भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) के बेटे अनिल शास्त्री एक किस्सा बताते हैं. बात तब की है जब शास्त्री जी नेहरू (Jawahar Lal Nehru) सरकार में गृह मंत्री हुआ करते थे. इसके बाबजूद अनिल और उनके दो छोटे भाई स्कूल जाते हुए तांगे का इस्तेमाल करते थे. वहीं स्कूल मे उनके दोस्त गाड़ी से आते थे. और ये उनके बच्चे थे जो सरकार में शास्त्री जी के अंडर काम करते थे. अनिल और उनके भाइयों ने एक दिन अपने पिता से पूछा, “हम गृह मंत्री के बेटे होते हुए भी गाड़ी में स्कूल क्यों नहीं जा सकते?”
एंबेसडर कैसे बनी ‘भारत की कार’!
साल 1958 में बाजार में लॉन्च हुई एंबेसडर भारत की स्वदेशी पहचान का बेहतरीन नमूना थी.
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शास्त्री जी ने जवाब दिया, “जा सकते हो लेकिन उसके लिए उन्हें सरकारी गाड़ी में जाना होगा”
अनिल और उनके भाइयों ने कहा, चलेगा.
तभी शास्त्री जी ने हिदायत देते हुए कहा, “याद रखो गाड़ी सिर्फ तब तक है जब तक मैं सरकार में मंत्री हूं. जिस दिन मैं मंत्री नहीं रहूंगा, तुम्हें फिर तांगे से ही जाना होगा”
अनिल लिखते हैं कि ये सुनकर उन्होंने गाड़ी से जाने का विचार त्याग दिया क्योंकि एक बार गाड़ी की आदत लग जाने पर उन्हें दुबारा तांगे से जाने की हिम्मत नहीं थी. अनिल बताते हैं कि बाद में शास्त्री जी ने अपने लिए एक कार खरीदी थी (Lal Bahadur Shashtri Car). कीमत थी 12 हजार रुपये. शास्त्री जी के पास अकाउंट में सिर्फ 7 हजार रूपये थे. इसलिए उन्हें गाड़ी खरीदने के लिए पंजाब नेशनल बैंक से 5000 का लोन लेना पड़ा. ये लोन उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार को चुकाना पड़ा था.
इस किस्से से आप कल्पना कर सकते हैं कि आज से 60 साल पहले भारत में गाड़ी लेने के क्या मायने होते थे. और इस किस्से की बात इसलिए क्योंकि आज हम आपको उस गाड़ी की कहानी बताने वाले हैं जिसे भारत की पहली कार कहा जाता है. हालांकि वो भारत में बनने वाली पहली कार नहीं थी. लेकिन 90’s से पहले के दौर के किसी व्यक्ति से पूछेंगे तो वो इसी गाड़ी को भारत की कार कहेगा. नाम था हिंदुस्तान एंबेसडर (Hindustan Ambassador). वो गाड़ी जिसके रंग से लोग ओहदे का पता लगा लिया करते थे. सफ़ेद एंबेसडर का मतलब था किसी नेता का कारवां जा रहा है, काली एंबेसडर में सेना के अधिकारी चलते थे. वहीं अगर लाल पीली एंबेसडर हो तो उसका मतलब होता था टैक्सी. क्या थी एंबेसडर की कहानी? चलिए जानते हैं.
भारत में पहली कार और भारत की पहली कारशुरुआत रिवर्स गियर से करते हैं. 2 नवम्बर 1881. ये वो तारीख थी जब फ्रेंच आविष्कारक गुस्ताव ट्रूवे ने पेरिस में एक प्रदर्शनी के दौरान पहली बार बिजली से चलने वाली पहली गाड़ी का प्रदर्शन किया. इसके 5 साल बाद 1886 में जर्मन इंजीनियर कार्ल बेंज ने पहले कार इंजन का पेटेंट हासिल किया, जो पेट्रोल से चलता था. इसी के साथ दुनिया भर में गाड़ियों की आमद होनी शुरू हुई और जल्द ही भारत की सड़कों पर भी कार दौड़ने लगी. भारत में पहली कार कलकत्ता में पहुंची थी. साल था 1896. इस कार को खरीदा था फॉस्टर नाम के एक अंग्रेज़ साहिबान ने. इसके अगले ही साल जमशेदजी टाटा ने अपनी पहली कार खरीदी. हालांकि इसकी अगली आधी सदी तक आम भारतीयों के कार दूर की कौड़ी रही.

