गाना सुना होगा आपने, “आसमान है नीला क्यों, पानी गीला गीला क्यों”
साइंस में भारत का पहला नोबेल क्यों बना कंट्रोवर्सी की वजह?
साल 1930 में फिजिक्स का नोबल पुरस्कार CV रमन को रमन इफ़ेक्ट की खोज के लिए मिला था.

अगर हम कहें कि जावेद अख्तर साहब ने इसकी पहली लाइन एक मैथमेटिशियन से चुराई है. तो शायद आपको बात मजाकिया लगे. लग रही है तो ठीक है. बात मजाकिया ही है. लेकिन सवाल सीरियस है. और इस सवाल का जवाब देने का श्रेय जाता है एक मैथमेटिशियन को. लार्ड रेली नाम एक ब्रिटिश गणीतिज्ञ ने बताया था कि प्रकाश वायुमंडल में मौजूद अणुओं से टूटकर बिखरता है. चूंकि नीले रंग की रौशनी की वेवलेंथ सबसे कम होती है, इसलिए नीली रौशनी का बिखराव सबसे अधिक होता है.
रेली साहब ने कमाल का जवाब दिया था. शाबाशी भी मिली. लेकिन एक जगह फिर अति आत्मविश्वास में गलती कर बैठे. किसी ने पूछ दिया, रेली साहब, ये समुन्द्र का रंग नीला क्यों होता है. रेली ने कहा, आसमान की छाया पड़ती है पानी में, इसलिए नीला लगता है.
एक भारतीय वैज्ञानिक को ये बात जमी नहीं. उन्होंने अपना दिमाग लगाया. और ऐसा लगाया कि 1930 में फिजिक्स के क्षेत्र में एशिया का पहला नोबल लेकर आ गए. जैसा कि आपने गैस कर ही लिया होगा हम बात कर रहे हैं रमन इफेक्ट की खोज करने वाले CV रमन की.
आज 14 जून है और आज ही के दिन साल 1958 में CV रमन को लेलिन पीस प्राइज़ से सम्मानित किया गया था. इसके अलावा आज की तारीख का संबंध एक और वैज्ञानिक से है, डॉक्टर KS कृष्णन. आज ही के दिन यानी 14 जून 1961 को डॉक्टर कृष्णन का निधन हो गया था. वो नेशनल फिजिक्स लैब, दिल्ली के पहले डायरेक्टर थे.
इत्तेफाक की बात ये कि ये दोनों वैज्ञानिक सहयोगी थे. दोनों ने मिलकर रमन इफ़ेक्ट की खोज की थी. फिर नोबल सिर्फ CV रमन को क्यों मिला? इसी से जुड़ी है हमारी आज की कहानी. साथ ही समझेंगे कि ये रमन इफ़ेक्ट आखिर है क्या और ऐसा क्या था इसमें कि नोबेल दे दिया गया?
बात विज्ञान की है. लेकिन शुरुआत के लिए थोड़ा माइथोलॉजी पर चलते हैं.
बाइबल की मानें तो ये दुनिया बनाने में ईश्वर को 7 दिन लगे. पहले दिन उसने कहा, रौशनी हो. और रौशनी हो गयी. फिर जानवर बने, सब कुछ बनते-बनते सातवें दिन इंसान बना. लेकिन इंसान इस कदर नामाकूल औलाद निकला कि उसने ईश्वर के अस्तित्व पे ही सवाल खड़े कर दिए.

