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असेंबली में बम फेंकने से पहले भगत सिंह अपने जूते क्यों बदल रहे थे?

८ अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली सेंट्रल असेंबली में बम फेंके और ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ नारे लगाए. इस घटना से पहले क्रांतिकारियों ने तैयारी की. बम बनाए. भगत सिंह और बटुकेश्वर दो दिन पहले असेंबली पहुंचे और वहां रेंकी की. बाद में दोनों को पकड़ लिया गया. भगत सिंह को फांसी की सजा मिली. वहीं बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की जेल में उम्र क़ैद की सजा मिली. आजादी के बाद बटुकेश्वर दत्त को अपने दिन मुफ़लिसी में गुज़ारने पड़े और अंत में बीमारी के चलते उनकी मृत्यु हो गई.

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भगत सिंह ने दिल्ली असेंबली में बम फेंकने से पहले अपने साथी जयदेव कपूर के साथ अपने जूते बदल लिए थे (तस्वीर: Supreme Court of India)

उस रोज़ घड़ी में दोपहर के साढ़े बारह बज रहे थे. जब विठलभाई पटेल, ट्रेड डिस्प्यूट बिल पर हुई वोटिंग का रिजल्ट बताने के लिए खड़े हुए. विठलभाई पटेल, वल्लभ भाई पटेल के बड़े भाई और सेंट्रल असेंब्ली के अध्यक्ष थे, आज के हिसाब से स्पीकर. उस दिन सदन में दो बिलों पर वोटिंग होनी थी. ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल. लेकिन इससे पहले की अध्यक्ष वोटिंग का रिजल्ट बताते. असेम्ब्ली के बीचों-बीच खाली जगह पर दो बम आकर गिरे. जोर का धमाका हुआ और सदन में अफरा-तफरी मच गयी. इसके बाद नारों की आवाज सुनाई देने लगी. इंकलाब जिंदाबाद, डाउन विद द ब्रिटिश इम्पीरिअलिस्म, (ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अंत हो).

साथ में उछले कुछ पर्चे. गुलाबी रंग के. ये HSRA के पर्चे थे. जिनमें लिखा था, “बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरुरत होती है”. जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन हुआ.

बम धमाके की तैयारी

फिरोजशाह कोटला में भगत सिंह (Bhagat Singh) ने अपने साथियों को एक ख़ास सन्देश दिया, “हजार पैम्फलेट की बजाय एक अकेले एक्शन से कहीं ज्यादा ताकतवर प्रोपोगेंडा बनाया जा सकता है”. वो जल्द से जल्द संगठन का सन्देश आम लोगों और युवाओं तक पहुंचाना चाहते थे. और इसके लिए जरूरी था एक बड़ा एक्शन. ताकि उनकी बात पूरे भारत तक पहुंचे. लाला लाजपत राय की हत्या के लिए HSRA ने सांडर्स की हत्या से बदला लिया. लेकिन इस घटना ने उन्हें नकारात्मक प्रचार ही ज्यादा मिला. आम लोग अभी भी HSRA और क्रांति के दर्शन से दूर थे.

दिल्ली असेंबली में फेंके गए पैंफलेट और बटुकेश्वर दत्त (तस्वीर: Wikimedia Commons)

इसलिए तय हुआ कि एक जोरदार धमाके से कम में बात नहीं बनेगी. और धमाका भी ऐसी जगह करना था, जहां से बात ब्रिटिश हुकूमत तक भी पहुंचे और लोगों तक भी. HSRA की मीटिंग हुई. कोलकाता से जतिन दा को बुलावा भेजा गया. अब बारी थी जगह तय करने की. आगरा में हींग में मंडी के पास एक पुराने मकान की रेकी की गयी. जगह मुफीद थी. फणीन्द्र नाथ घोष और कमल नाथ तिवारी कलकत्ता से केमिकल और बम बनाने का सामान लेकर पहुंचे. काम शुरू हुआ और एक महीने में जतिन दा ने सबको काम सिखा दिया.

