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सिद्धारमैया की कहानी, जिनकी राजनीति शुरू ही कांग्रेस के विरोध से हुई

कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ने से लेकर सीएम बनने तक का पूरा सफर.

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सिद्धारमैया पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले कर्नाटक के दूसरे मुख्यमंत्री थे. (फोटो- पीटीआई)

कर्नाटक में तीन दिन की राजनीतिक रस्सा-कशी के बाद आखिरकार मुख्यमंत्री के नाम पर मुहर लग गई. सिद्धारमैया दूसरी बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. डीके शिवकुमार उनके डिप्टी होंगे. कांग्रेस के खिलाफ राजनीति शुरू करने वाले 75 साल के सिद्धारमैया कांग्रेस नेता के रूप में दूसरी बार सीएम पद की शपथ लेंगे. कांग्रेस आलाकमान ने जमीनी नेता कहे जाने वाले सिद्धा पर दोबारा भरोसा जताया. क्या है सिद्धारमैया की पूरी कहानी? जानने के लिए पीछे चलते हैं जहां सिद्धारमैया की चुनावी राजनीति शुरू हुई थी.

देवेगौड़ा का वीटो

1983 के विधानसभा चुनाव से पहले कर्नाटक के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुंडू राव जनता के बीच अपनी लोकप्रियता खो चुके थे. जनता पार्टी का टिकट जीत की हांडी बन गया था. चुनाव से ठीक पहले सिद्धारमैया जनता पार्टी के दफ्तर के बाहर खड़े हुए थे. सैकड़ों दूसरे लोगों की तरह उन्हें भी अपने लिए टिकट चाहिए था. अपनी तरफ से वो पूरा जोर लगाए हुए थे. पार्टी दफ्तर के भीतर उनके टिकट की पैरवी कर रहे थे अब्दुल नजीर साब. कहते हैं कि इमरजेंसी के दौर के बाद जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बने दक्षिण कर्नाटक के कद्दावर नेता एचडी देवेगौड़ा ने उनके नाम पर वीटो कर दिया था.

पब्लिक प्लेटफॉर्म पर देवेगौड़ा ने वजह गिनाई सिद्धा का 'दक्षिणपंथी' रुझान वाला होना. मगर असल में वजह यह थी कि गौड़ा अपनी राजनीतिक जमीन पर ऐसे पिछड़ी जाति के नेता को पनपने नहीं देना चाहते थे जो उनके दरबार में हाजिरी न लगाता हो. जो भी हो, सिद्धा का टिकट कट चुका था. वो मायूस होकर अब्दुल नजीर साहब के पास लौटे. सिद्धा उन्हें अपना राजनीतिक गुरू मानते थे. नजीर के कहने पर उन्होंने मैसूर की चामुंडेश्वरी सीट से निर्दलीय पर्चा भर दिया.

पर्चा भरने के बाद चुनाव की तैयारी में लग गए. अबतक वो किसानों के वकील की तौर पर जनता में काफी लोकप्रिय हो चुके थे. उन्होंने कांग्रेस के जयदेव राजे उर्स को तीन हजार के मार्जिन से पटखनी दे दी. 1983 के चुनाव के नतीजों में त्रिशंकु विधानसभा खड़ी थी. 95 सीट के साथ जनता पार्टी सबसे बड़ी सियासी तंजीम थी. उसको बहुमत के लिए 18 विधायकों की दरकार थी. सीपीआई और सीपीएम के 3-3 विधायकों ने जनता पार्टी को समर्थन दे दिया. इस तरह गिनती पहुंची 101 पर. 

इस चुनाव में 22 निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीतकर आए थे. इनमें से अधिकतर ने जनता पार्टी को समर्थन दे दिया और रामकृष्ण हेगड़े कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने. उनकी सरकार को समर्थन देने वाले निर्दलीय विधायकों में सिद्धारमैया भी थे. रामकृष्ण हेगड़े ने उन्हें कन्नड़ भाषा को फर्स्ट लैंग्वेज के तौर पर लागू करने के लिए बनी समिति का अध्यक्ष बना दिया. यह सत्ता के गलियारे में उनका पहला कदम था. सिद्धारमैया के आगे के सफर को जानने से पहले कर्नाटक की राजनीति के कद्दावर नेता के एक दावे को सुन लेना चाहिए.

