
पहले आंग्ल मैसूर युद्ध के दौरान रियासतें (तस्वीर: University of Pennsylvania)
1765 में अंग्रेज़ों ने एक कदम और आगे बढ़ाया. चूंकि बंगाल उनके आधिपत्य में था. और मद्रास का फोर्ट भी बहुत महत्वपूर्ण था. इसलिए अंग्रेज़ों ने इरादा किया कि इन दोनों को आपस में जोड़ दिया जाए. मद्रास और बंगाल के बीच में पड़ती थी, उत्तरी सरकार. ये इलाका बंगाल की खाड़ी के पूर्व में पड़ता था. आज के उड़ीसा का ज्यादातर इलाका. उत्तरी सरकार पांच भू भागों से मिलकर बनी थी. शिकाकोल, राज मुंदरी, एल्लोर, कोंडापल्ली और गुंटूर.
मद्रास और बंगाल को जोड़ने के लिए ब्रिटिश EIC को उत्तरी सरकार की जरूरत थी. अब सवाल ये था कि उत्तरी सरकार ब्रिटिश EIC को कैसे मिले? ये समझने के लिए हमें थोड़ा और पहले जाना होगा. 3 अगस्त के एपिसोड में हमने आपको दूसरी कार्नेटिक वॉर के बारे में बताया था. जिसमें ब्रिटिश और फ्रेंच EIC भारत में एक प्रॉक्सी वॉर लड़ रहे थे. इस युद्ध के दौरान सलाबत जंग ने हैदाराबाद का नवाब बनने के लिए फ्रेंच EIC से मदद ली. और बदले में उन्हें उत्तरी सरकार पर कब्ज़ा दे दिया. फिर 1763 में तीसरी कार्नेटिक वॉर में फ्रेंच EIC का सफाया हो गया. और उत्तरी सरकार दुबारा हैदराबाद रियासत के अंडर चली गई. भागते भूत की लंगोटी भली अंग्रेज़ो ने उत्तरी सरकार पर कब्ज़ा करने के लिए हैदराबाद के नवाब आसफ ज़ाह को एक पेशकश की. मुंह मांगा किराया ले लो और उत्तरी सरकार हमें सौंप दो. आसफ जाह ने इंकार कर दिया. वो इसलिए क्योंकि दूसरी कार्नेटिक वॉर के दौरान आसफ जाह और ब्रिटिश EIC विरोधी खेमे में थे. वो अपने दुश्मन की मदद क्यों ही करता. इसके बाद ब्रिटिश गवर्नर रॉबर्ट क्लाइव पहुंचे दिल्ली दरबार. शाह आलम के पास. क्योंकि आधिकारिक रूप से हैदराबाद की रियासत अभी भी मुगलों के अण्डर आती थी. हालांकि मुग़ल अब बहुत कमजोर हो चुके थे. और हैदराबाद के निजाम आसफ जाह भी शाह आलम को ज्यादा पूछते नहीं थे. ये रॉबर्ट क्लाइव को भी पता था. लेकिन उसका मकसद था बस किसी तरह एक बहाना मिल जाए.

मैसूर का सुल्तान हैदर अली (तस्वीर: Wikimedia Commons)
बक्सर में हार के बाद शाह आलम अंग्रेज़ों के हाथ कठपुतली रह गया था. इसलिए क्लाइव से ना कहने की उसकी हिम्मत नहीं थी. उसने डिक्री जारी कर उत्तरी सरकार को ब्रिटिश EIC के हवाले कर दिया. डिक्री जारी होते ही क्लाइव ने उत्तरी सरकार पर कब्ज़ा कर लिया. आसफ जाह ने क्लाइव को डराने धमकाने की कोशिश की. लेकिन क्लाइव को पता था कि हैदराबाद की माली हालत ऐसी नहीं कि युद्ध में उतरे.
अब आसफ जाह को लगा, भागते भूत की लंगोटी ही भली. सो उसने ब्रिटिश EIC से कहा. चलो कम से कम किराया तो दे दो. क्लाइव भी राजी हो गया. उसने 7 लाख रूपये किराए के तौर पर दे दिए. और साथ ही निजाम को एक और पेशकश की. एक मिलिट्री अलाएंस की. जिसके तहत युद्ध होने की स्थिति में दोनों मिलकर लड़ते. अब एक और सवाल. सोचिए उत्तरी सरकार का इलाका तो ब्रिटिश EIC के हिस्से में आ ही चुका था. फिर उन्होंने आसफ जाह से मिलिट्री संधि क्यों की? मैसूर रियासत और हैदर अली इस सवाल का जवाब था, मैसूर रियासत. जहां हैदर अली की ताकत दिन प दिन बढ़ती जा रही थी. वो अपनी रियासत को फैलाने में लगा था. उपजाऊ जमीन, कोलार की सोने की खानें, चन्दन की लड़की का व्यापार, व्यापार के लिए पोर्ट, इन सब के चलते मैसूर तब दक्षिण में सबसे समृद्ध राज्य बन गया था. मराठा भी इस चिंता में थे कि हैदर अली उनके इलाकों पर हाथ डाल सकता है. इसलिए उन्होंने भी आसफ जाह के साथ अलायन्स बना रखा था. इस तरह 1665 के आसपास हैदारबाद, मराठा, और ब्रिटिश EIC मैसूर के खिलाफ एलाइज़ हो गए. उन्होंने प्लान बनाया कि मैसूर पर मिलकर हमला किया जाए.

