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सऊदी अरब वाले भारत की इस फिल्म से इतना क्यों चिढ़े हुए हैं? IMDB तक पर असर दिख रहा है

Malyalam Literature के बड़े लेखक बेन्यामिन को जब Najib की कहानी का पता चला. उन्होंने इस पर एक नॉवेल लिखी, Aadujeevitham नाम से. इस नॉवेल को 2009 में Kerala Sahitya Academy पुरस्कार मिला. लेकिन Saudi Arabia में कुछ लोग इसे अपने देश का अपमान बता रहे हैं.

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आदुजीविथम फिल्म का पोस्टर (Photo-Wikipedia)

सऊदी अरब में इन दिनों एक इंडियन मूवी की खूब चर्चा है. नाम आदुजीविथम- The Goat Life. कहा जा रहा है कि इस फिल्म ने सऊदी के लोगों को बेवजह बदनाम किया है. IMDB में फिल्म की रेटिंग वाले सेक्शन में जाएंगे तो फ़िल्टर बाय कंट्री करने पर आपको दिखाई देगा कि सऊदी अरब के 90 प्रतिशत दर्शकों ने फिल्म को 10 में से 1 रेटिंग दी है. इतना ही नहीं मिडिल ईस्ट के मुद्दे पर फोकस करने वाली न्यूज़ लाइन मैगज़ीन के अनुसार, सऊदी सोशल मीडिया में इन दिनों फिल्म के खिलाफ #GoatLifeDoesNotRepresentUs and #Saudi_Is_A_RedLine जैसे हैशटैग्स चल रहे हैं. मामला यहीं तक सीमित नहीं है. फिल्म में एक महत्वपूर्ण किरदार निभाने वाले एक्टर अल बलूशी को निशाना बनाया जा रहा है. एक दूसरे एक्टर Akef Najem ने फिल्म में अपने रोल के लिए माफी मांगी है. 

हंगामे की वजह क्या है?

 दरअसल आदुजीविथम-एक ऐसे भारतीय की कहानी है, जो काम के वास्ते सऊदी पहुंचता है. और गुलाम बना लिया जाता है. लोगों का कहना है, सऊदी की ये गलत इमेज दिखाई जा रही है. हालांकि फिल्म की कहानी असली जिंदगी पर बेस्ड है. तो समझते हैं- 
-क्या है फिल्म में दिखाए शख्स की असली कहानी?
-सऊदी में गुलामी का इतिहास क्या है?

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 आदुजीविथम मूवी का एक दृश्य (Photo-Netflix Screengrab)

कहानी शुरू होती है नजीब मुहम्मद नाम के एक शख्स से. साल 1993. केरल में मजदूरी करके पेट पालने वाला नजीब बेहतर जिंदगी की तलाश में था. केरल से बहुत से लोग खाड़ी के देश जा रहे थे. नजीब भी जाना चाहता था. ऐसे में उसकी मुलाक़ात हुई एक एजेंट से. जिसने नजीब को बताया कि सऊदी में उसे एक सुपरमार्केट में सेल्समैन की नौकरी दिला देगा. नजीब तुरंत तैयार हो गया. उसे मुंबई ले जाया गया. वहां वीजा दिलाया गया. बदले में नजीब से 50 हजार रुपये की मांग हुई. नजीब के पास पैसा नहीं था. पुश्तैनी जमीन बेचकर उसने पैसा इकठ्ठा किया. वीजा मिलते ही नजीब को सऊदी जाने वाली एक फ्लाइट में बिठा दिया गया. नजीब सऊदी पहुंचा. वहां एयरपोर्ट पर उसे एक शख्स मिला और अपने साथ ले गया. 

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साल 2018 में द न्यूज़ मिनट से बातचीत में नजीब ने बताया, 


“एयरपोर्ट से दो दिन के यात्रा थी. उसी समय मुझे समझ आ गया था कि कुछ न कुछ गड़बड़ है.” 