10 फरवरी 2018. प्रेस से बात करते हुए कर्नाटक की राजनीति के 'पितामह' एचडी देवेगौड़ा गुस्से से भरे हुए थे. उनकी शिकायत थी कि तीन दिन पहले श्री श्रवणबेलगोला में हुए महाभिषेक के दौरान सिद्धारमैया तहजीब भूल गए. कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने उन्हें उद्घाटन समारोह के दौरान बोलने का मौका नहीं दिया. इस पर नाराजगी जताते हुए देवेगौड़ा ने कहा, 

'सिद्धारमैया ओछे आदमी हैं. उनको राजनीति में आगे बढ़ाना मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी.'

कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद सिद्धारमैया (फोटो- पीटीआई)

देवेगौड़ा का यह बयान अगले दिन के अखबारों की सुर्खी बन चुका था. सिद्धारमैया ने इस बयान का जवाब देने के लिए दो महीने का इंतजार किया. 7 मई 2018 को बेंगलुरु प्रेस क्लब में मीडिया से बातचीत करते हुए उन्होंने देवेगौड़ा के दावे को ख़ारिज कर दिया. सिद्धा बोले, 

'एसआर बोम्मई, रामकृष्ण हेगड़े और एमपी प्रकाश के सामूहिक नेतृत्व में जनता दल ने 1994 का चुनाव जीता था. सिर्फ देवेगौड़ा उस जीत के लिए जिम्मेदार नहीं थे. हम सबकी मेहनत की वजह से वो मुख्यमंत्री बने और बाद में प्रधानमंत्री. मुझे सियासत में आगे बढ़ाने के लिए देवेदौड़ा ने कोई प्रयास नहीं किया. ये रामकृष्ण हेगड़े थे जिन्होंने मेरी योग्यता को पहचाना और मुझे सियासत में आगे बढ़ने का मौक़ा दिया.'

आंकड़े ना तो सिद्धा के दावे को पूरी तरह से ठीक ठहराते हैं और ना ही देवेगौड़ा के. 1983 में सिद्धा अपना पहला चुनाव निर्दलीय लड़े थे. 1985 के विधानसभा चुनाव के वक़्त वो जनता पार्टी में आ चुके थे. इस चुनाव में रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में जनता पार्टी 135 सीटें जीती थी. हेगड़े ने दूसरी बार जीतकर आए सिद्धा को अपने मंत्रिमंडल में जगह दी. उन्हें कृषि महकमा सौंपा गया. इसके बाद बोम्मई सरकार में भी वह मंत्री रहे. यहां सिद्धा का यह दावा सही लगता है कि हेगड़े ने उन्हें आगे बढ़ाने में काफी मदद की. लेकिन यह सिक्के का एक ही पहलू है.

बलि का बकरा

1994 में देवेगौड़ा कर्नाटक के जनता दल की सदारत कर रहे थे. उस वक़्त जनता दल में दो खेमे साफ़ दिखाई देते थे. पहला खेमा देवेगौड़ा का था और दूसरा रामकृष्ण हेगड़े का. इस समय तक सिद्धा देवेगौड़ा के खेमे में जा चुके थे. 1994 के चुनाव में जनता दल को मिली 115 सीटें. पूर्ण बहुमत मिलने के बाद जनता दल में मुख्यमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो गया. आखिरकार हरकिशन सिंह सुरजीत और बीजू पटनायक की मध्यस्थता में देवेगौड़ा को सूबे का नया मुख्यमंत्री बनाया गया. यह रामकृष्ण हेगड़े के राजनीतिक अवसान की शुरुआत थी.

1994 में मुख्यमंत्री बने देवेगौड़ा ने सिद्धा को बतौर वित्तमंत्री अपनी कैबिनेट में जगह दी. सिद्धा इस समय तक देवेगौड़ा के सबसे भरोसेमंद लेफ्टिनेंट बन चुके थे. 1996 में एक नाटकीय घटनाक्रम के चलते देवेगौड़ा के भाग का छीका फूटा. ज्योति बसु के पैर पीछे खींचने के बाद उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंप दी गई. देवेगौड़ा के कर्नाटक छोड़ते ही वहां सत्ता के लिए नए सिरे से संघर्ष शुरू हो गया.

देवेगौड़ा चाहते थे कि उनके जाने के बाद सत्ता उनके किसी भरोसेमंद सिपहसालार को सौंप दी जाए. सियासत में उम्र खाए देवेगौड़ा जानते थे कि वो जिस सरकार के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं, वो पांच साल चलने वाली नहीं है. ऐसे में उन्हें कर्नाटक में अपनी वापसी के लिए दरवाजे खोलकर रखने थे. इधर रामकृष्ण हेगड़े का कहना था कि प्रधानमंत्री की कुर्सी के बदले में देवेगौड़ा को कर्नाटक की कुर्सी का बलिदान दे देना चाहिए.

