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जब लाहौर में एक पाकिस्तानी बंदे ने सैम मानेकशॉ के क़दमों में अपनी पगड़ी रख दी!

फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ, जो रक्षामंत्री की बोलती बंद कर सकते थे. जानिए उनसे जुड़े कुछ दिलचस्प क़िस्से.

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सैम मानेकशॉ भारत के पहले फील्ड मार्शल थे (तस्वीर: getty)

सैम होरमुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ. ये तो था पूरा नाम. लेकिन उनकी पलटन उन्हें प्यार से सैम बहादुर कहती थी. दोस्तों के लिए वो सैम थे. और वो ख़ुद अपने क़रीबी लोगों को स्वीटहार्ट कहकर बुलाते थे. फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ. भारत का पहला फ़ील्ड मार्शल जिसने ब्रिटिश फ़ौज में भी काम किया और आज़ादी के बाद आर्मी के सर्वोच्च पद तक पहुंचे. उनके ओहदे का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान ने भी उन्हें अपनी सेना में आने का ऑफ़र दिया था. तीन अप्रैल 1914 को अमृतसर में जन्मे मानेकशॉ अपनी ज़िंदादिली, बहादुरी और सेंस ऑफ ह्यूमर के लिए जाने जाते थे.

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पार्ट टाइम कमांडर 

फ़ौज का एक जनरल रक्षा मंत्री से तुर्की-ब-तुर्की बहस करे ये आम तौर पर मुमकिन नहीं होता. लेकिन सैम मानेकशॉ का जलवा अलग ही था. उन्हें सीधी-सपाट बात करने के लिए जाना जाता था. एक बार जब वो जम्मू डिविज़न की कमान संभाल रहे थे, रक्षामंत्री वीके मेनन वहां दौरा करने पहुंचे. बातचीत के दौरान रक्षामंत्री ने मानेकशॉ से आर्मी चीफ़ जनरल के एस थिमैया के बारे में उनकी राय पूछी. मानेकशॉ ने जवाब दिया - मुझे अपने चीफ़ के बारे में राय बनाने की इजाज़त नहीं है. आप एक जनरल से पूछ रहे हैं कि आर्मी चीफ़ के बारे में क्या राय है. कल आप मेरे जूनियर से मेरे बारे में यही सवाल करेंगे तो इससे तो सेना का पूरा डिसिप्लिन ही बिगड़ जाएगा.

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1971 युद्ध  दौरान सैनिक को हौंसला देते सैम मानेकशॉ (तस्वीर: PTI)

ऐसा कड़क जवाब सिर्फ़ मानेकशॉ ही दे सकते थे. पूर्व आर्मी चीफ़ जनरल वीके सिंह ने अपनी किताब, लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी : बायो ग्राफीज़ ऑफ़ 12 सोल्जर्स में ये क़िस्सा बयान किया है. साल था 1957. ज़ाहिर सी बात है कि रक्षामंत्री मेनन जनरल मानेकशॉ के तरीक़े से थोड़ा चिढ़ गए. उन्होंने कहा,'अँग्रेज़ों वाली सोच बदलो. मैं चाहूं तो थिमैया को हटा भी सकता हूं'. मानेकशॉ  ने तपाक से जवाब दिया -'आप उन्हें बेशक हटा सकते हैं. लेकिन उनके बदले जो अगला चीफ आएगा, उनके बारे में भी मेरा यही जवाब होगा'. इसके बाद मेनन बिना कुछ कहे वहां से चले गए.

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मानेकशॉ की पलटन गोरखा रेजिमेंट थी जहां ज़्यादातर लोगों के नाम के साथ बहादुर लगा होता है. गोरखा रेजिमेंट में मानेकशॉ इतने लोकप्रिय थे कि उनको सब सैम बहादुर बुलाते थे.

जम्मू में तैनाती के दौरान ही एक और दिलचस्प वाकया हुआ. सैम बहादुर की आदत थी, हर दोपहर वो अधिकारियों के रहने-खाने के इंतज़ाम का मुआयना करने जाते थे. एक रोज़ ऐसे ही एक दौरे पर उन्हें रास्ते पर एक जवान दिखाई दिया. जो अपनी यूनिट की तरफ लौट रहा था. उसके पास तीन बैग थे. जिन्हें उठाने में दिक्कत आ रही थी. मानेकशॉ ने ये देखा और मदद के लिए आगे आए. इसके बाद उन्होंने जवान का बैग उठाकर मेस तक पहुंचाया. जैसे ही दोनों मेस तक पहुंचे, सब लोग खड़े होकर सैल्यूट करने लगे. जवान को समझ नहीं आया कि वो लोग किसे सैल्यूट कर रहे हैं. उन्होंने मानेकशॉ की तरफ पलटकर पूछा, आप कौन हैं? इस पर मानेकशॉ ने जवाब दिया, 'मैं यहां लोगों की मदद के लिए मंडराता रहता हूं. इसके बाद जो खाली समय मिलता है उसमें डिवीजन की कमान संभालता हूं'.