1768 में प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध में कृष्णागिरी किले को घेर लिया गया था, जिन्होंने इसे कुछ समय के लिए अपने कब्जे में ले लिया (तस्वीर: Wikimedia Commons)
जनवरी 1767 में जंग की शुरुआत हुई. और मराठाओं ने उत्तरी मैसूर पर हमला कर दिया. पेशवा माधव राव को लग रहा था कि नवाब की सेना दूसरी तरफ से आक्रमण करेगी. लेकिन तालमेल में कमी के चलते नवाब की सेना (जिनके साथ ब्रिटिश EIC की टुकड़ी भी थी) कुछ पीछे रह गयी. जब तक नवाब की सेन पहुंचती. तब तक हैदर अली ने एक गज़ब की चाल चली. उसने मराठाओं को पेशकश की, बिना युद्ध के उत्तरी मैसूर का कुछ इलाका ले लो. साथ में 30 लाख रूपये भी ले लो. और पीछे हट जाओ. निजाम की सेना और ब्रिटिश टुकड़ी पहुंची मार्च 1767 में. तब तक मराठा पीछे हट चुके थे.
निजाम की सेना के साथ कम्पनी की दो बटालियन थीं. जिनकी अगुवाई जोसफ स्मिथ कर रहा था. निजाम पहुंचा तो हैदर अली ने उनके साथ भी वही तरीका आजमाया. उसने पेशकश करी कि वो नवाब को 18 लाख रूपये देगा. इसके बदले निजाम को अंग्रेज़ों के खिलाफ हैदर का साथ देना होगा. इसके लिए एक शर्त और थी. वो ये कि कार्नेटिक को जीतने के बाद टीपू को वहां का नवाब बनाया जाएगा. ब्रिटिश टुकड़ी vs हैदर अली मई 1767 में जोसेफ स्मिथ को इस बात की खबर लगी कि निजाम और हैदर अली के बीच कोई खिचड़ी पक रही है. वो अपनी दो बटालियन लेकर कार्नेटिक पहुंच गया. याद रखिए तब कार्नेटिक नवाब वल्ला जाह के कंट्रोल में था. और वल्ला जाह अंग्रेजों के कंट्रोल में थे. जोसेफ स्मिथ अपनी बटालियन सहित चेंगम के कंपनी आउटपोस्ट पर इंतज़ार कर रहा था. यह पर हैदराबाद और मैसूर की सेना ने हमला किया.

आरकोट का नवाब वल्ला जाह और हैदराबाद का निजाम आसफ जाह (तस्वीर: Wikimedia Commons)
ब्रिटिश एस्टीमेट के हिसाब से जोसेफ के पास 7 हजार आदमी थे. जबकि हैदराबाद और मैसूर की सेना 70 हजार थी. दो दिन तक सीज क़ायम करने के बाद हैदर ने कावेरीपट्टीनम पर कब्जा कर लिया. और स्मिथ को अपनी बटालियन सहित पीछे हटना पड़ा. 26 सितंबर 1767 को हैदर ने दुबारा स्मिथ पर हमला किया. और नवंबर तक अम्बूर पर भी कब्जा कर लिया. इसके बाद हैदर ने कोशिश करी की अंग्रेज ग़ैरिसन कमांडर्स को कुछ लालच देकर अपनी तरफ़ किया जाए. जब इस पर नाकाम रहा, तो वो उत्तर की तरफ़ बढ़ गया.
यहां हैदर को एक झटका लगा. निज़ाम की सेना की एक यूरोपीयन कैवेल्री टूटकर ब्रिटिश EIC से मिल गई. निज़ाम ने भी पीछे हटते हुए 1768 में ब्रिटिश कम्पनी के साथ एक ट्रीटी साइन कर ली. हैदर अब अंग्रेजों के ख़िलाफ़ अकेले लड़ रहा था. उसने कई बार संधि की कोशिश की लेकिन अंग्रेज़ों ने इंकार कर दिया. हैदर जब कार्नेटिक में बिजी था. तब ब्रिटिश EIC ने बॉम्बे फोर्ट से एक टुकड़ी को मालाबार की ओर रवाना किया.