झांसी जंगलों में बम टेस्ट किए गए. हींग की मंडी में एक मीटिंग रखी गयी. HSRA के सब मेंबर मौजूद थे. सिवाय सुखदेव (Sukhdev) के. जो उस समय लाहौर में थे. पहले प्लान बना कि साइमन कमीशन को निशाना बनाना चाहिए. लेकिन इतने लम्बे ट्रेवल के लिए पैसे नहीं थे. फिर तय हुआ कि दिल्ली असेम्ब्ली में धमाका किया जाएगा. भगत सिंह ने अपना नाम सामने किया, लेकिन सांडर्स के मामले में पुलिस उनकी तलाश में थी. इसलिए सबने भगत के नाम से इंकार कर दिया. चंद्रशेखर आजाद (Chandrashekhar Azad) HSRA के कमांडर थे. और वो ख़ास तौर पर भगत को भेजे जाने के खिलाफ थे. आख़िर में बटुकेश्वर दत्त (Batukeshwar Dutt) और शिव वर्मा को इस काम के लिए चुना गया.

भगत सिंह और प्रेम

जब सुखदेव को इस बारे में पता चला. तो वो एकदम बिफर पड़े. बोले, भगत को जाना चाहिए. और कोई इस काम को सही से अंजाम दे ही नहीं सकता. भगत से बोले, तू कायर है. एक लड़की के चक्कर में मरने से डर रहा है. इसके बाद भगत सिंह ने सुखदेव को एक चिट्ठी लिखी. इस चिट्ठी में भगत सिंह लिखते हैं

“मैं पूरे जोर से कहता हूं कि मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर हूं. लेकिन जरूरत के वक्त सब कुछ कुर्बान कर सकता हूं और यही वास्तविक बलिदान है. ये चीजें कभी मनुष्य के रास्ते में रुकावट नहीं बन सकतीं, बशर्ते कि वह मनुष्य हो. निकट भविष्य में ही तुम्हें प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाएगा."

अपने चरित्र पर उठे सवाल जे जवाब भगत सिंह ने लिखा,

किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में बातचीत करते हुए एक बात सोचनी चाहिए कि क्या प्यार कभी किसी मनुष्य के लिए सहायक सिद्ध हुआ है? मैं आज इस प्रश्न का उत्तर देता हूं:

“हां, मेजिनी के लिए ऐसा ही था. तुमने जरूर पढ़ा होगा कि वो अपनी पहली विद्रोही असफलता, मन को कुचल डालने वाली हार, मरे हुए साथियों की याद बर्दाश्त नहीं कर सकता था. वह पागल हो जाता या आत्महत्या कर लेता, लेकिन अपनी प्रेमिका के एक ही पत्र से वो किसी भी व्यक्ति से ज्यादा मजबूत हो गया, बल्कि सबसे मजबूत हो गया.”

(यहां भगत सिंह इतालवी क्रांति के नायक और लीडर जोसेप मेजिनी की बात कर रहे हैं.)

भगत सिंह ने जूते क्यों बदले?

इसके बाद भगत ने HSRA की एक और मीटिंग बुलाई. और ज़िद पे अड़ गए कि अब वही जाएंगे. अंत में तय हुआ कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त इस काम को अंजाम देंगे. फरवरी और मार्च में भगत और बटुकेश्वर सीता राम बाज़ार दिल्ली में रहे. अप्रैल के पहले हफ्ते में दोनों नई सड़क के एक घर में शिफ्ट हुए. और यहीं पर रहकर उन्होंने पूरी प्लानिंग की. 6 अप्रैल को दोनों एक बार असेम्बली में गए. ताकि वहां की रेकी कर सकें.