1996 की मई का आखिरी सप्ताह जनता दल और संयुक्त मोर्चे के लिए बड़े तनाव में बीता. 1 जून को अटल बिहारी वाजपेयी को अपना बहुमत साबित करना था. देवेगौड़ा संयुक्त मोर्चे के नेता चुने जा चुके थे और वाजपेयी के तख़्त से उतरने की राह देख रहे थे. इधर कर्नाटक में उनके वारिस को लेकर घमासान जारी था. सरकार बनने से पहले जनता दल किसी किस्म की फूट को भुगतने की स्थिति में नहीं था.

1994 के विधानसभा चुनाव में कुल 34 लिंगायत विधायक जनता दल के खाते में आए थे. इन विधायकों का आरोप था कि वोक्कालिगा समुदाय से आने वाले देवेगौड़ा उनके और उनके समुदाय के साथ भेदभाव कर रहे हैं. जे.एच. पटेल को मुख्यमंत्री बनाने के लिए रामकृष्ण हेगड़े का गुट यही तर्क दे रहा था. इधर देवेगौड़ा सिद्धारमैया के नाम के पीछे जोर लगाए हुए थे. वो कुरुबा समुदाय से आते हैं और सामाजिक न्याय के नाम पर देवेगौड़ा उनकी दावेदारी को जायज ठहरा रहे थे.

सिद्धारमैया (फोटो- इंडिया टुडे)

जेएच पटेल और सिद्धारमैया के अलावा भी कई दावेदार मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल हो गए थे. देवेगौड़ा सरकार के गृह मंत्री पीजीआर सिंधिया, कृषि मंत्री सी बाईरे गौड़ा, उद्योग मंत्री आरवी देशपांडे भी सत्ता के दंगल में खम ठोकते नजर आए. हालांकि असल मुकाबला सिद्धा और जेएच पटेल के बीच में था. देवेगौड़ा अपने खेमे की जीत के लिए निश्चिंत थे. 115 में से 80 के करीब विधायक सिद्धा के नाम पर राजी थे.

29 मई 1996. कर्नाटक में सत्ता हस्तांतरण को शांति से निपटाने के लिए शरद यादव को दिल्ली से कर्नाटक भेजा गया. अगले दिन जनता दल के विधायक दल की मीटिंग बुलाई गई थी. देवेगौड़ा पहले से तैयारी करके बैठे हुए थे. जनता दल के ज्यादातर विधायक उनके खेमे में थे. ऐसे में सिद्धा का मुख्यमंत्री चुना जाना तय था. सुबह 11 बजे शुरू हुई मीटिंग उम्मीद के मुताबिक हंगामाखेज रही. देवेगौड़ा लगातार इस बात पर जोर रहे थे कि मुख्यमंत्री के नाम पर वोटिंग करवा लेनी चाहिए. रामकृष्ण हेगड़े का खेमा इस बात के लिए राजी नहीं था. हो-हल्ले के बीच पांच घंटे चली बैठक में तय हुआ कि इस मसले को सुलझाने के लिए एक पांच सदस्यीय कमिटी बना लेनी चाहिए.

देवेगौड़ा, रामकृष्ण हेगड़े, एसआर बोम्मई, प्रदेश जनता दल के अध्यक्ष सीएम इब्राहिम के अलावा शरद यादव को इस समिति का सदस्य बनाया गया. इस कमिटी में भी देवेगौड़ा वोटिंग का राग अलापते रहे. आखिरकार रामकृष्ण हेगड़े ने उनके सामने पार्टी तोड़ने की धमकी दी. देवेगौड़ा नाजुक दोराहे पर खड़े थे. हेगड़े अगर 34 लिंगायत विधायकों के साथ जनता दल से अलग हो जाते तो ना सिर्फ उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी संकट में आ जाएगी बल्कि वो सूबे में मुख्यमंत्री बने रहने के काबिल भी नहीं रहेंगे. वो सिद्धारमैया के लिए अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी दांव पर नहीं लगा सकते थे. आखिरकार उन्हें जेएच पटेल के नाम पर राजी होना पड़ा.

