
यह लेख दी लल्लनटॉप के लिए अभिषेक कुमार ने लिखा है. अभिषेक दिल्ली में रहते हैं और सिविल सेवाओं की तैयारी करते हैं. रहने वाले बिहार के हैं. फिलहाल वो अलग-अलग कोचिंग संस्थानों में छात्रों को पढ़ाते हैं. पुरानी पत्र-पत्रिकाएं पढ़ना और पुराने अखबारों से सियासत की चीजों को खोजकर निकालना इनका शगल है. इस बार इन्होंने तारिक अनवर की सियासत के बारे में पिटारे से कुछ किस्से निकाले हैं.
नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के महासचिव और बिहार की कटिहार लोकसभा सीट से सांसद तारिक अनवर ने 28 सितंबर को पार्टी और लोकसभा दोनों से इस्तीफा दे दिया. फिर 27 अक्टूबर को कांग्रेस जॉइन कर ली. इस्तीफे के पीछे तारिक अनवर का तर्क था कि एनसीपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार ने रफाएल मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था. इसी से नाराज़ होकर तारिक अनवर ने इस्तीफा दिया. लेकिन इस इस्तीफे के पीछे एक लंबी सियासी कहानी है.
इमरजेंसी के दौर में शुरू की थी कांग्रेस से राजनीति

तारिक अनवर ने अपनी सियासत कांग्रेस से शुरू की थी. ये वो वक्त था जब देश में इमरजेंसी लगी थी और पूरे देश में कांग्रेस विरोधी लहर चल रही थी.
16 जनवरी 1951 को पटना में जन्मे तारिक अनवर ने सियासत में बहुत कम उम्र में ही कदम रख दिया था. महज 25 वर्ष की उम्र में 1976 में उन्हें बिहार प्रदेश युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. यह जिम्मेदारी तब ज्यादा चुनौतीपूर्ण इसलिए थी क्योंकि देश का युवा लोकनायक जयप्रकाश नारायण के कंधे पर सवारी कर रहा था. वहीं बिहार छात्र आंदोलन का केन्द्र भी बना हुआ था. जार्ज फर्नांडीज जैसे फायरब्रान्ड नेता और चंद्रशेखर जैसे युवा तुर्क छात्रों के आदर्श बने हुए थे. यह छात्र आंदोलन के चरमोत्कर्ष का दौर था. इस दौरान इमरजेन्सी लग चुकी थी. जाहिर है कांग्रेस के विरोध में खड़ी युवा पीढ़ी को कांग्रेस से जोड़ने में जब संजय गांधी और रूखसाना सुल्ताना (फिल्म अभिनेत्री अमृता सिंह की मां और लेखक खुशवंत सिंह की देवरानी) जैसे लोग नाकाम रहे तो तारिक अनवर की भला क्या बिसात थी. इसी दौर में बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष चचा सीताराम केसरी हुआ करते थे. सीताराम केसरी की बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र से एकदम नहीं बनती थी. डॉ जगन्नाथ मिश्र को उनके बड़े भाई ललित नारायण मिश्र की हत्या के समय मुख्यमंत्री रहे अब्दुल गफुर को हटाकर मुख्यमंत्री बनाया गया था. गफुर साहब की ईमानदारी के कायल जयप्रकाश नारायण भी थे लेकिन एक तथ्य ये भी था कि जेपी पर लाठी भी गफुर सरकार ने ही चलवाई थी.
जब सीताराम केसरी के नज़दीक आए तारिक अनवर

तारिक अनवर का सियासी ग्राफ तब ऊपर गया, जब उन्हें सीताराम केसरी का साथ मिला.
जब जगन्नाथ मिश्र और सीताराम केसरी का विवाद बढ़ा तो तारिक अनवर ने सीताराम केसरी का साथ दिया. 1978 में जब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष स्वर्ण सिंह ने इन्दिरा गांधी को कांग्रेस से निकाल दिया, तो इंदिरा ने एक नई पार्टी खड़ी कर दी. उसे कांग्रेस (आई) या इन्का भी कहा जाता था. उस वक्त तारिक अनवर के मेंटर सीताराम केसरी दिल्ली में कांग्रेस के कोषाध्यक्ष बनाए गए. 1980 के चुनाव में संजय गांधी और सीताराम केसरी की बदौलत तारिक अनवर को चुनाव लड़ने के लिये पटना से 300 किलोमीटर दूर कटिहार की लोकसभा सीट दी गई. इतनी दूर जाकर लड़ने में तारिक सकपकाए जरूर लेकिन चुनाव लड़े और फिर जीत हासिल की. बिहार प्रदेश युवक कांग्रेस के अध्यक्ष (अब इन्का की युथ विंग) के रूप में तारिक अनवर का कार्यकाल 1981 तक रहा. संजय गांधी की मौत के बाद तारिक अनवर राजीव गांधी के करीबी हो गए. इसी दौर में युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष (1982-85) भी बना दिए गए.
बॉबी हत्याकांड ने बदल दी बिहार की राजनीति