जयदेव कपूर भगत सिंह की घड़ी के साथ (तस्वीर: Supreme court of India)

सात अप्रैल की रात सुखदेव लाहौर से भगवती चरण वोहरा, दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी को लेकर आए. ताकि एक आख़िरी बार वो भगत सिंह से मिल सकें. पुरानी दिल्ली के कुदसिया बाग़ में इन लोगों की मुलाक़ात हुई. वे लोग भगत सिंह के पसंदीदा रसगुल्ले और नारंगी ले कर आए थे. आठ अप्रैल की सुबह भगवती चरण वोहरा और दुर्गा भाभी ने भगत के माथे पर तिलक लगाया. और 10.30 पर भगत सिंह असेम्ब्ली के लिए निकल गए. भगत और बटुकेश्वर दिल्ली असेंबली के भवन तक पहुंचे. साथ में एक तीसरा व्यक्ति भी था, जयदेव कपूर.

गेट में एंटर करने से ठीक पहले भगत बटुकेश्वर से रुकने को कहते हैं. वो अपने हाथ से घड़ी निकालते हैं. और जयदेव को पकड़ा देते हैं. ये कोई आम घड़ी नहीं थी. क्रांति के महान क्षणों की गवाह रही थी. ये घड़ी भगत को शचीन्द्रनाथ सान्याल ने दी थी. जिन्हें ये घड़ी रास बिहारी बोस से मिली थी. भगत नहीं चाहते कि पुलिस इसे अपने कब्ज़े में ले ले.

घड़ी देने के बाद बटुकेश्वर भगत सिंह से कहते हैं, चलो. लेकिन तभी भगत एक और बार ठहर जाते हैं. उनकी नज़र जयदेव के जूतों पर पड़ती है. क्रांति की राह में कांटे हैं. सो जूतों का भी वही हाल हुआ है. भगत अपने जूतों को देखते हैं. एक दम नए. उन्हें ख़ास तौर पर पुलिस की नज़र से बचने के लिए वेशभूषा के तौर पर खरीदा गया है. भगत जयदेव से कहते हैं, जूते बदल लो, ये वैसे भी अब मेरे किसी काम नहीं आने वाले.

बटुकेश्वर दत्त ने बम नहीं फेंका?

इसके बाद दोनों अंदर पहुंचते हैं. दोनों ने खाकी कमीज पहन रखी थी. भगत ने कमीज के ऊपर नीला कोट पहन रखा था. तो बटुकेश्वर दत्त ने हल्का नीला.उस दिन वाइसराय लार्ड इर्विंग को ट्रेड डिस्प्यूट बिल की रूलिंग पर अपना रिस्पांस देना था. लेकिन उससे पहले ही सदन के बीचोंबीच खाली जगह में दो बम गिरे. जोर का धमाका हुआ.

दुर्गा भाभी और भगवतीचरण वोहरा (तस्वीर: Wikimedia Commons)

इसके बाद भगत सिंह ने बन्दूक निकालकर दो गोलियां हवा में फायर की .मोतीलाल नेहरू जिन्ना और मदन मोहन मालवीय भी उस दिन सदन में मौजूद थे. बेम फेंकने के बाद दोनों जोर जोर से नारे लगाने लगे. इंकलाब जिंदाबाद. इसके बाद दोनों ने सदन में HSRA के पर्चे उछाले.

मुक़दमा चला तो कहा गया दोनों ने एक-एक बेम फेंका था. लेकिन दत्त की तरफ से बचाव पक्ष के वकील आसिफ अली के अनुसार दोनों बम भगत सिंह ने ही फेंकें थे. बटुकेश्वर दत्त ने मान लिया कि एक बम उन्होंने फेंका था. कारण कि वो भगत सिंह से अलग नहीं होना चाहते थे.

इसके बाद दोनों को गिरफ्तार कर केस चलाया गया. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई.

बटुकेश्वर दत्त का क्या हुआ?

उन्हें उम्र कैद की सजा सुनाकर काला पानी जेल में भेज दिया गया. वो इस बात के गिल्ट में जिए जा रहे थे कि उन्हें मौत की सजा क्यों नहीं मिली. तब भगत सिंह ने उनके नाम एक पत्र लिखा. इस पत्र में भगत सिंह लिखते हैं, दुनिया के दुखों से बचने के लिए मृत्यु की राह देखना ठीक नहीं.