जेएच पटेल के नाम पर आम सहमति बनने के बाद कमिटी ने सिद्धा को मीटिंग में हाजिर होने के लिए कहा. 80 से ज्यादा विधायकों का समर्थन खीसे में डाले सिद्धा 'खुशखबरी' सुनने के मूड में मीटिंग में पहुंचे. वहां जाकर उन्होंने पाया कि उनके मेंटर देवेगौड़ा का सुर बदल चुका है. रामकृष्ण हेगड़े ने उन्हें सपाट शब्दों में कहा कि उनके पास मुख्यमंत्री बनने के लिए काफी उम्र पड़ी है. वो इस सरकार में उपमुख्यमंत्री का पद लेकर खुश रहें और सीएम पद के लिए अपनी बारी आने का इंतजार करें.

'पार्टी विरोधी गतिविधि'

1996 में मौका चूकने के बाद सिद्धारमैया अपनी बारी का इंतजार करते रहे. इस दौरान उन्होंने देवेगौड़ा का भरोसा नहीं खोया. 1999 में कर्नाटक की जनता दल में टूट हुई. जेएच पटेल नीतीश कुमार और शरद यादव की जनता दल (यूनाइटेड) से जा मिले और बीजेपी के साथ गठबंधन में आ गए. बीजेपी के विरोध में खड़े हुए देवेगौड़ा ने अपने हिस्से आई पार्टी का नाम रखा जनता दल (सेकुलर). सिद्धा इस नाजुक मौके पर देवेगौड़ा के साथ खड़े रहे.

2004 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जनादेश त्रिशंकु था. बीजेपी 79 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. 65 सीटों के साथ कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही. 58 सीटों के साथ सत्ता की चाबी जेडीएस के हाथ में आ गई. चुनाव के बाद जनता दल और कांग्रेस के बीच सेकुलरिज्म के नाम पर समझौता हो गया. सत्ता का बंटवारा महाराष्ट्र मॉडल पर किया गया. इसके तहत मुख्यमंत्री की कुर्सी कांग्रेस के पास रहने वाली थी और दूसरे बड़े मंत्रालय जेडीएस के पास जाने थे. धरम सिंह कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री बने और सिद्धा को जेडीएस के खाते से उपमुख्यमंत्री बनाया गया. देवेगौड़ा परिवार का सियासी रसूख बनाए रखने के लिए उनके बड़े बेटे एचडी रवन्ना को PWD और सिंचाई विभाग की कमान दे दी गई.

लेकिन यह दौर नए नायकों के उभरने का था. देवेगौड़ा के छोटे बेटे एचडी कुमारस्वामी को विधायक होने के बावजूद धरम सिंह के मंत्रिमंडल में कोई जगह नहीं दी गई थी. इसके बजाए उन्हें पार्टी का काम देखने के लिए कह दिया गया था. कुमार ने एक साल के भीतर जेडीएस के संगठन पर मजबूत पकड़ बना ली. इस दौरान उनकी नजर उपमुख्यमंत्री के पद पर लगी हुई थी. धीरे-धीरे उन्होंने सिद्धा के नट कसने शुरू किए. वो पार्टी दफ्तर में बैठकर सिद्धा के मंत्रालय से जुड़े प्रस्ताव पास करते और उन्हें लागू करने के लिए भेज देते. सिद्धा अपने काम में इस किस्म की दखलंदाजी बर्दाश्त करने के मूड में नहीं थे. वो कुमार की बातों को सुना-अनसुना करने लगे.

सिद्धारमैया (फोटो- इंडिया टुडे)

कुमार और सिद्धा के बीच का यह टकराव काफी बढ़ चुका था. सिद्धा को उम्मीद थी कि देवेगौड़ा अपने बेटे की तरफ से की जा रही ज्यादती को बंद करवाएंगे. इसके उलट वो चुपचाप इस खटपट को देख रहे थे. आखिरकार सिद्धा ने बगावत का मन बना लिया. 25 जुलाई 2005 को हुबली जिले में अहिंदा रैली थी. ‘अल्पसंख्यक, पिछड़े और दलितों के सियासी गठजोड़ को कन्नड़ में ’अहिंदा' के नाम से जाना जाता है. इस रैली में लगे बैनर खुले तौर पर बगावत का ऐलान कर रहे थे. पीले रंग के इन बैनरों पर कन्नड़ में लिखा हुआ था, "अन्डू देवराज अर्स, इन्डू सिद्धारमैया". इसका हिंदी तर्जमा इस तरह से होता है, "तब देवराज अर्स, अब सिद्धारमैया."