जब बॉबी हत्याकांड में उस समय बिहार के विधानसभा अध्यक्ष और कांग्रेस नेता राधानंदन झा का नाम सामने आया, तो तारिक अनवर राधानंदन झा के खिलाफ खड़े हुए.
इस दौरान एक घटना ने 1980 में बिहार की सत्ता में वापसी कर चुकी कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मुसीबत खड़ी कर दी. दरअसल पटना में 1982 में 'बॉबी कांड' के रूप में एक भयावह कांड सामने आया. इसमें श्वेतनिशा त्रिवेदी उर्फ बॉबी नाम की एक लड़की का शव पटना से 40 किलोमीटर दूर बख्तियारपुर में जमीन में गड़ा हुआ मिला. उस वक्त बॉबी और विधानसभा अध्यक्ष राधानंदन झा के साथ कथित संबंधों की खबरें मीडिया की सुर्खियां बन रही थीं. लाश को बरामद करने वाले थे तत्कालीन SSP किशोर कुणाल, जो बाद में चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री रहने के दौरान पीएमओ में गठित किए गए अयोध्या सेल के हेड भी बनाए गए थे. लाश मिलने के साथ ही बिहार ही नहीं, पूरे देश की सियासत में हंगामा मच गया. बाबी की संदेहास्पद मौत के लिए विधानसभा अध्यक्ष राधानंदन झा के बेटे रघुवर झा को कथित तौर पर जिम्मेदार माना गया. देश-विदेश की मीडिया में कई महीनों तक यह घटना सबसे बड़ी खबर के तौर पर दर्ज की जाती रही. इस दौरान मुख्यमंत्री अपने विधानसभा अध्यक्ष के साथ खड़े रहे, लेकिन युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष तारिक अनवर इसके खिलाफ खड़े हो गए. वो बिहार में कांग्रेस की हो रही बदनामी से बचाने के लिए मुख्यमंत्री बदलने के लिए कांग्रेस महासचिव राजीव गांधी को लगातार मनाने की कोशिश करते रहे. आखिरकार अगस्त 1983 में जगन्नाथ मिश्र की विदाई हो गई. उनके बाद गिद्धौर (बाँका) के चंद्रशेखर सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए. इस विवाद के बाद राधानंदन झा का तो राजनीतिक कैरियर ही खत्म हो गया. लेकिन जगन्नाथ मिश्र और तारिक अनवर के बीच जो खाई थी, वो सीताराम केसरी के प्रदेश अध्यक्ष रहते (1976-78) कभी भर नहीं पाई.
तारिक ने ही शुरू की थीं शाही इफ्तार पार्टियां

राजधानी दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की ओर से जो इफ्तार पार्टियों का आयोजन होता है, उसकी शुरुआत तारिक अनवर ने ही की थी.
आजकल दिल्ली में जो शाही इफ्तार पार्टियों का चलन है, उसे 1982-83 में युवक कांग्रेस के अध्यक्ष तारिक अनवर ने ही शुरू किया था. 1984 में तारिक कटिहार से दोबारा सांसद बने. 1988 में जब भागवत झा आजाद बिहार के मुख्यमंत्री थे, तारिक अनवर को बिहार कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया. 1989 में लोकसभा चुनाव हुए, तो तारिक अनवर फिर से कटिहार से चुनाव लड़े. लेकिन तारिक अनवर चंद्रशेखर के करीबी और कटिहार में भारत यात्रा केंद्र चलाने वाले जनता दल के उम्मीदवार युवराज सिंह से चुनाव हार गए. 1991 के जब लोकसभा चुनाव होने थे तो अजीत सिंह और उस वक्त बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव चाहते थे कि बिहार के राज्यपाल युनूस सलीम कटिहार से चुनाव लड़ें. ऐसा ही हुआ और युनूस सलीम ने राज्यपाल के पद से इस्तीफा देकर कटिहार से चुनाव लड़ा. नतीजा ये हुआ कि एक बार फिर से तारिक अनवर चुनाव हार गए.
नरसिम्हा राव ने नहीं दिया भाव

नरसिनम्हा राव ने तारिक अनवर को भाव नहीं दिया. लेकिन उन्होंने सीताराम केसरी को कैबिनेट मंत्री बना दिया था.
जब तक पीवी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री रहे, तारिक अनवर हाशिए पर ही रहे. हालांकि सीताराम केसरी को उस दौरान नरसिम्हा राव ने समाज कल्याण मंत्री की कुर्सी दे रखी थी. वहीं तारिक अनवर के विरोधी खेमे यानी कि जगन्नाथ मिश्र की नरसिम्हा राव सरकार में खूब चलती थी. 1995 में जब नरसिम्हा राव ने मंत्रिमंडल का विस्तार किया, तो नरसिम्हा राव ने जगन्नाथ मिश्र को ग्रामीण क्षेत्र एवं रोजगार मंत्री (तब ग्रामीण विकास मंत्रालय का नाम बदला गया था) बना दिया. इससे पहले एक और सियासी घटना घटी थी. जिस युनूस सलीम को राज्यपाल पद से इस्तीफा दिलवाकर कटिहार से चुनाव लड़वाया गया, वो 1994 में ही जार्ज फर्नांडीज की समता पार्टी में शामिल हो गए. फिर जब 1996 में चुनाव हुए तो जनता दल ने मज़बूरी में पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री रह चुके मुफ्ती मोहम्मद सईद को कटिहार से लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बना दिया. लेकिन इस बार तारिक अनवर ने बाजी मार ली और वो जीतकर तीसरी बार संसद पहुंच गए.
जब तारिक के बिना कांग्रेस में पत्ता भी नहीं हिलता था

