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ऑपरेशन ब्लू स्टार: अपना ही जनरल बन गया फौज की सबसे बड़ी मुसीबत

Operation Blue Star: 1978 में अमृतसर में बैशाखी के दिन एक झगड़े में 17 लोगों की हत्या हो गई. वहां से पंजाब में हालात लगातार बिगड़ते गए और साल 1984 में नौबत ऑपरेशन ब्लू स्टार तक आ पहुंची.

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80 के दशक में जरनैल सिंह भिंडरांवाले की ताकत इतनी बढ़ गई थी कि वो अपनी अलग सरकार चलाने लगे थे (तस्वीर: Getty)

7 जून 1984. बुधवार का दिन. सुबह के 6 बजे RK धवन अपने गोल्फ लिंक वाले घर के हॉल में चहल कदमी कर रहे थे. पिछली रात न तो उन्हें नींद आई थी, न ही सुबह वर्जिश का मन था. सिर्फ एक फोन कॉल का इंतज़ार था, और वो भी जल्द ही पूरा हो गया. घंटी बजी. फोन उठा. दूसरी तरफ राज्य रक्षा मंत्री केपी सिंहदेव थे. चंद सेकेण्ड की बातचीत हुई. धवन ने फोन का रिसीवर नीचे रखा और सीधे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) से मिलने पहुंचे. ऑपरेशन ब्लू स्टार (Operation Blue Star) पूरा हो चुका था.

इंदिरा ने जैसे ही ये खबर सुनी, खुशी के बजाय उनके चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं. उनके मुंह से निकला, “ओह माय गॉड! लेकिन उन्होंने तो मुझसे कहा था कि कोई ‍कैजुअलिटी नहीं होगी”. पूरी खबर थी कि जरनैल सिंह भिंडरांवाले मारे जा चुके थे. लेकिन मारे जाने वालों में आर्मी के कई जवान और आम लोग भी शामिल थे. साथ ही गोल्डन टेम्पल को भी बहुत नुक़सान हुआ था.

ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए हरी झंडी लेते हुए, सेनाध्यक्षों ने इंदिरा गांधी को बार-बार गारंटी दी थी कि मामूली जान-माल का नुकसान होगा. इसलिए सवाल खड़ा होता है कि ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान ऐसा क्या हुआ कि आर्मी को टैंक और हेलीकाप्टर लगाने पड़े. सैकड़ों लोगों की जान चली गई और गोल्डन टेम्पल परिसर को भी भारी नुक़सान हुआ. इस सवाल का जवाब जानने से पहले थोड़ा समझते हैं कि ऑपरेशन ब्लू स्टार के हालत बने कैसे? 

भिंडरांवाले कैसे बना इतना ताकतवर? 

साल 1978. बैसाखी का दिन. इस तारीख का सिख धर्म में ख़ास महत्त्व है क्योँकि गुरु गोविन्द सिंह ने बैसाखी के दिन ही खालसा पंथ की शुरुआत की थी. उस रोज़ अमृतसर में उत्सव का माहौल था. बखेड़ा तब खड़ा हुआ जब निरंकारी पंथ का समूह सरकार के पास एक जुलूस की पर्मिशन लेने पहुंच गया. पंजाब में तब अकाली दल की सरकार थी और उन्होंने पर्मिशन दे भी दी. ये जानते हुए कि परंपरागत सिख इससे नाराज होंगे. ऐसा हुआ भी. भिंडरावाले ने तत्काल दरबार साहिब के पास एक सभा बुलाई. सभा में निरंकारियों के खिलाफ जोरदार भाषण दिया गया. इसके बाद इधर से एक जुलूस निरंकारियों की तरफ बढ़ा.

इन लोगों के पैसा कृपाण थे. तो दूसरी तरफ निरंकारियों के पास बन्दूक. झड़प हुई और 13 लोग मारे गए.  
इस मामले में निराकारी पंथ प्रमुख गुरबचन सिंह की गिरफ्तारी हुई. लेकिन मामले की नजाकत देखते हुए ट्रायल हरियाणा कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया. इस घटना के बाद भिंडरांवाले और उनके समर्थकों ने अकाली सरकार की नाक में दम कर दिया. 50 साल के इतिहास में पहली बार अकालियों को कट्टर सिख धड़े से चुनौती मिल रही थी.