1928 में फोर्ड और जर्मन मोटर्स ने भारत में कार बनाना और बेचना शुरू कर दिया था लेकिन भारतीय अब भी बैल गाड़ी से ही चलते थे. फिर आया साल 1942. उस साल बीएम बिड़ला ने हिंदुस्तान मोटर्स नाम से एक कम्पनी की शुरुआत की. उनके भाई घनश्याम दास बिड़ला (GD Birla) महात्मा गांधी के खास मित्र हुआ करते थे. और उन्हीं की प्रेरणा से बिड़ला परिवार ने तय किया कि भारत को ऑटोमोटिव मैन्युफैक्चरिंग में आत्मनिर्भर होना होगा. हिंदुस्तान मोटर्स (Hindustan Motors) की शुरुआत गुजरात में बंदरगाह के नजदीक ओखा से हुई थी.
कार के कलपुर्जे आयात करने के लिए ये एक मुफीद जगह थी. कलपुर्जे ब्रिटेन की एक कम्पनी मॉरिस मोटर्स से आयत किए जाते और भारत में उन्हें असेम्बल किया जाता. बंदरगाह पास होने से आयत में आसानी पड़ती थी और पैसों की भी बचत होती थी. इसी दशक में भारत में टाटा, महिंद्रा ग्रुप ने भी अपनी ऑटोमोटिव कंपनी लॉन्च की. लेकिन ये सब कुछ ज्यादा वक्त तक चल नहीं पाया. 1943 से 45 के बीच वर्ल्ड वॉर 2 की वजह से काम ठप रहा तो वहीं युद्ध के खात्मे के बाद के साल आजादी के बंदोबस्त में निकल गए. 1949 में हिंदुस्तान मोटर्स ने अपनी पहली कार लॉन्च की. नाम था हिंदुस्तान 10. ये मॉरिस 10 नामक कार की कॉपी थी. इसमें 1.5 लीटर कैपेसिटी वाला वाल्व इंजन लगा था, जिसमें 37 हॉर्स पावर की ताकत थी.
कैसे बनी एंबेसडरभारत के ऑटोमोटिव सेक्टर में एक बड़ा बदलाव आया साल 1952 में. क्या हुआ था इस साल?
1952 में भारत सरकार ने पहली टैरिफ पालिसी बनाई. इस पॉलिसी के तहत अगर किसी विदेशी कम्पनी का किसी भारतीय कम्पनी के साथ करार नहीं तो उस पर भारी टैक्स लगता. नतीजा हुआ कि फोर्ड और जनरल मोटर्स जैसी कंपनियों ने भारत से अपना बोरा बिस्तर समेट लिया. बिड़ला इस दौरान हिंदुस्तान मोटर्स का कारखाना लेकर गुजरात से बंगाल चले गए. कलकत्ता से 10 कोलोमीटर दूर उत्तरपाड़ा में नया कारखाना लगा. मॉरिस कंपनी के साथ नया करार हुआ. जिसके तहत अब भारत में ही कलपुर्जे बनाए और असेम्बल किए जाने लगे. कंपनी ने हिंदुस्तान 14, बेबी हिंदुस्तान और हिंदुस्तान लैंडमास्टर नाम के मॉडल लॉन्च किए. हालांकि ये सब गाड़ियां भारत में बनी थीं लेकिन फिर भी इन्हें विलासिता की निशानी माना जाता था. केवल संभ्रांत वर्ग के लोग ही इन गाड़ियों को खरीद सकते थे.

फिर 1958 में कम्पनी के लॉन्च की एक ऐसी कार, जिसने भारतीय ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री का नक्शा बदल दिया. मोरिस कंपनी की एक कार हुआ करती थी. नाम था, मॉरिस ऑक्सफोर्ड सीरीज-3. हिंदुस्तान मोटर्स ने भारत के हिसाब से इसमें थोड़ा बहुत बदलाव किए और इसे ‘एंबेसडर’ नाम से लॉन्च किया. जैसे ही ये गाड़ी भारत की सड़कों पर उतरी, इसने वो रफ़्तार पकड़ी कि सब देखते रह गए. गाड़ी की कीमत थी, 14 हजार रूपये. इसकी खास बात थी कि खड्डों वाली सड़कों पर भी इसे आराम से चलाया जा सकता था. इसलिए मार्केट में आते ही इस कार ने अपनी पैठ बना ली. सबसे खास बात ये थी कि अगर गाड़ी ख़राब हो जाए तो कोई नौसिखिया मेकेनिक भी इसे ठीक कर सकता था.
ये भारत की पहली डीजल कार थी. और तब इसे किंग ऑफ इंडियन रोड्स कहा जाता था. ‘एंबेसडर’ मध्यवर्ग के लिए पहली कार थी. मध्यवर्ग का कोई व्यक्ति जिसे अपने काम धंधे के लिए कार चाहिए वो इसे खरीद सकता था, साथ ही रईसी दिखाने वाले इसे शान-ओ-शौकत की चीज समझते थे. टैक्सी चलाने वालों के लिए भी ये पहली पसंद थी. वहीं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, बड़े अफ़सरान के लिए भी एंबेसडर ताकत का प्रतीक थी. उस दौर में एंबेसडर के विज्ञापनों में लिखा होता था, “We are still the driving force of the real leaders.” यानी “हम अभी भी असली नेताओं की प्रेरक शक्ति हैं”. राजनीति में एंबेसडर की अहमियत समझने के लिए तब के दौर एक किस्सा सुनिए.
