफेस्टो की तुलना गुरु ग्रंथ साहिब से कर बैठे. मामला और भड़का. खेतान और कंवर संधू ने प्रेस कॉन्फ्रेस कर माफी मांगी. लेकिन समाधान फिर भी नहीं निकला. सारे मुद्दे एक तरफ हो गए और ये धार्मिक भावना वाला मुद्दा तूल पकड़ गया. 


तो अब क्या करते! केजरीवाल ने सोचा कि क्यों न वही राह अपनाई जाए जो अब तक का इतिहास रहा है. फैसला लिया गया कि केजरीवाल एंड पार्टी गोल्डन टेम्पल जाएगी और वहां करेगी सेवा. सेवा बर्तन और जूते साफ करने की. जो कि इनकी भूल का पश्चाताप होगा. 17 जुलाई की शाम ये सब लीडर इस धार्मिक स्थल पहुंचे और अगली सुबह ही करने लगे सेवा. लोगों ने माफ किया या नहीं, इसका जवाब 2017 में होने वाले चुनाव के बाद ही पता चलेगा. लेकिन इस सेवा/पश्चाताप/सज़ा की सिख धर्म और खासकर पंजाब के राजनैतिक इतिहास में एक खास अहमियत रही है. और इस खास अहमियत के चलते इस सूबे से आने वाले राजा से लेकर राष्ट्रपति तक को अपना सर झुकाना पड़ा.

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क्या है ये सज़ा और कौन है इसका हेड मास्टर?

पंजाब में या कहें कि सिखों की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने पर दो तरह की सज़ा का विकल्प है. एक तो लीगल, जो कोर्ट सुनाएगी. दूसरी वो जो श्री अकाल तख्त साहिब से सुनाई जाती हैं. ये एक धार्मिक संस्था की तरह काम करती है और धर्म से जुड़े सारे फैसले लेती है. लेकिन ये सिर्फ सिख को ही सज़ा सुना सकती है. और इस सज़ा को कहा जाता है तनखैया घोषित करना. इसका ऐलान करते हैं श्री अकाल तख्त के जत्थेदार, जो समय-समय पर बदलते रहते हैं. इस सज़ा के तहत आरोपी को गुरुद्वारों में बर्तन, जूते और फर्श साफ करने जैसी सज़ाएं सुनाई जाती हैं. साथ ही हर्जाना भी तय किया जाता है. आरोपी अगर इस सज़ा का पालन नहीं करता, तो उसका धर्म से बायकॉट कर दिया जाता है. ऐसे में उसे किसी भी गुरुद्वारे में आने की इजाज़त नहीं होती, साथ ही किसी भी पाठ-पूजा में हिस्सा भी नहीं लेने दिया जाता.

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केजरीवाल और खेतान सिख नहीं हैं इसलिए उन्हें तनखैया करार नहीं दिया जा सकता. लेकिन ये जानना दिलचस्प है कि किस तरह बीते सालों में ये सज़ा पूरी तरह एक राजनीतिक टूल बन चुकी है.


1. शेर-ए-पंजाब पर जत्थेदार ने बरसाए कोड़े

शेर-ए-पंजाब यानी महाराजा रणजीत सिंह. सिख एम्पायर की स्थापना के साथ-साथ दुश्मनों को मुंह तोड़ जवाब दिया और अंग्रेजों से अच्छे रिश्ते कायम किए. धार्मिक मिजाज़ के ये राजा अक्सर गोल्डन टेम्पल में माथा टेकने आया करते थे. एक बार वहां से वापस आते समय उन्हें मोरा नाम की एक मुसलमान मिली. उसने इच्छा जताई कि महाराजा किसी दिन उसके घर पधारें. वे उसके घर चले गए, लेकिन इस वजह से उन्हें तनखैया करार दिया गया. कोड़े मारने की सज़ा सुनाई गई. उस वक्त श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार अकाली फूला सिंह ने महाराजा की पीठ पर कोड़े मारे. साथ ही हर्जाना भी दिया गया, जिसके बाद महाराजा को माफी दी गई. 