पंजाब में भिंडरांवाले का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा था. तब दिल्ली कांग्रेस की नजर भिंडरांवाले पर पड़ी. अपनी किताब ‘ट्रेजेडी ऑफ पंजाब’ में कुलदीप नय्यर इस पूरे घटनाक्रम का ब्यौरा देते हैं. कुलदीप लिखते हैं कि तब पंजाब की कमान संजय गांधी के हाथ में थी. पंजाब में परंपरागत सिख धड़ा अकाली दल का समर्थक था. इसलिए संजय ने सुझाव दिया कि किसी ऐसे व्यक्ति को अकाली दल के चैलेंजर के रूप में खड़ा किया जाए, जो सिखों में खासी पकड़ रखता हो. इसके लिए दो लोगों को चुना गया. अंत में संजय गांधी ने फैसला किया कि जरनैल सिंह भिंडरांवाले को इस काम के लिए पुश किया जाए. कुलदीप नय्यर के हिसाब से ये बात कमलनाथ ने खुद उन्हें बताई थी. 

पंजाब में हालत कैसे बिगड़े 

बैसाखी घटनाक्रम के कुछ रोज़ बाद ही ‘दल खालसा’ नाम के एक संगठन ने चंडीगढ़ में प्रेस कांफ्रेंस की. ये भिंडरांवाले का ही एक पोलिटिकल फ्रंट था. इस संगठन के माध्यम से भिंडरांवाले अपने पॉलिटिकल उद्देश्य को आगे रख सकते थे. और साथ ही उनके पास ये कहने का मौका भी रहता कि वो सिर्फ संत हैं और उनका पॉलिटिकल मामलों से कुछ लेना देना नहीं.  सतीश जैकब अपनी किताब, “अमृतसर: मिसेज़ गांधी लास्ट बैटल” में लिखते हैं कि ‘दल खालसा’ ने जो प्रेस कांफ्रेंस की थी, उसका कुल खर्च 600 रूपये आया था. और इसका बिल भरने वाले और कोई नहीं, तब कांग्रेस के नेता और आगे जाकर भारत के राष्ट्रपति बनने वाले ज्ञानी ज़ैल सिंह थे.

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संजय गांधी और पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (तस्वीर: Getty)

कारवां मैगजीन के एडिटर हरतोष लिखते हैं, जैकब ने उन्हें बाद में बताया कि सालों बार ज़ैल सिंह ने राष्ट्रपति बनने के बाद जैकब से इस बात का स्पष्टीकरण मांगा. तब जैकब ने जवाब दिया, “ज्ञानी जी, मेरे पास बिल की कॉपी अभी भी रखी है”. इसके बाद जैल सिंह ने जैकब से आगे कुछ नहीं कहा. बहरहाल, वापस घटनाक्रम पर लौटते हैं, जनवरी 1980 तक इंदिरा की सत्ता में वापसी चुकी थी. चुनावों के दौरान भिंडरांवाले ने कांग्रेस के लिए प्रचार किया था. और एक वक्त तो इंदिरा और भिंडरांवाले ने स्टेज भी शेयर किया था. इलेक्शन के कुछ दिन बाद ही बैसाखी झगड़े को लेकर फैसला आया और गुरबचन सिंह रिहा हो गए. इस खबर से भिंडरांवाले इतने बौखलाए कि उन्होंने अकालियों के खिलाफ और जोर-शोर से बोलना शुरू कर दिया. 

ठीक दो महीने बाद अप्रैल महीने में गुरबचन सिंह की उनके दिल्ली वाले निवास पर हत्या कर दी गई. नय्यर लिखते हैं कि CBI इन्वेस्टिगेशन में सात लोगों का नाम आया था. जो सभी भिंडरावाले के जत्थे से जुड़े हुए थे. इस क़त्ल में शामिल मर्डर वेपन का लाइसेंस भी भिंडरांवाले के एक भाई के नाम से लिया गया था. इसके बाद साल 1981 में पत्रकार लाला जगत नारायण की हत्या हुई. जगत नारायण, ‘हिन्द समाचार समूह’ के संस्थापक थे. इस हत्या में भी भिंडरांवाले से जुड़े लोगों का नाम आया. 