नजीब को एक सुदूर रेगिस्तानी इलाके में ले जाया गया. जहां उसे पता चला कि उसे अब यहीं काम करना है. काम क्या? बकरियां चराना. बकौल नजीब, वहां उसके अलावा दो और लोग थे. उसका बॉस और बॉस का भाई. वे लोग नजीब को बंधुआ मजदूर बनाना चाहते थे. उसका काम था हर रोज़ 700 बकरियां चराना. दो साल तक हर रोज़ नजीब ने यही काम किया.बदले में उसे एक पैसे सैलरी नहीं मिली. नजीब की हालत दयनीय थी. मालिक खुद टेंट में रहता और नजीब को बाहर सोना पड़ता था. खाने को उसे सूखी ब्रेड दी जाती थी. बकौल नजीब, ब्रेड को बकरी के दूध में भिगो कर खाना पड़ता था. चूंकि बकरियों को कभी नहलाया नहीं जाता था. इसलिए उनके दूध से भी बदबू आती थी. नहाने की इजाजत नजीब को भी नहीं थी. पहनने को बस एक लम्बा लबादा दे दिया था. जिससे नजीब दो साल तक काम चलाता रहा. इस दौरान नजीब की दाढ़ी और बाल बढ़ गए. लेकिन उन्हें भी काटने की परमिशन नहीं थी. नजीब को रेगिस्तान के बीचों बीच रखा गया था. उसे कहीं और जाने की मंजूरी नहीं थी. नजीब जब बकरियां चराने जाता, तब भी मालिक बाइनोकुलर से उस पर नज़र रखता.

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सऊदी के रेगिस्तानों में मीलों तक कुछ नहीं मिलता (Photo-AFP)

इतना ही नहीं नजीब को हर रोज़ पीटा जाता था. नजीब के अनुसार उसके आंसू देखकर भी मालिक को दया नहीं आती थी. और उसे हर दिन हाड़तोड़ काम कराया जाता था. द न्यूज़ मिनट से बातचीत में नजीब बताता है, 
 

“मुझे लगता था, मेरी जिंदगी यहीं ख़त्म हो जाएगी. जब मैंने घर छोड़ा, मेरी बीवी प्रेग्नेंट थी. उनकी कोई खबर मुझ तक नहीं आती थी.”

नजीब इन हालात में 1995 तक बंधुआ मजदूरी करता रहा. इन सालों में नजीब ने किसी से बात भी नहीं की थी. क्योंकि उसे अरबी भाषा नहीं आती थी. बकौल नजीब, मालिक उसे अपनी भाषा में बोलता था. समझ न आने पर कई बार गलती से वो सफ़ेद के बदले काली बकरी उठा लाता, और तब उसे और ज्यादा मार पड़ती. नजीब हर रोज़ सोचता कि कैसे उसे मौका मिले तो वो वहां से भाग जाए. एक रात जब मालिक टेंट में सोया था. नजीब को मौका मिला. मालिक का भाई भी उस रोज़ वहां नहीं था. इसलिए नजीब वहां से भाग खड़ा हुआ. रास्ते का उसे कुछ पता नहीं था. लेकिन रेगिस्तान में वो भागता रहा. भागता रहा. कई घंटों बाद उसे पानी की एक धार दिखाई पड़ी. यहां उसे एक शख्स मिला. बातचीत से नजीब को पता चला कि वो भी मलयाली है. और उसी की तरह फंसा हुआ है.

नजीब ने इसके आगे भागना जारी रखा. डेढ़ दिन पैदल चलने के बाद उसे एक रोड दिखाई दी. उसने हाथ दिया, और किस्मत से एक भलेमानस ने गाड़ी रोक दी. वो नजीब को अपने साथ रियाद ले गया. रियाद में नजीब को एक मलयाली रेस्त्रां मिला. उन्होंने नजीब को खाना और कपड़े दिए. नजीब के कुछ जान पहचान के लोग भी रियाद में थे. नजीब उनके पास पहुंचा. मदद मांगी. दिक्कत ये थी कि नजीब के पास पासपोर्ट वीजा कुछ नहीं था. सब पहले ही जब्त कर लिया गया था. इसलिए नजीब ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया. 