मानेकशॉ की कार

रॉ य बुकर नाम के एक आर्मी चीफ हुआ करते थे. बुकर वो आख़िरी ब्रिटिश जनरल थे, जिन्होंने इंडियन आर्मी चीफ का पद संभाला था. एक बार मानेकशॉ उनके साथ कार में यात्रा कर रहे थे. कार का नाम था 'ऑस्टिन प्रिंसेज़'. ये एक लक्जरी कार थी जिसकी सीट के कवर चमड़े से बने हुए थे. मानेकशॉ को पहली बार इस कार में बैठने का मौका मिला था. कार की तारीफ़ करते हुए वो बोले, ‘काश कभी मेरे पास भी ऐसी ही गाड़ी हो’. जनरल बुकर ने हंसते हुए कहा, 'सैम सेना की नौकरी में रहते हुए तो शायद ये संभव नहीं होगा'.

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इसके लगभग डेढ़ दशक बाद एक रोज़ बुकर के पास एक खत आया. इसे मानेकशॉ ने भेजा था. लिखा था, 'आपकी गाड़ी अब मेरे पास है'. दरअसल जब मानेकशॉ पूर्वी कमान के कमांडर नियुक्त हुए. सेना मुख्यालय में रखी हुई ऑस्टिन प्रिंसेज़ मानेकशॉ को दे दी गई. बाकायदा उसे नए सिल्वर ग्रे रंग में रंगवाया गया और मानेकशॉ उसे स्टाफ कार की तरह इस्तेमाल करने लगे. कलकत्ता की सड़कों पर जब ये दौड़ती तो हर कोई उसे मानेकशॉ की कार के नाम से बुलाता. सड़क पर चल रहे लोग उसकी तरफ हाथ हिलाते. और ट्रैफिक पुलिस तो बाकी गाड़ियों को रोक देते, ताकि मानेकशॉ की कार आगे जा सके.

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मानेकशॉ की ऑस्टिन शीरलाइन गाड़ी (तस्वीर:  Parzor Foundation Archives)

बाद में जब मानेकशॉ आर्मी चीफ बने. उन्होंने इसे अपने साथ ले जाने से इंकार कर दिया. ये कहते हुए कि अगर ये कार दिल्ली गई तो सबकी आंखों में कांटे की तरह चुभेगी. आगे जब भी मानेकशॉ कलकत्ता आए, हर बार यही गाड़ी उनके स्वागत के लिए भेजी जाती रही.

मानेकशॉ का जोक और ऑफिसर की मुसीबत

एक बार मानेकशॉ मिजोरम के दौरे पर थे. उन दिनों वहाँ तार-टेलीफ़ोन ख़स्ता हाल में थे. मानेकशॉ ने वजह पूछी तो जवाब मिला कि टेलीग्राफ डिपार्टमेंट में एक फोन के लिए अर्जी दी गई है. लेकिन चूंकि दूरी बहुत ज्यादा है, इसलिए फोन लाइन आने में 4-5 साल लग जाएंगे.

मानेकशॉ को ये मंजूर नहीं था. उन्होंने अपने अफसरों से पूछा, क्या हम ये खुद नहीं कर सकते. जवाब मिला कि टेलीग्राफ एक्ट के तहत केवल डिपार्टमेंट ही फोन लाइन लगा सकता है. और आर्मी को उन्ही से मदद लेनी होगी. ये पूरी बातचीत अफसर मेस में हो रही थी. मानेकशॉ के हाथ में बियर का गिलास था. उन्होंने ब्रिगेडियर से कहलवाकर सिगनल अफसर को बुलावा भेजा. उसके आते ही मानेकशॉ ने उससे पूछा 'टेलीफोन लाइन डालने में कितना वक्त लगेगा?'
अफसर ने जवाब दिया, 'दो महीने, बशर्ते हमें सामान मिल जाए'
सामान कहां से मिलेगा, मानेकशॉ का अगला सवाल था. 
इस पर जवाब मिला, सिल्चर में. 
मानेकशॉ ने लगभग आर्डर देते हुए कहा, 'तो जाओ ले लाओ लेकिन पकड़े मत जाना'.