आगे का घटनाक्रम बिलकुल तीर की सीध पर हुआ. भिंडरांवाले की गिरफ्तारी हुई. हंगामा हुआ. भिंडरांवाले छोड़ दिए गए. केंद्र की कांग्रेस सरकार और भिंडरांवाले आमने सामने आ चुके थे. अकाली दल ने मौका देख कर भिंडरांवाले से हाथ मिला लिया. साल 1982 से 84 के बीच पंजाब के हालात लगातार बिगड़ते गए. 1982 में भिंडरांवाले ने गोल्डन टेम्पल को अपना ठिकाना बना लिया. वहां से आदेश जारी किए जाने लगे. अगले दो सालों में सरकार ने कई बार भिंडरांवाले को गिरफ्तार करने की कोशिश की. 

ऑपरेशन ब्लू स्टार 

ऑपरेशन ब्लू स्टार की अगुवाई कर रहे थे मेजर जनरल कुलदीप सिंह बराड़. लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा बताते हैं कि ठीक ऑपरेशन शुरू होने से पहले बराड़ ने फैजियों से बोला कि जो भी इस ऑपरेशन का हिस्सा न बनना चाहता हो वो अभी मना कर सकता है. लेकिन किसी ने ऐसा नहीं किया. 5 जून की सुबह साढ़े 10 बजे काली डांगरी पहने 20 जवान गोल्डन टेम्पल के अंदर दाखिल होते हैं. इन लोगों ने नाईट-विजन गॉगल, स्टील हेमलेट और बुलेटप्रूफ वेस्ट पहने हुए थे. ये सब MP-5 सबमशीन गन, और AK-47 से लैस थे.

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जरनैल सिंह भिंडरांवाले (तस्वीर: Getty)

शाहबेग 1971 में बांग्लादेश युद्ध के हीरो रहे थे. लेकिन फिर शाहबेग, जरनैल सिंह भिंडरांवाले के मिलिट्री कमांडर बन गए. शाहबेग को आर्मी की कमजोरी का पता था. पूरे भारत में सिर्फ एक एक यूनिट थी जो क्लोज़ क्वार्टर में लड़ाई करने के लिए ट्रेंन्ड थी. स्पेशल ग्रुप 56th कमांडो कंपनी. शाहबेग ने अप्रैल से तैयारी शुरू कर गोल्डन टेम्पल को पूरा फोर्ट्रेस बना दिया था. मेजर जनरल बराड़, नाइंथ इन्फेंट्री डिवीजन को लीड कर रहे थे. जिसकी तीन बटालियन को रात में अंदर भेजा गया. लेकिन इन्हें राजस्थान के रेगिस्तानों और पंजाब के खुले मैदानों में लड़ने की ट्रेनिंग मिली थी. बंद जगह में लड़ाई का अनुभव पहली बार होना था. शाहबेग सिंह और भिंडरांवाले अकाल तख़्त में छिपे हुए थे. 

कमांडोज़ ने जैसे ही उस तरफ कदम बढ़ाया, एक स्नाइपर की गोली सीधे रेडियो ऑपरेटर के हेमलेट को पार करते हुए सर पर लगी. तुरंत बाकी लोग अकाल तख़्त से पहले बने हुए खम्बों के पीछे छिप गए. इन लोगों को हिलने का मौका तक नहीं मिल रहा था. अकाल तख़्त और दर्शन देवड़ी के बीच पूरे इलाके को शाहबेग ने मशीन गनों से घेर रखा था. मशीन गन और कार्बाइन दीवारों के पीछे से दनदना रही थीं. लगातार चल रही बंदूकें इतना फ्लैश मार रही थीं कि कमांडोज़ के नाईट विजन डिवाइस फेल हो रहे थे. कमांडोज़ ने अकाल तख़्त की ओर बढ़ने के कई कोशिशें की. लेकिन वहां आगे बढ़ने की कोई सम्भावना ही नहीं थी. कुछ ही देर में परिक्रमा का मार्बल अपना रंग बदल चुका था. यहां वहां लाशें पड़ी हुई थीं. इसके बाद आर्मी ने एक आर्मर्ड पर्सनल कैरियर (APC) उतारा, एक बख्तरबंद गाड़ी जिसे युद्ध के मैदान में आगे बढ़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. कमांडोज़ में APC में बैठकर आगे बढ़ने की कोशिश की. लेकिन उसे भी ग्रेनेड लॉन्चर से फेल कर दिया गया. 