शुरुआत रौशनी से हुई थी, सो पहले उसी का तियां पांचा किया गया. आदमी ने रिफ्लेक्शन का पता लगाया. जिसकी वजह से आदमी खुद को शीशे में देख पाता है. फिर पता चला रिफ़्रैक्शन नाम भी एक चिड़िया होती है. और इसकी वजह से पानी में पेन्सिल डालो तो टेढ़ी दिखाई देने लगती है. 1678 में एक डच वैज्ञानिक क्रिश्चियन हिगिंस ने कहा, इसका कारण ये है कि प्रकाश एक वेव यानी लहर है. इसलिए चीजों से टकराकर बिखर जाती है.
धरती पर ये सब चल ही रहा था कि ऊपर ईश्वर परेशान हुआ कि ये तो मेरी ही खटिया खड़ी करने में लगे हैं. फिर ईश्वर ने एक षड्यंत्र रचा. 1905 में बाबा आइंस्टीन एक एक्सपेरिमेंट कर रहे थे. एक्स्पेरिमेंट पूरा हुआ तो भागे-भागे आए और बोले, अरे, लाइट वेव तो है ही लेकिन साथ ही पार्टिकल यानी कण भी है.
फिर लाइट के ड्यूल नेचर की खोज हुई. लाइट की स्पीड का पता चला. रिलेटिविटी की खोज हुई. इतना सब कुछ हुआ लेकिन एक सवाल का जवाब नहीं मिला. ये पानी का रंग गिलास में तो रंगहीन होता है. लेकिन समंदर में नीला क्यों हो जाता है?
रेली इसे आसमान की परछाई बता रहे थे. लेकिन एक शख्स था जो इस जवाब से संतुष्ट नहीं था. CV रमन भारत में ध्वनि के विकिरण पर काम कर रहे थे. 1921 में उन्होंने लन्दन का दौरा किया. वहां से वो SS नरकुण्डा नाम के जहाज से लौट रहे थे. इस यात्रा के दौरान कुछ ऐसा हुआ कि रमन भी ऑप्टिक्स के फील्ड में कूद गए. 15 दिन की यात्रा के दौरान पहली बार उनके मन में ये सवाल उपजा कि समंदर का रंग नीला क्यों होता है. इस सवाल का जवाब ढूंढते-ढूंढते उन्होंने रमन इफेक्ट की खोज कर डाली. क्या होता है रमन इफेक्ट? ये जानने से पहले एक कॉन्ट्रोवर्सी के बारे में जानिए जो इस खोज ने पैदा कर दी थी.
CV रमन ने डायरेक्टर के पद से इस्तीफ़ा दियासाल 1930 में जैसे ही रमन के नाम नोबेल की घोषणा हुई. साइंटिफिक कम्युनिटी में हल्के स्वरों में एक सवाल उठने लगा. नोबल अकेले रमन को क्यों मिला? दरअसल रमन इफ़ेक्ट को सबसे पहली बार जिसने ऑब्ज़र्व किया था, वो रमन नहीं थे, बल्कि उनके स्टूडेंट और असोशिएट डॉक्टर KS कृष्णन थे. लेकिन चूंकि नोबल पुरुस्कार में उनका नाम सम्मिलित नहीं था. इसलिए कई लोगों ने कहना शुरू किया कि रमन ने अपने छात्र को श्रेय नहीं दिया. इस कंट्रोवर्सी पर परदा पड़ने में 22 साल और लगे.

1932 में रमन को IISc बंगलुरु का डायरेक्टर बनाया गया. इससे पहले रमन कोलकाता में काम कर रहे थे. IISc में रमन को विशेष रूप से फिजिक्स डिपार्टमेंट सेटअप करने के लिए भेजा गया था. ये वो दौर था जब जर्मनी में नाजीवाद दिन पर दिन फैलता जा रहा था. यहूदी वैज्ञानिक जर्मनी से भागने की फिराक में थे. आइंस्टीन ने भी इसी दौर में अमेरिका की शरण ली. CV रमन एक ऐसे ही वैज्ञानिक, मैक्स बॉर्न को भारत लाने की कोशिश कर रहे थे. ताकि उन्हें फिजिक्स का चेयर बनाया जा सके.
ये बात राष्ट्रवादियों को अच्छी नहीं लगी. मैक्स बॉर्न मार्के के वैज्ञानिक थे. जर्मनी से भागे कई वैज्ञानिकों ने अमेरिका जैसे देशों को आसमान पर पहुंचाया. लेकिन भारतीय राष्ट्रवादियों को ये मंजूर नहीं था कि एक विदेशी को उनके ऊपर वरीयता मिले. बात इतनी बड़ी कि रमन की कार्यशैली पर और सवाल उठने लगे. 1936 में उन पर इन्क्वायरी बैठी. और 1937 में उन्हें IISc डायरेक्टर के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा.
1940 में उन्होंने बंगलुरु में एक पार्टिकल एक्सेलरेटर बनाने का प्रस्ताव रखा. लेकिन इसे भी ख़ारिज कर दिया गया. कमाल की बात है कि प्रस्ताव को खारिज करने वाली रिपोर्ट के को-ऑथर डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा थे. हां, वैज्ञानिक भी होते तो इंसान ही हैं. आजादी मिलने से कुछ पहले रमन प्रोफ़ेसर के पद से रिटायर हो गए. आजाद भारत की पहली सरकार ने उन्हें नेशनल प्रोफ़ेसर की उपाधि दी. यानी ताउम्र उन्हें प्रोफ़ेसर की तनख्वाह मिलती रही. लेकिन रमन इतने से खुश नहीं थे.
हर चमकती चीज सोना नहीं होतीनेहरू एप्लाइड फिजिक्स की बात किया करते थे. उनका कहना था कि वैज्ञानिकों को अपने हाथी दांत की मीनारों से उतरकर आम लोगों की परेशानी से राब्ता करना चाहिए.
जबकि रमन मानते थे कि फंडामेंटल फिजिक्स असली चीज है. उस दौर में सरकार ने एप्लाइड साइंस में काम करने के लिए कई CSIR (कॉउन्सिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च लैबोरेट्रीज) लैब्स को खूब फंड दिया. जबकि यूनिवर्सिटीज में रिसर्च को कम फंड मिलता था. रमन इससे बहुत खफा थे. CSIR में प्रैक्टिकल एप्लाइड साइंस पर काम होता था, जबकि यूनिवर्सिटी फंडामेंटल शोध के लिए उपयुक्त मानी जाती थीं.