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1957 में रक्षा मंत्री थे  VK कृष्ण मैंनन/मेजर जनरल शुभी सूद मानेकशॉ के सहायक थे (तस्वीर: Wikimedia Commons ) 

बेचारे सिग्नल अफसर को पता नहीं था कि मानेकशॉ मजाक में कह रहे हैं. वो लारी वॉरी लेकर हुक्म की तामील करने सिल्चर पहुंच गया. वहां टेलीग्राफ डिपार्टमेंट वाले अड़ गए. ये नियम के खिलाफ था. लेकिन अफसर को तो मानेकशॉ का हुक्म मानना था. उसने स्टोर से सामान तो उठाया ही, स्टोर मैनेजर को भी जबरदस्ती अपने साथ ले आया. एक हफ्ते बाद उसकी रिहाई हुई. उधर टेलीग्राफ डिपार्टमेंट ने इस बात का हल्ला काट दिया. उन्होंने मंत्रालय से शिकायत की मामला आर्मी हेडक्वार्टर पहुंचा. मामले की तहकीकात हुई तो तलवार बेचारे सिग्नल अफसर पर लटक गई. मानेकशॉ अब तक इस किस्से को भूल चुके थे. लेकिन जैसे ही उन्हें पूरे घटनाक्रम का पता चला उन्होंने आर्मी चीफ को खत लिखा. और पूरे मामले की जिम्मेदारी अपने कंधो पर ले ली. इस दिलचस्प वाक़ये को दर्ज किया है  मेजर जनरल शुभी सूद ने मानेकशॉ पर लिखी अपनी किताब में. फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ नाम की ये किताब प्रभात प्रकाशन ने छापी है.  

पाकिस्तानी ने मानेकशॉ के क़दमों में पगड़ी रख दी 

1971 युद्ध के ख़त्म होने के बाद पाकिस्तान के हजारों युद्धबंदियों को भारत लाया गया. और उनके लिए बंदी शिविर बनाए गए. मानेकशॉ सभी शिविरों में जाते और युद्धबंदियों से मुलाकात करते. और उनसे पूछते कि क्या उन्हें कोई दिक्कत तो नहीं है'. युद्धबंदियों में एक पाकिस्तानी कर्नल भी था. उसने मानेकशॉ से कहा, 'सर अगर आप एक कुरान की एक प्रति दिलवा दें तो बड़ी मेहरबानी होगी'. मानेकशॉ ने राजपूताना राइफल्स केंद्र में एक आदमी भिजवाया. वहां एक मुस्लिम टुकड़ी थी. उनसे कुरान लेकर मानेकशॉ ने शाम होने से पहले ही पाक कर्नल तक पंहुचा दी.

उनके व्यवहार को देखकर एक पाकिस्तानी कर्नल बहुत प्रवभावित हुए. और उनसे बोले 'मैंने आपके बारे में बहुत सुना है. मुझे अफ़सोस है कि आप मेरे कमांडर नहीं है.' एक दूसरे मौके पर मानेकशॉ ने जब एक पाकिस्तानी जवान के कंधे पर हाथ रखकर उसका हालचाल पूछा, तो वो लगभग रोते हुए बोला, 'अपनी सेना के जनरलों को तो हम बस दूर से देख सकते थे. वो कभी सैनिकों से इस तरह रूबरू होकर बात नहीं करते थे.'

इन युद्धबंदियों को लेकर पाकिस्तान में काफ़ी दुष्प्रचार चलता था. कि भारत में उन्हें खाना भी नहीं दिया जाता. ऐसे में एक रोज़ मानेकशॉ के साथ एक घटना हुई. जिसने इस झूठ की पोल खोल दी. हुआ यूं कि लाहौर में आर्मी चीफ्स की मीटिंग हुई. इसमें हिंदुस्तान से जनरल मानेकशॉ को भी आमंत्रित किया गया. पाकिस्तानी फ़ौज ने लाहौर गवर्नर हाउस में भोजन का आयोजन किया था. भोजन के बाद मानेकशॉ को बताया गया कि गवर्नर हाउस के कर्मचारी उनसे मिलना चाहते हैं. मानेकशॉ मिलने पहुंचे तो एक पाकिस्तानी कर्मचारी ने अपना साफा उतार कर सैम के कदमों में रख दिया. जब उन्होंने इस कारण पूछा तो उस आदमी ने जवाब दिया, 'सर मेरे पांच लड़के आपकी कैद में हैं. वो मुझे खत लिखते हैं. उन्होंने लिखा कि आपने उन्हें कुरान दी. उन्हें चारपाई मिली है जबकि आपके सैनिक जमीन पर सोते हैं. अब मैं किसी पे विश्वास नहीं करता जो कहते हैं कि हिन्दू खराब होते हैं'.