भिंडरांवाले की मौत 

तब SG यूनिट का एक अफसर दौड़ते हुए लेफ्टिनेंट जनरल रणजीत सिंह दयाल के पास पहुंचा. उसने बताया कि आगे बढ़ने का कोई जरिया नहीं है. अफसर ने आगे बताया कि भिंडरावाले को पकड़ने के लिए अकाल तख़्त के पीछे की दीवार तोड़नी होगी. रणजीत सिंह ने सीधे इंकार कर दिया. इसके बाद प्लान बना कि आंसू गैस के जरिए अकाल तख़्त को खाली करवाया जाएगा. 
आधी रात के बाद SG यूनिट और आर्मी 1 पैरा के बचे हुए लोग अकाल तख़्त के पास के फाउंटेन पर इकठ्ठा हुए. कमांडोज़ ने अकाल तख़्त के अंदर आंसू के गोले फेंकने की कोशिश की. लेकिन वहां खिड़कियों को ईट से बंद कर दिया गया था. आड़ी जगह में सिर्फ इतनी जगह निकली हुई थी कि मशीन गन का मुंह बाहर निकल सके. 

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(बाएं से दाएं) ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद स्वर्ण मंदिर में मेजर जनरल कुलदीप सिंह बराड़, जनरल कृष्णस्वामी सुंदरजी और जनरल ए एस वैद्य। (तस्वीर: Getty)

कमांडोज़ ने अकाल तख़्त की ओर ग्रेनेड फेंके. दो मशीन गन नष्ट भी हो गई लेकिन अंदर घुसना अभी भी असंभव सा लग रहा था. सुबह तक ऐसे ही हालात रहे. फिर 6 जून की सुबह साढ़े सात बजे तीन विजयंता टैंक अंदर लाए गए. कोई रास्ता न देख टैंक से 105mm के गोले दागकर अकाल तख़्त की दीवार को गिरा दी गई. कमांडोज़ ने तेज़ी से इंटर करते हुए ग्रेनेड और आंसू गैस के गोले फेंके. और चंद घंटों में ही अकाल तख़्त को खाली करा लिया गया.

 तब तक टेम्पल परिसर किसी मध्यकालीन युद्ध स्थल की तरह लगने लगा था. लाल-काली लाशें परिक्रमा के चारों तरफ फ़ैली हुई थीं. अकाल तख़्त से धुंआ निकल रहा था. आज की ही तारीख यानी 7 जून को आर्मी को शाहबेग और भिंडरांवाले की लाश मिली. कुलदीप सिंह बराड़ अपनी किताब, “ऑपरेशन ब्लू स्टार: द ट्रू स्टोरी” में बताते हैं कि आर्मी को वहां 51 मशीन गन मिलीं. आम तौर पर 800 जवानों की आर्मी यूनिट इतने असले का इस्तेमाल करती है. वो भी आठ किलोमीटर एरिया को घेरने के लिए. 

बराड़ लिखते हैं कि शाहबेग दोपहर होने के इंतज़ार में थे. ताकि आम जनता तक जब आर्मी एक्शन की न्यूज़ पहुंचे तो विद्रोह खड़ा हो जाए. लेकिन उससे पहले ही सेना ने हरमंदिर साहिब को अपने कब्ज़े में ले लिया. अगले तीन दिनों में कुछ छिपे हुए उग्रवादियों को भी बाहर निकाल लिया गया. और 10 जून को ऑपरेशन ब्लू स्टार पूरी तरह से ख़त्म हो गया. आगे की कहानी आप जानते हैं. ऑपरेशन ब्लू स्टार की कीमत इंदिरा को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. दिल्ली में हजारों सिखों की जान ले ली गई. पंजाब में आतंक का दौर अगले एक दशक तक चला और 1995 के बाद ही पंजाब में चरमपंथ की आग बुझ पाई.

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