CSIR के पहले डायरेक्टर थे, शांति स्वरूप भटनागर. 1950 के दशक में खुल रही CSIR लैब्स को रमन ने “नेहरू-भटनागर इफ़ेक्ट” का नाम दिया. और भविष्यवाणी कर दी कि इन लैब्स से सिर्फ पैसा बर्बाद होगा और कुछ नहीं. इतना ही नहीं ये भी कहा कि जैसे शाह जहां ने अपनी पत्नी को दफनाने के लिए ताजमहल बनाया था. भटनागर ने CSIR लैब्स बनाकर उनमें साइंटिफिक उपकरणों को दफना दिया था. अब इत्तेफाक कहिये या जो,1937 में रमन के ऊपर जो इन्क्वायरी बैठी थी, उस कमिटी के एक सदस्य भटनागर भी थे. CV रमन प्रधानमंत्री से भी कम नाराज नहीं थे. किस्सा सुनिए,
एक बार नेहरु रमन की लैब में विज़िट पर पहुंचे. वहां तांबे पर UV लाइट डालकर एक्स्पेरिमेंट किया जा रहा था. नेहरु को चमकता हुआ तांबा सोने जैसा दिखा, और उन्होंने सबके सामने ये कह भी दिया. तब रमन ने मानो तंज़ कसते हुए कहा, “प्रधानमंत्री जी, हर चमकती चीज सोना नहीं होती”
इन दशकों के दौरान नोबल पुरस्कार वाली बात को रमन के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया. कभी दबी छुपी जबान में तो, कभी रमन के खिलाफ माहौल बनाने के लिए. असलियत क्या थी. इसका खुलासा खुद KS कृष्णन ने किया. IISC के डायरेक्टर रहे एस. रामशेषन इस बाबत एक किस्सा बताते हैं.

साल 1953 की बात है. कृष्णन नेशनल फिजिल्स लैब, दिल्ली में काम कर रहे थे.. एक रोज़ रामशेषन यही सवाल लेकर डॉक्टर कृष्णन से मिलाने पहुंचते हैं. सवाल वही कि क्या रमन ने उन्हें उनका अपनी खोज का श्रेय नहीं दिया?
रामशेषन के पिता कृष्णन के अच्छे दोस्त थे.दोनों में पुरानी पहचान थी. रामशेषन के इस सवाल पर कृष्णन मुस्कुराए. उन्होंने जवाब दिया, ज्यादा से ज्यादा मैं यही कह सकता हूँ कि मैंने खोज में सक्रिय रूप से भाग लिया था.
इसके बाद कृष्णन रामशेषन से कुछ देर ठहरने को कहते हैं. और फिर एक डायरी निकाल कर लाते हैं. जिसमें उन्होंने रमन इफ़ेक्ट की खोज से जुड़ा पूरा घटनाक्रम लिखा था. साल 1927. फरवरी के शुरुआती दिनों की बात है. कृष्णन लिखते कि एक दिन प्रोफ़ेसर रमन उनके कमरे में आए और बोले, “पिछले दो-तीन सालों से तुमने खुद को थिओरिटिकल स्टडीज में झोंक रखा है. मैं तुम्हे इससे बाहर निकालना चाहता हूं. मुझे लगता है एक वैज्ञानिक को एक्सपेरिमेंट से बहुत दिनों तक दूर नहीं रहना चाहिए”
रमन इफ़ेक्ट की खोजसाल 1928 में CV रमन सहयोगी ने एक एक्सपेरिमेंट के दौरान पाया कि ग्लिसरीन पर रौशनी डालो तो ‘वीक फ्लूरोसेंस’ (असल में ये फ्लूरोसेंस नहीं था, लेकिन तब पता नहीं था क्या है, तो वीक फ्लूरोसेंस का नाम दिया गया) जैसा कुछ दिखाई देता है. अपने AC रिमोट के बटन में आप फ्लूरोसेंस का फिनोमिना देख सकते हैं. या रोड ओर बने वो निशान जो रात को चमकते हैं. कुछ पदार्थ तेज़ रौशनी को सोख कर, अंधेरे में उसका विकिरण करते हैं. यही फ्लूरोसेंस है.