जब सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष बने, तो कहा जाता था कि तारिक अनवर की मर्जी के बिना कांग्रेस में एक पत्ता भी नहीं हिलता था.
सीताराम केसरी 1996 में कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए. इसके बाद शुरू हुए तारिक अनवर के सबसे अच्छे दिन. सीताराम केसरी ने तारिक अनवर को कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य और फिर महासचिव बनाया गया. वहीं लंबे अरसे से खत्म किए गए कांग्रेस उपाध्यक्ष पद को फिर से बनाया गया और इस कुर्सी पर जितेन्द्र प्रसाद को बिठा दिया गया. कहा जाता है कि वो ऐसा वक्त था, जब कांग्रेस में तारिक अनवर की मर्जी के खिलाफ पत्ता भी नहीं खड़कता था. शरद पवार तब टीम केसरी को मजाक में 'दो मियां, एक मीरा' भी कहा करते थे. यहां दो मियां का मतलब तारिक अनवर और अहमद पटेल से था, जबकि मीरा मीरा कुमार थीं. मार्च 1998 में जब चुनाव हुए तो तारिक अनवर कटिहार से चौथी बार सांसद बन गए. ये वो दौर था, जब जनता दल टूटा था और तारिक अनवर राष्ट्रीय जनता दल की मदद से सांसद बने थे. उसी समय सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष पद से हट गए और इसी के साथ तारिक का ग्राफ भी गिरने लगा.
देश देख रहा था विश्व कप और कांग्रेस से बाहर कर दिए गए तारिक अनवर

सोनिया गांधी का विदेशी मूल का मुद्दा उठाने के बाद तारिक अनवर, शरद पवार और पीए संगमा को कांग्रेस से बाहर कर दिया गया. इसके बाद तीनों ने मिलकर एनसीपी बनाई.
28 मई 1999. क्रिकेट विश्वकप का आखिरी लीग मैच था. भारत और इंग्लैंड के बीच सुपर सिक्स का मैच. दोनों के लिए करो या मरो वाली स्थिति थी. लेकिन ऐन वक्त पर कांग्रेस कार्यसमिति के तीन सदस्यों पीए संगमा, तारिक अनवर और शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर लेटर लिखकर धमाका किया और नतीजे के तौर पर तीनों को पार्टी से बाहर कर दिया गया. फिर तीनों ने मिलकर शरद पवार की अध्यक्षता में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई. लेकिन इस पार्टी के टिकट पर तारिक अनवर कटिहार में बीजेपी के निखिल कुमार चौधरी से लगातार तीन लोकसभा चुनाव (1999, 2004 और 2009) हार गए. हालांकि शरद पवार ने महाराष्ट्र से तारिक को तीन बार (2000, 2006 और 2012) राज्यसभा भेजकर दिल्ली में उनका बंगला बचाया. 2012 में मनमोहन सिंह ने जब मंत्रीमंडल का विस्तार किया तब तारिक को शरद पवार के हीं विभाग में जुनियर मिनिस्टर बनाया गया.
मोदी लहर में लालू ने दिया साथ और चौथी बार सांसद बन गए तारिक अनवर

लालू यादव की मदद से तारिक अनवर चौथी बार लोकसभा में पहुंच गए. हालांकि कार्यकाल खत्म होने से पहले ही उन्होंने पार्टी और पद दोनों से इस्तीफा दे दिया है.
2014 की मोदी लहर के बावजूद लालू यादव के समर्थन की बदौलत तारिक अनवर कटिहार से 5वीं बार संसद पहुंचने में कामयाब रहे. और इस कामयाबी का सिला ये था कि वो लोकसभा में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता बने. लेकिन 28 सितंबर को खबर आई किक तारिक अनवर ने लोकसभा और पार्टी दोनों से इस्तीफा दे दिया है. अगर तारिक के राजनीतिक जीवन पर नजर डालें तो एक बात तो साफ है कि अपने राजनीतिक जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव देख चुके तारिक अनवर कभी बड़े जनाधार वाले नेता नहीं रहे. कभी लहर पर सवार होकर तो कभी गठबंधन के जातीय समीकरण के भरोसे लोकसभा पहुंचते रहे. व्यक्तिगत संबंधों के दम पर तीन बार राज्यसभा का भी सफर तय किया.
अब फिर से वहीं लौट आए हैं जहां से सफर शुरू किया था.
क्या प्रधानमंत्री बनने के बाद टैक्सी लेकर संसद गए थे मनमोहन सिंह?