जब नेहरू ने चुना कैडिलैक कोबात तब की है जब नेहरू प्रधानमंत्री हुआ करते थे. अपनी रोजमर्रा की यात्राओं के लिए वो भारतीय गाड़ियों से चलते थे लेकिन जब बात किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष या गणमान्य व्यक्तिय की आवभगत की हो तो नेहरू कैडिलैक में उन्हें लेने जाते थे. ये देखकर एक रोज़ तत्कालीन गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उनसे पूछा कि आप गाड़ी बदलकर क्यों जाते हैं. इस पर नेहरू ने जवाब दिया, “मैं बाहर से आने वालों को दिखाना चाहता हूं कि भारत का प्रधानमंत्री भी कैडिलैक में घूम सकता है.”

हालांकि लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने एंबेसडर में ही चलना चुना. शास्त्री जी के बेटे अनिल बताते हैं कि वे विदेशी आगंतुकों को लेने के लिए भी एंबेसडर ही लेकर जाते थे. एक रोज़ जब उनसे पूछा गया कि वो नेहरू की तरह कैडिलैक क्यों नहीं ले जाते तो शास्त्री जी ने जवाब दिया,
“पंडित नेहरू एक महान व्यक्ति थे, उनका अनुकरण करना मुश्किल है. जहां तक मेरी बात है मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई विदेशी गणमान्य व्यक्ति क्या सोचता है. बस उन्हें ये मालूम होना चाहिए कि भारत का प्रधानमंत्री भारत में बनी गाड़ी में चलता है”
उस दौर में एंबेसडर या जिसे प्यार से एम्बी बुलाया जाता था भारत में बिकने वाली कारों का 70% हुआ करती थी. जिसमें एक बड़ा हिस्सा सरकारी आर्डर का हुआ करता. क्योंकि केंद्र और राज्य सरकार के मंत्री और बाबू एंबेसडर से ही चलना पसंद करते थे. सफ़ेद एंबेसडर के ऊपर लगी लाल-नीली बत्तियों का एक ही मतलब था, कोई बड़ा आदमी जा रहा है. साल 1981 तक एंबेसडर ने भारतीय कार मार्केट में एक छत्र राज किया. फिर 1983 में मारुति 800 लॉन्च हुई और आम लोगों के बीच उसने एंबेसडर की जगह ले ली. हालांकि नेताओं और मंत्रियों के लिए अम्बेसेडर तब भी पहली पसंद बनी रही.
कैसे बंद हुई एंबेसडरसाल 2003 में अटल बिहारी बाजेपयी वो पहले प्रधानमंत्री बने जिन्होंने एंबेसडर के बजाय BMW से चलना चुना. साल 2001 में हुए संसद हमलों के सुरक्षा कारणों से एंबेसडर को प्रधानमंत्री के काफिले से अलग कर दिया गया. हालांकि इसके काफी समय बाद तक भी टैक्सी चालकों के बीच एंबेसडर लोकप्रिय बनी रही. जिन्हें आम भाषा में काली पीली कहा जाता है. साल 2013 में ग्लोबल ऑटोमोटिव प्रोग्राम टॉप गियर ने एंबेसडर को दुनिया की सबसे बेहतरीन टैक्सी का दर्ज़ा दिया.

इस कार का डिज़ाइन इतना आइकॉनिक था कि इन 60 सालों में मामूली बदलावो के अलावा इसके नैन-नक़्श कभी नहीं बदले गए. कभी भारत में स्वायत्ता का प्रतीक रही कम्पनी वक्त के साथ अपने को बदल नहीं पाई और आख़िरकार बढ़ते कम्पीटीशन के बीच साल 2014 में इसे बनाना बंद कर दिया गया. फरवरी 2017 में हिन्दुस्तान मोटर्स ने ‘एंबेसडर’ ब्रांड से जुड़े तमाम अधिकार फ्रांस की एक कंपनी ‘प्यूज़ो’ को 80 करोड़ रुपए में बेच दिए. पिछले साल यानी 2021 में खबर आई थी कि प्यूज़ो एक बार फिर एंबेसडर को भारत में लॉन्च करने का प्रोग्राम बना रही है. संभव है कि एंबेसडर का एक नया रूप जल्द ही आपको सड़कों पर दौड़ती दिखे.
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