सिद्धा के कदम ने देवेगौड़ा को चिंता में डाल दिया. उन्होंने सिद्धा के सफाए की योजना बनानी शुरू कर दी. 3 अगस्त 2005 को सिद्धा को जनता दल के विधायक दल के नेता के पद से हटा दिया गया. एमपी प्रकाश को यह जिम्मेदारी सौंप दी गई. इसके दो दिन बाद 'पार्टी विरोधी गतिविधि' के चलते सिद्धा की प्राथमिक सदस्यता रद्द कर दी गई.

दुश्मन के खेमे में

सिद्धा ने अपनी राजनीति की शुरुआत कांग्रेस के विरोध से शुरू की थी. वो सूबे में दो दशक तक कांग्रेस के सबसे सख्त आलोचकों में से एक थे. उनको जेडीएस से निकाले जाने के तुरंत बाद अहिंदा समुदाय ने प्रदर्शन शुरू कर दिया था. मैसूर इलाके में कई जगह प्रदर्शन हिंसक हो गए और 20 से ज्यादा सरकारी बसों में आग लगा दी गई. कई जगहों पर पुलिस फायरिंग हुई. इधर सिद्धा की जबान गोले दाग रही थी. उन्होंने देवेगौड़ा पर आरोपों की झड़ी लगा दी. सिद्धा का कहना था कि कांग्रेस के साथ गठबंधन के दौरान देवेगौड़ा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर सिर्फ इसलिए समझौता कर लिया क्योंकि देवेगौड़ा उन्हें इस कुर्सी से दूर रखना चाहते थे. उनका दूसरा आरोप था कि देवेगौड़ा अपने बेटे कुमारस्वामी को आगे बढ़ाने के लिए उनका पत्ता काट रहे हैं.

अक्टूबर 2005. सिद्धारमैया जेडीएस के खिलाफ दूसरी बड़ी बगावत को अंजाम देने जा रहे थे. उन्होंने सीके इब्राहीम, बीआर पाटिल, सी. नरसिंहप्पा को अपने खेमे में मिलाया और जेडीएस से अलग हो गए. उन्होंने अपनी पार्टी का नाम रखा 'अखिल भारतीय प्रगतिशील जनता दल'. कर्नाटक यह नाम पहले भी सुन चुका था. 2002 में रामकृष्ण हेगड़े और एसआर बोम्मई ने इसी नाम से एक पार्टी बनाई थी. यह पार्टी 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले जनता दल (यूनाइटेड) से मिल गई थी.

उस समय धरम सिंह सूबे के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. जेडीएस और कांग्रेस का गठबंधन सत्ता में था. धरम सिंह भी अंदरूनी तौर पर कुमारस्वामी की सरकार में दखलंदाजी से परेशान थे. दिसंबर 2005 में सूबे में पंचायत चुनाव हुए. इस चुनाव में कांग्रेस ने कई जगहों पर सिद्धारमैया की प्रगतिशील जनता दल का समर्थन कर दिया. इसके दो महीने के भीतर ही एचडी कुमारस्वामी ने औचक तरीके से कांग्रेस से समर्थन खींच लिया. वो बीजेपी के समर्थन से खुद मुख्यमंत्री बन गए.

जेडीएस और बीजेपी का गठबंधन सिद्धा के लिए मौका बनकर आया. 2006 की शुरुआत में उन्हें समझ में आ चुका था कि अपनी पार्टी बनाने का प्रयोग बहुत समझदारी भरा फैसला नहीं है. 21 जुलाई 2006 को जैसे ही उन्होंने दिल्ली के लिए उड़ान भरी कर्नाटक में कयासबाजी शुरू हो गई. 22 जुलाई 2006. सिद्धारमैया कांग्रेस के राष्ट्रीय कार्यालय पर थे. यहां उन्हें कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता लेनी थी. इस मौके पर सोनिया गांधी की मौजूदगी उनके सियासी रसूख की गवाही दे रही थी. कांग्रेस की सदस्यता लेने के बाद उन्होंने कहा, 

"मैंने बिना किसी शर्त के कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली है. मेरा मकसद कर्नाटक में चल रहे जेडीएस और बीजेपी के अनैतिक गठबंधन को पटखनी देना है. लेकिन मैं यह नहीं कहूंगा कि मेरी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है. राजनीति में हर कोई कुछ न कुछ बनने आता है. हम लोग संन्यासी नहीं हैं."