लेकिन रमन को शक था कि ये फ्लूरोसेंस न होकर कुछ और फिनोमिना था. लिक्विड यानी तरल पदार्थों में फ्लूरोसेंस होना, बिलकुल नई घटना थी. और इसका क्या कारण था, इसको लेकर भी दुनिया में कोई थियोरी भी नहीं थी.
आम तौर पर एक पदार्थ पर रौशनी मारो तो वो टकराकर अलग-अलग दिशा में फ़ैलती है. और कौन कितना फैलेगी ये रौशनी के वेवलेंथ पर निर्भर करता है. जितनी कम वेव लेंथ, उतना फैला. इसी को रेली स्कैटरिंग कहते हैं. जिसके बारे में हमने आपको शुरू में बताया था. लेकिन इस एक्सप्लनेशन के हिसाब से रमन के एक्सपेरिमेंट्स में जो फ्लूरोसेंस दिखाई दे रहा था, वो वहां नहीं होना चाहिए था.
रमन ने KS कृष्णन से इस पर काम करने को कहा. अगले एक साल तक KS कृष्णन ने 60 के आसपास ऑर्गनिक लिक्विड्स पर एक्सपेरिमेंट किया और पाया कि उन सभी में वीक फ्लूरोसेंस दिख रहा है. उन्होंने ये सारी फाइंडिंग प्रोफ़ेसर रमन के आगे पेश की.
कृष्णन बताते हैं कि 28 फरवरी का दिन था. जब एक एक्सपेरीमेंट के दौरान रमन की चीख निकल पड़ी. उनकी आंखो को एक नया रंग दिखाई दे रहा था. रमन इफ़ेक्ट की खोज हो चुकी थी.
क्या होता है रमन इफ़ेक्ट?ऐसे समझिए कि किसी पदार्थ पर लाइट डाली जाती है. जैसे कि हमने थोड़ी देर पहले ही जाना, अलग-अलग वेवलेंथ की रौशनी पड़ेगी तो अलग-अलग रिफ्लेक्शन होगा. इसलिए इस काम के लिए लेजर या सोडियम लाइट का उपयोग किया जाता है. ताकि मोनोक्रोमेटिक यानी एक ही वेवलेंथ की लाइट मिले.

स्क्रीन पर दिए चित्र से आप समझ सकते हैं कि क्या होगा. रौशनी पदार्थ से टकराकर फैलेगी. अब होना तो ये चाहिए कि जो रौशनी टकराकर फ़ैली है उसकी वेवलेंग्थ भी वही होनी चाहिए जो ओरिजिनल लाइट की है. ऐसा होता भी है. लेकिन पूरी तरह से नहीं. कुछ रौशनी ऐसी भी होती है जो पदार्थ से टकराकर वेवलेंग्थ बदल लेती है. ये ही रमन इफ़ेक्ट है.
अब ऐसा होता क्यों है? ये सब इसलिए होता है क्योंकि पदार्थ के केमिकल बांड मॉलिक्यूल आदि से जब लाइट टकराती है या कहें कि फोटोन टकराते हैं तो उनकी वेवलेंथ में अंतर आता है. ऐसा लाखों में से सिर्फ कुछ ही फोटोन्स के साथ होता है. इसलिए CV रमन ने शुरुआत में इसे वीक फ्लूरोसेंस का नाम दिया था.
ये खोज स्पेक्ट्रोस्कोपी की दुनिया में क्रांति लाने वाली थी. स्पेक्ट्रोस्कोपी यानी किसी पदार्थ के एनालिसिस का तरीक. वो क्या है , किससे बना है, घनत्व कितना है, कितना पुराना है, आदि बातें स्पेक्ट्रोस्कोपी से पता लगाई जाती हैं. ठोस पदार्थों के लोए इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोस्कोपी का उपयोग अधिकतर किया जाता है. लेकिन तरल पदार्थों के लिए रमन इफ़ेक्ट बड़े काम का साबित होता है.
बहरहाल कृष्णन ने जो बताया उससे पता चलता है कि रमन इफेक्ट को लेकर रमन 1921 से शोध कर रहे थे. और जो कुछ हो रहा था उनके इशारे पर हो रहा था. कृष्णन ने भी आखिर में माना कि अपनी स्पीच में रमन ने उन्हें और बाकी लोगों को पूरा श्रेय दिया था. लेकिन खोज के लिए नोबेल का श्रेय सिर्फ उन्हीं का था.
तारीख: द्वितीय विश्व युद्ध के सबसे शातिर जासूस की कहानी