1965 में अपनी मृत्यु शय्या पर दत्त (उनकी पत्नी अंजलि और बेटी, भारती बगल में खड़ी हैं) (तस्वीर: पंजाब स्टेट आर्काइव्स)

आगे भगत सिंह ने लिखा,

“दुनिया को दिखाओ कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं.”

भगत सिंह की मृत्यु के बाद बटुकेश्वर को टीबी हो गया था जिससे वे मरते-मरते बचे. 1937 में उन्हें बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना भेज दिया गया.
बाद में अंग्रेज़ सरकार उन्हें इस शर्त पर छोड़ने के लिए तैयार हुई कि वो किसी विद्रोही गतिविधि में भाग नहीं लेंगे. लेकिन जेल से निकलकर भी बटुकेश्वर आंदोलन में लगे रहे. उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया. और इसके चलते दुबारा जेल भी गए.

1947 में जब देश आजाद हुआ तब जाकर उन्होंने शादी की. और पटना में रहने लगे. घर चलाने की समस्या आई तो एक सिगरेट कम्पनी में काम किया.बाद में बिस्कुट बनाने का एक छोटा कारखाना भी खोला, लेकिन नुकसान होने की वजह से इसे बंद कर देना पड़ा. पटना में जब बस चलाने के परमिट मिलने लगे तो इसके लिए दत्त ने भी आवेदन किया. परमिट के लिए जब वो पटना के कमिश्नर से मिलने गए तो कमिश्नर ने उनसे कहा,

“क्या सबूत है तुम स्वतंत्रता सेनानी हो. कोई प्रमाण पत्र हो दिखाओ”

ये बात देश के राष्ट्र्पति राजेन्द्र प्रसाद को पता चली. तब जाकर कमिश्नर ने बटुकेश्वर दत्त से माफ़ी मांगी. पचास के दशक में उन्हें विधान परिषद् का सदस्य मनोनीत किया गया. वो भी सिर्फ चार महीने के लिए.

भगत सिंह की मां मिलने आई

अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे बटुकेश्वर दत्त 1964 में बीमार पड़ गए. उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया. उनको इस हालत में देखकर उनके मित्र चमनलाल आज़ाद ने एक लेख में लिखाः

“क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी गलती की है. खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है.

बटुकेश्वर दत्त से मिलने आईं भगत सिंह की माता विद्यावती जी (स्क्रीनग्रैब)

सरकार के कान में जूं रेंगी तो उन्हें दिल्ली एम्स हॉस्पिटल लाया गया. जिस दिल्ली में कभी उन्होंने बेम फोड़ा था, आज वहां उन्हें स्ट्रेचर में लाया जा रहा था. उनके अंतिम दिनों में उनसे भगत सिंह की मां विद्यावती जी भी मिलने आई. बटुकेश्वर ने उन्हें अपनी आख़िरी इच्छा बताई. वो चाहते थे कि उनका दाह संस्कार भी उनके मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए.

20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर पचास मिनट पर बटुकेश्वर दत्त ने दुनिया को अलविदा कह दिया. उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के ही अनुसार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि के पास किया गया. भगत सिंह की मां तब भी उनके साथ थीं. श्रीमती विरेन्द्र कौर संधू के अनुसार 1968 में जब भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के समाधि-तीर्थ का उद्घाटन किया गया तो इस 86 वर्षीया विद्यावती जी ने उनकी समाधि पर फूल चढ़ाने से पहले बटुकेश्वर दत्त की समाधि पर फूलों का हार चढ़ाया. बटुकेश्वर की इच्छा पूरी हो चुकी थी. वो सदा सदा के लिए भगत सिंह के साथ हो गए थे. और अब उन्हें कोई अलग नहीं कर सकता था.

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