सिद्धारमैया यह बयान दे रहे थे और उनके बगल में खड़े मल्लिकार्जुन खरगे, एचके पाटिल और धरम सिंह जैसे कई कांग्रेसी कद्दावर उनकी बातें सुन रहे थे. सिद्धा कांग्रेस में नए सिरे से खेमेबाजी का संकट अपने साथ लेकर आए थे.

अपनी बारी का इंतजार

2008 में कांग्रेस कहने को धरम सिंह के नेतृत्व में लड़ रही थी, लेकिन असल कमान सिद्धारमैया के हाथ में ही थी. दो साल दो गठबंधन तोड़ चुकी जेडीएस की विश्वसनीयता संकट में थी. सिद्धा ने जेडीएस को उनके गढ़ में जाकर चुनौती देना शुरू किया. धरम सिंह हैदराबाद-कर्नाटक इलाके के बड़े नेता थे. वो इस इलाके में कांग्रेस को मजबूत करने में जुटे हुए थे.  

2008 की मई में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन काफी सुधरा. उसे पिछले चुनाव के मुकाबले 15 सीटें ज्यादा मिली थीं. कुल 80 विधायकों के साथ वोट शेयर के लिहाज से वो सूबे की सबसे बड़ी पार्टी थी. हालांकि त्रिकोणीय मुकाबले के चलते बीजेपी 110 सीटें जीतने में कामयाब रही थी.  

2009 के लोकसभा चुनाव में कर्नाटक से कांग्रेस के लिए हताश करने वाले रुझान आए. उसे 28 में से महज 6 सीटें ही मिलीं. लेकिन सिद्धारमैया इन परिणामों से खुश थे. इन 6 कांग्रेसी सांसदों में से दो ऐसे थे जो सूबे में उनके वर्चस्व को सीधे चुनौती दे रहे थे. पहले थे पूर्व मुख्यमंत्री धरम सिंह, जो बीदर सीट से चुनाव जीतकर दिल्ली की राह पकड़ चुके थे. दूसरे मल्लिकार्जुन खरगे, जिन्होंने गुलबर्गा सीट से जीत दर्ज की थी. एसएम कृष्णा को आलाकमान राज्यसभा के रास्ते 2008 में ही दिल्ली बुला चुकी थी. सिद्धा के सामने सूबे में महज एक चुनौती थी. डीके शिवकुमार. पार्टी ने उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष बना रखा था.

2023 विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस अध्यक्ष के साथ डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया (फोटो- पीटीआई)

2013 के विधानसभा चुनाव सिद्धा के लिए सुनहरा मौका थे. उन्होंने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान इस बात को बार-बार दोहराया कि यह उनका आखिरी चुनाव है. बीजेपी ने कर्नाटक को 2008 से 2013 के बीच तीन मुख्यमंत्री दिए थे. येदियुरप्पा बीजेपी से अलग होकर अपनी पार्टी बना चुके थे.

इस चुनाव में कांग्रेस 122 सीटें जीतने में कामयाब रही. कांग्रेस चुनाव से पहले ही उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी थी. ऐसे में विधायक दल के नेता के तौर पर उनका चुनाव महज औपचारिकता था. 13 मई 2013 को उन्होंने कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली.

पांच साल का कार्यकाल बिना रुकावट के पूरा किया. पूरे 40 साल बाद ऐसा हुआ. कर्नाटक में देवराज अर्स के बाद सिद्धा दूसरे मुख्यमंत्री थे जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था. कांग्रेस पांच साल बाद फिर से सरकार में आई. लेकिन सिद्धारमैया की पुरानी पार्टी यानी जेडीएस के साथ गठबंधन से. मुख्यमंत्री कोई और बना. फिर एक साल बाद ही बीजेपी ने दलबदल के जरिये सत्ता हथियाई. और सिद्धारमैया राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता बन गए.

सिद्धा के बारे में कहा जाता है कि वे मास लीडर हैं. कुरुबा समाज के सिद्धारमैया का वोट बैंक सिर्फ अपनी जाति तक सीमित नहीं है. उनकी दूसरी जातियों और समुदायों में भी अच्छी पकड़ है. हालांकि इन सबके बावजूद पिछले चुनाव में उन्होंने दो सीटों से चुनाव लड़ा था. अपनी पारंपरिक सीट चामुंडेश्वरी से वो हार भी गए थे, लेकिन बादामी सीट पर उन्हें जीत मिली. इस बार का चुनाव उन्होंने वरुणा से लड़ा और अच्छे मार्जिन से जीत गए.

ये स्टोरी इंडिया टुडे के रिपोर्टर विनय सुल्तान ने लिखी है.

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