शर्त में हारी व्हिस्की की बोतल

तीन अप्रैल 1972 की तारीख. मानेकशॉ 58 की उम्र के हो चुके थे. यानी नियम के अनुसार उनकी रिटायरमेंट की उम्र हो चुकी थी. इस तारीख से कुछ रोज़ पहले प्रधानमंत्री इंदिरा ने उन्हें मुलाक़ात के लिए बुलाया. इंदिरा से मुलाकात के लिए जा रही उस कार में मानेकशॉ अकेले नहीं थे, उनके साथ थे मेजर जनरल शुभी सूद, उनके सहायक या जिसे ऐड-डि-कैम्‍प कहा जाता है. मानेकशॉ ने उनसे पूछा, 'क्या लगता है, मीटिंग में क्या होने वाला है? '. शुभी ने जवाब दिया, मुझे लगता है वो आपका कार्यकाल बढ़ा देंगे. मानेकशॉ का जवाब आया, इतने यकीन से बोल रहे हो. देर रात की ये मुलाक़ात अक्सर लोगों को नौकरी से निकालने के लिए होती है. इसके बाद दोनों के बीच एक बोतल स्कॉच की शर्त लगी. मानेकशॉ बोले, 'लेकिन याद रखना, आर्मी चीफ केवल अच्छी स्कॉच पीते हैं '

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मेजर जनरल शुभी सूद कैप्टन विक्रम बत्रा सहित कई आर्मी हीरोज़ पर किताबें लिख चुके हैं (तस्वीर: प्रभात प्रकाशन)

अब शुभी की बारी थी, वे तपाक से बोले, 'मैं जीता तो आपको भी मुझे अच्छी बोतल देनी होगी '

इसके बाद सैम और इंदिरा की मुलाकात हुई. अगली सुबह तड़के साढ़े पांच बजे शुभी के पास एक अर्दली आया. उसके हाथ में एक महंगी स्कॉच की बोतल थी. साथ में था एक नोट, जिसमें लिखा था, 'शुभी के लिए, जो बच गया और मुझे इसकी कीमत इस बोतल से चुकानी पड़ी.' मतलब था कि मानेकशॉ सेना अध्यक्ष बने रहने वाले थे.

जनरल शुभी ने इसी किताब में एक और किस्सा बयान किया है. सेनाध्यक्ष का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद मानेकशॉ प्राइवेट सेक्टर में काम करने लगे थे. एक बार एक बड़ी  कम्पनी की फ़ाइल किसी सरकारी ऑफिस में फंस गई. मंत्री जी हस्ताक्षर करने के लिए 2 करोड़ मांग रहे थे. जब काम नहीं बना तो कंपनी के बोर्ड ने मानेकशॉ से मध्यस्थता के लिए कहा. मानेकशॉ मंत्री से मिलने पहुंच गए. मंत्री ने आनाकानी की कोशिश की. तो मानकेशॉ तो धमकी देते हुए कहा कि यदि अभी हस्ताक्षर नहीं हुए तो वो बाहर जाकर प्रेस को बता देंगे कि मंत्री 2 करोड़ मांग रहे है. मंत्री ने तुरंत हस्ताक्षर कर दिए. मानेकशॉ ऑफिस से बाहर निकले तो मंत्री के सचिव ने उनसे कहा, 'शुक्रिया सर, ये काम सिर्फ आप ही कर सकते थे.'

मानेकशॉ भारत के पहले फील्ड मार्शल थे. उनके अलावा एक और सेनाध्यक्ष फील्ड मार्शल बने थे, KM करियप्पा. करियप्पा सीनियर थे लेकिन फील्ड मार्शल का पद उन्हें 1986 में दिया गया. जबकि मानेकशॉ को ये ओहदा 1973 में ही मिल गया था. करियप्पा को जब फील्ड मार्शल बनाया गया तो शुरुआत में इसे मानद उपाधि लिखा जाता था इस पर मानेकशॉ ने कहा,'फील्डमार्शल नियुक्त नहीं होते बल्कि क्रिएट किए जाते हैं'. जो क्रिएट किया जाता है वो मानद नहीं हो सकता. अंत में सरकार ने मानद शब्द हटा लिया. 

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