मालाबार में हैदर की 10 शिप तैनात थीं. यहां हमला हुआ तो हैदर ने एक टुकड़ी के साथ अपने बेटे टीपू को मालाबार कोस्ट की तरफ रवाना किया. और पीछे-पीछे खुद भी पहुंचा. इस अटैक को पीछे धकेलने के चक्कर में हैदर ने कार्नेटिक में अपनी स्ट्रांग पोजीशन खो दी. अब ब्रिटिश EIC ने हैदर को उसके घर में घेरने की ठानी और बैंगलोर के बाहर जाकर बैठ गए. इसी समय पर मराठा भी पहुंचे और बैंगलोर पर खतरा मंडराने लगा. 9 अगस्त के रोज़ हैदर अली मालाबार से लौटा और उसने बंगलौर के अटैक को पीछे धकेला. टीपू को नवाब बनाने की तमन्ना हैदर की हालत ख़राब हो चली थी. निजाम अलग ही चुका था. और मराठाओं और ब्रिटिश EIC की संयुक्त ताकत का सामना उसे अकेले करना पड़ रहा था. उसने ब्रिटिश EIC को पेशकश करी कि वो उन्हें १० लाख रूपये देगा. अगर वो बैंगलोर से पीछे हट जाएं. बदले में ब्रिटिश EIC ने मांगों की लम्बी चौड़ी लिस्ट रख दी. बाकी सब बातों के लिए तो हैदर तैयार था. लेकिन कार्नेटिक के नवाब वल्ला जाह से डील करने के तैयार नहीं था. वजह थी वल्ला जाह के प्रति उसकी नफरत और बेटे के प्रति उसका अरमान. वो चाहता था कि टीपू को कार्नेटिक का नवाब बनाया जाए. अंग्रेज़ों से साथ डील फाइनल नहीं हो पाई तो लड़ाई दोबारा शुरू हो गई.

टीपू सुल्तान और पेशवा माधवराव (तस्वीर: Wikimedia Commons)
हैदर ने मैसूर में अपनी शक्ति इकठ्ठा की.और दोबारा फ्रेश अटैक की ठानी. नवम्बर 1768 को उसने अपनी सेना के दो हिस्से किए और कार्नेटिक पर हमला कर दिया. दक्षिण कार्नेटिक पर कब्ज़ा करने के बाद उसने मद्रास का रुख किया. मद्रास फोर्ट की सुरक्षा कमजोर हो चुकी थी. काहे कि हैदर के खिलाफ लड़ने के चक्कर में यहां की बटालियन कार्नेटिक की दूसरे इलाके में फ़ैली थी. हैदर के मद्रास की तरफ बढ़ने की खबर लगी तो अंग्रेज़ों ने शांति की पेशकश की. हैदर की जिद थी कि वो ऐसे किसी नेगोशिएसन का हिस्सा नहीं बनेगा, जिसमें वल्ला जाह इनक्लूडेड हो. इसलिए बात कहीं नहीं पहुंची. इसके बाद हैदर ने 6000 घुड़सवार लिए और 3 दिन में 290 किलोमीटर का सफर करते हुए मद्रास के गेट तक पहुंच गया.
संधि करना अब ब्रिटिश EIC की मजबूरी थी. हैदर भी संधि ही करना चाहता था लेकिन अपनी शर्तों के साथ. चूंकि उसे मराठाओं के खिलाफ एक साथी की जरुरतथी. इसलिए उसने एक ऑफेंसिव अलायन्स की पेशकश की. लेकिन मराठाओं की शक्ति देखते हुए ब्रिटिश EIC ने ऑफेंसिव अलायन्स से मना कर दिया. इसके बाद हैदर और ब्रिटिश EIC के बीच आज ही के दिन यानी 4 अप्रैल 1769 को संधि हुई. जिसे मद्रास संधि के नाम से जाना जाता है. इसके तहत तय हुआ कि अगर दोनों में से किसी पर भी हमला हुआ तो दूसरा साथ देगा. हालांकि बाद में जब मराठाओं और मैसूर के बीच जंग हुई तो ब्रिटिश EIC ने साथ देने से इंकार दिया. इसके बाद 1780 में दूसरे आंग्ल मैसूर युद्ध की शुरुआत हुई. जिसके बारे में हमने आपको 27 सितम्बर के एपिसोड में बताया था. जिसका लिंक आपको डिस्क्रिप्शन में मिल जाएगा.