महाराजा रणजीत सिंह

2. राष्ट्रपति की दलील भी काम न आई 

साल 1984. ऑपरेशन ब्लू स्टार हो चुका था. लेकिन इस ऑपरेशन की भनक उस वक्त के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को नहीं थी. गोल्डन टेम्पल पर हुए इस सैन्य कार्रवाई से आहत जैल सिंह ने अगले ही दिन वहां का दौरा करने की सोची. परिक्रमा करने के बाद दो घंटे वहां के ग्रंथियों से बात की. 20 मिनट लोगों को सम्बोधित किया. वो दुखी जान पड़ रहे थे. हाथ जोड़ कर अरदास करने लगे और साथ ही बीते 5 दिनों में जो भी हुआ, उसकी माफी मांगने लगे. वहां मौजूदा लोगों को लगा कि ज्ञानी कांग्रेस सरकार की तरफ से यहां माफी मांगने आए हैं. लोग आहत हो गए. साथ ही वो फुटेज और फोटो भी रिलीज़ की गई, जिसमें ज्ञानी टेम्पल का दौरा कर रहे थे. इस फुटेज में ज्ञानी जूतों के साथ वहां मौजूद दिखाई दिए. और साथ ही एक व्यक्ति उनके लिए छाता लिए हुआ था. दोनों ही वाकये काफी थे ज्ञानी के खिलाफ आक्रोश पैदा करने के लिए. 2 सितम्बर 1984 को ज्ञानी को तनखैया करार दे दिया गया. हालांकि इसके तुरंत बाद ही ज्ञानी ने सफाई भी दी कि जूतों और छतरी का यूज़ टेम्पल के बाहर वाले एरिया में किया गया था. समझदारी दिखाते हुए राष्ट्रपति ने माफी मांग ली और कहा कि मैंने गुरु ग्रंथ साहिब के सामने माफी भी अपने लिए मांगी थी, ना कि कांग्रेस के लिए.

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गोल्डन टेम्पल में  ज्ञानी ज़ैल सिंह

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3. मां की मौत पर नहीं आया कोई ग्रंथी

इंदिरा और खासकर राजीव गांधी के करीबी रहे बूटा सिंह को भी 1984 में तनखैया करार दे दिया गया था. दरअसल ऑपरेशन ब्लू स्टार में अकाल तख्त बुरी तरह से क्षतिग्रस्तहो गया. हालात सुधारने के लिए बेहद ज़रूरी था इसकी मरम्मत करवाना.  ऐसे समय में बूटा सिंह इंदिरा गांधी के लिए संकट मोचक साबित हुए. उन्होंने अपना लंदन का दौरा अधूरा छोड़ दिया और जुट गए अकाल तख्त की कार सेवा की तैयारी में. जब कोई ग्रंथी कार सेवा के लिए राज़ी ना हुए तो बूटा सिंह पटना से एक ग्रंथी भी ले आए. उस समय वे निर्माण मंत्री थे और इसी कारण उनका एक्सपीरिएंस भी यहां काम आया. गांधी परिवार से अपनी नज़दीकी बढ़ाने के चलते बूटा सिंह जो ये सब कर रहे थे, वो सिखों को और खासकर श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार को गवारा नहीं था. तनखैया करार दिए जाने के बाद बूटा सिंह ने किसी भी तरह की सज़ा का पालन करने से इनकार कर दिया. नतीजा ये हुआ कि कुछ ही दिन बाद जब मां की मौत हुई तो कोई भी ग्रंथी पाठ करने के लिए राज़ी ना हुआसिखों को अपनापन दिखाने के लिए बुटा सिंह समय-समय पर नांदेड़ और पटना साहिब तो बार-बार जाते रहे लेकिन अमृतसर में वो ये करने में नाकामयाब रहे. ज़्यादातर सिख उन्हें दिल्ली दरबार का दास और 1984 में सिखों पर हुए ज़ुल्मों के लिए भी जिम्मेदार मानते हैं. इन सब के चलते सितम्बर 1984 में जब इनकी मां की मृत्यु हुई तब कोई ग्रंथी अंतिम संस्कार के लिए नहीं माना. ऐसे मौके पर भी पटना साहिब से ही ग्रंथी को लाया गया.


