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स्वामी विवेकानंद ने क्यों कहा, भारत को धर्म की जरुरत नहीं!

1893 में 20 सितम्बर के दिन स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म संसद में एक ईसाई मिशनरी को जवाब देते हुए भाषण दिया था

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धर्म संसद में विवेकानंद वीरचंद गांधी, हेविवितर्ने धर्मपाल के साथ (तस्वीर: Wikimedia Commons)

20 सितंबर, 1893. शिकागो के आर्ट इंस्टीट्यूट में एक सभा का आयोजन था.  शाम नौ बजे का वक्त. हॉल खचाखच भरा था. आइजैक हेडलैंड नाम के एक ईसाई मिशनरी ने, ‘रिलिजन इन पीकिंग (बीजिंग)’ पर भाषण दिया. इसके बाद मेज़बान वक्त स्टेज पर आई और सबको सूचित किया कि कई वक्ता नहीं आए हैं और आज और कोई भाषण नहीं होगा. इतने में भीड़ ने देखा कि दर्शक दीर्घा से गेरुआ वस्त्र पहले एक शख्स खड़ा हुआ और स्टेज़ की तरफ बढ़ा. 

तालियों की वो गड़गड़ाहट हुई कि 9 दिन पहले का मंज़र जिंदा हो गया. विवेकानन्द को देखते की लोगों को उनका 11 तारीख का भाषण याद आ गया, जब उन्होंने, ‘मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों’ कहकर अपने भाषण की शुरुआत की थी और हर कोई मंत्रमुग्ध हो गया. आज विवेकानंद की बारी नहीं थी. लेकिन जब उन्होंने आइजैक हेडलैंड का भाषण सुना तो खुद को रोक नहीं पाए. 

भारत को धर्म की उतनी जरुरत नहीं है

20 तारीख को दिए उनके इस भाषण को नाम दिया जाता है, “भारत को धर्म की जरुरत नहीं है”. ऐसा क्यों कह रहे थे विवेकानंद. पिछले भाषण में उन्होंने देखा कि अमेरिकी मिशनरी चीन के पिछड़े हुए लोगों में धर्म को लेकर जागरूकता बढ़ाने की बात कर रहे थे. उन्होंने इसका जवाब देते हुए कहा,

ईसाईयों को निंदा के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए. उम्मीद है आप लोग बुरा नहीं मानेंगे. आप ईसाई लोग मिशनरी भेजने को हमेशा आतुर रहते हैं. ताकि पूरब के बुतपरस्त लोगों की आत्मा को बचा सकें. लेकिन पहले आप भूख से मर रहे उन बुतपरस्तों का शरीर क्यों नहीं बचाते. भारत में अकाल पड़े. हजारों लोग भूख से मरे. लेकिन आपने कुछ नहीं किया। आप चर्च बनाते रहे. लेकिन आप नहीं समझते कि भारत को धर्म की जरुरत नहीं है. वहां पहले ही बहुत धर्म है. उन्हें जरुरत है रोटी की, जिसके लिए वो चीखते चीखते अपना गला फाड़ रहे हैं. वो हमसे रोटी मांगते हैं. और हम उन्हें पत्थर दे रहे हैं.

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 विश्व धर्म संसद में "ईस्ट इंडियन ग्रुप"। बाएं से दाएं नरसीमा चर्या, लक्ष्मी नारायण, स्वामी विवेकानंद, हेविवितर्ने धर्मपाल और वीरचंद राघव गांधी हैं (तस्वीर: Wikimedia Commons)
भूखे आदमी को धर्म देना उसका अपमान है 

इस पूरे भाषण के दौरान विवेकानंद को कई बार रुकना पड़ा. वो बीमार थे. आइल बावजूद हर बार जब वो ठहरते, और और की आवाज आने लगती. उन्होंने अपनी बात खत्म करते हुए कहा,

“भूखे आदमी को धर्म देना उसका अपमान करना है. उसे तत्त्वमीमांसा  समझाना उसकी बेज्जती है. भारत में अगर एक पंडित पैसे के लिए ज्ञान दे दो लोग उस पर थूकेंगे. मैं यहां अपने गरीब भाइयों के लिए मदद मांगने आया हूं. और मैं अच्छी तरह समझता हूं कि बुतपरस्तों के लिए ईसाईयों से उनकी जमीन पर आकर मदद मांगना कितना मुश्किल है.”

विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने 6 बार वक्तव्य दिए. उन सभी वक्तव्यों में से 20 तारीख के इस भाषण को सबसे तीखा माना जाता है. इस भाषण को शीर्षक देते हुए अगले दिन शिकागो के अखबारों ने लिखा, हिन्दू साधु कहता है, भारतीयों को धर्म की उतनी जरुरत नहीं है.”

World Religion Parliament
विश्व धर्म सम्मलेन (तस्वीर: Wikimedia Commons)

एक पुराणी सूफी कहावत है, 
ज्यों कदली के पात में , पात पात में पात (कदली यानी केला)
त्यों संतन की बात में ,बात बात में बात  

स्वामी विवेकानंद की ये बात भी अपने अंदर कई बातें छिपाए हुए है. इसलिए दूर ही रखी जाती है. नजदीक आए तो समंदर के इस तरफ भी शायद कइयों को अच्छी न लगे.