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बूटा सिंह और सुरजीत सिंह बरनाला लोगों से बात करते हुए

4. जिस सूबे में राज किया, वहीं रस्सी से बंधक बना बेइज़्ज़त किया

बात सुरजीत सिंह बरनाला की है. वही सुरजीत सिंह बरनाला जो ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद सूबे के पहले मुख्यमंत्री बने. अकाली दल भी तब तक दो टुकड़ों में बंट चुका था. एक प्रकाश सिंह बादल वाला और दूसरा हरचरन सिंह लोंगोवाल वाला. बरनाला अकाली दल (लोंगोवाल) से थे. पंजाब की कमान सम्भालने के दो साल बाद ही 1987 में केंद्र ने फिर से राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया. शिरोमणि अकाली दल की SGPC और अकाल तख्त साहिब के फैसलों में काफी इन्वॉलमेंट रहती है. लेकिन बरनाला धर्म और राजनीति को अलग रखना बखूबी जानते थे. फरवरी 1987 में अकाल तख्त के जत्थेदार दर्शन सिंह रागी ने अकाली एकता की कोशिश की. लेकिन बरनाला नहीं माने और वो नाकामयाब रहे. तब बरनाला ने तनखैया घोषित होने का खतरा उठाते हुए भी कहा कि मुख्यग्रंथियों को राजनैतिक मामलों में दखल नहीं देना चाहिए. इसके बाद बरनाला का विरोध बढ़ गया. उन्हें तनखैया करार दे दिया गया. जत्थेदार के आदेश अनुसार बरनाला को अकाली दल (लोंगोवाल) के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा. फिर एक हफ्ते के लिए उन्हें गुरुद्वारे में जूते, फर्श और बर्तन साफ करने की सज़ा मिली. इस बीच जो बात सबसे ध्यान देने लायक थी वो ये कि 18 दिन तक उनके गले में एक तख्ती लटका दी गई, जिस पर लिखा था कि मैं पापी हूं. वाहे गुरु मुझे माफ करो. रस्सी से बंधे और हाथ जोड़े खड़े इस नेता को पहले कभी इतना बेबस नहीं देखा गया था. इसके अलावा 11 दिनों के 5 अखंड पाठ करवाने और उसमें शामिल होने की सज़ा भी थी. 4400 रुपए का चढ़ावा भी चढ़ाया गया जिसके बाद उन्हें माफी मिली. एक्सपर्ट्स का कहना है कि उस समय मुख्यग्रंथियों की धार्मिक दंड देने में उतनी दिलचस्पी नहीं थी, जितनी अपनी सत्ता का एहसास कराने में. 


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खंबे से बंधे खड़े सुरजीत सिंह बरनाला


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जूते साफ करने की सेवा करते बरनाला

5. जब जत्थेदार ही बेबस नज़र आए

ऐसा बहुत कम हुआ है कि सिख धर्म की किसी चीज़ से छेड़छाड़ हुई हो और श्री अकाल तख्त साहिब से आने वाला फैसले में बेबसी नज़र आने लगे. ऐसा हुआ था बिकरम सिंह मजीठिया के केस में. मजीठिया, पंजाब के राजस्व मंत्री और सुखबीर सिंह बादल के साले. बात 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले की है. अरुण जेटली अमृतसर सीट से चुनाव लड़ रहे थे. जेटली की जीत की जिम्मेवारी ली बिकरम सिंह मजीठिया ने. जब वे अपने इलाके मजीठिया (गांव) में गए तो इतने एक्साइटेड हुए गुरबाणी की तुकों से ही छेड़-छाड़ कर गए. मजीठिया बोले:

देह शिवा बर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं

न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं, निश्चय कर अरुण जेटली जीत करौं.

जबकि तुक ये थी:

देह शिवा बर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं

न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं.

लोगों के सामने बाणी से छेड़-छाड़ करना एक बड़ा मामला था. लेकिन सिखों की ये संस्था उस वक्त सुस्त जान पड़ी. शायद अकाली दल की डॉमिनेशन के चलते. दिन बीतते गए लेकिन मजीठिया के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया गया. मीडिया में बात उछली. प्रेशर में आकर 6 घंटे की मीटिंग चली, जिसमें मजीठिया को तनखैया करार दिया गया. सज़ा थी 5 तख्तों में लंगर सेवा, श्री अकाल तख्त में अखंड पाठ करवाना, लंगर के बर्तन साफ करने और 3 दिन तक गुरबाणी पढ़नी.

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महाराजा रणजीत सिंह से चला तनखैया करार देने का सिलसिला अब तक चलता आ रहा है. आखिरी बार बिकरम सिंह मजीठिया पर इसके तहत कार्रवाई हुई. लेकिन इस बीच सज़ा के मायने कब, कैसे और कितने बदले उसके अब हम सब गवाह होंगे. और हां खास बात ये कि अगर आप इन सभी वाकयों को पढ़ने के बाद श्री अकाल तख्त साहिब से होने वाले फैसलों के राजनैतिक झुकाव के बारे में सोच रहे हैं, तो कुछ गलत नहीं सोच रहे.



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