नजीब ने 10 दिन जेल में गुजारे. बकौल नजीब, जेल में गुजारे दिन तथाकथित आजादी से कहीं बेहतर थे. जेल में खाना-कपड़ा सब कुछ मौजूद था. वहां सोने के लिए बिस्तर भी मौजूद था. जेल में कुछ दिन रहने के बाद अंत में पुलिस ने उसकी स्थिति समझी और नजीब को वापस इंडिया भेज दिया. नजीब जब केरल पहुंचा, उसका बेटा दो साल का हो चुका था. वो कुछ दिन घर पर ही रहा. और दो साल बाद उसे बहरीन में नौकरी मिल गई. इस तरह नजीब की कहानी कम्प्लीट होती है. 

आगे चलकर मलयालम साहित्य के बड़े लेखक बेन्यामिन को जब नजीब की कहानी का पता चला. उन्होंने इस पर एक नॉवेल लिखी, आदुजीविथम नाम से. इस नॉवेल को 2009 में केरला साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. और ये इतनी फेमस हुई कि कई दूसरी भाषाओँ में इसका ट्रांसलेशन किया गया. साल 2024 में इस कहानी पर एक फिल्म भी बनी. जो मार्च 2024 में रिलीज़ हुई थी. इसी फिल्म से सऊदी में लोग नाराज हैं. 

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आदुजीविथम नॉवेल (Photo-Wikipedia)

मार्च में रिलीज़ हुई, अब हंगामा क्यों?

दरअसल आदुजीविथम कुछ दिन पहले ही नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई है. जिसके बाद इसे देश विदेश में देखा जा रहा है. फिल्म को खूब तारीफें भी मिल रही है. लेकिन सऊदी अरब में कुछ लोग इसे सऊदी अरब का अपमान बता रहे हैं. कहा जा रहा है कि इसमें सऊदी लोगों को क्रूर दिखाया गया है. देश के नाम पर भावनाएं आहत होने का एक अकेला मामला नहीं है. लेकिन फिल्म में जो कुछ दिखाया, उसमें सऊदी अरब के इतिहास की एक ऐसी सच्चाई है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता.  

गुलामी का किस्सा

बात है 1957 की. सऊदी अरब के किंग सऊद अमेरिका के दौर पर गए. इस दौरे पर वहां बड़ा हंगामा हुआ. क्योंकि किंग सऊद के साथ चल रहे उनके बॉडीगार्ड असल में वे लोग थे, जिन्हें गुलाम बनाकर रखा जाता था. हम जानते हैं कि इंसानों को गुलाम बनाए जाने का एक लम्बा इतिहास रहा है. 19वीं सदी तक ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में गुलामी लीगल थी. 1807 में इंग्लैंड में एक कानून पास कर गुलामी को गैर-कानूनी बना दिया गया. वहीं अमेरिका में 1865 में गुलामी को कानूनी मान्यता मिलनी बंद हुई. इसके बरअक्स सऊदी अरब में 1962 तक गुलामी को मान्यता मिली हुई थी. अफ्रीका से लोगों को गुलाम बनाकर मिडिल ईस्ट लाया जाता था. और गुलामी की ये प्रथा हजारों सालों पुरानी थी. जब ये इलाका ऑटोमोन साम्राज्य के कंट्रोल में था. तब भी यहां जमकर गुलामों का व्यापार होता था, जो प्रथम विश्व युद्ध के बाद भी जारी रहा. 

सुज़ैन मायर्स की किताब, Slavery in the Twentieth Century: The Evolution of a Global Problem, के अनुसार, मिडिल ईस्ट के शासक गुलाम औरतों को तोहफे में देते थे. नवंबर 1948 में दुबई के शासक ने सऊदी के किंग सऊद को कुछ गुलाम औरतें तोहफे में भेंट की थीं. बदले में किंग सऊद ने एक कार और दस हजार रियाल गिफ्ट किए थे. इतना ही नहीं, संभ्रात अरब परिवारों के बच्चों के पास अपने गुलाम होते थे. जो उनके साथ ही बड़े होते और उनके नौकरों की तरह काम करते थे. गुलामी का ये चलन सऊदी अरब में विश्व युद्ध के बाद भी जारी रहा. ब्रिटिश और अमेरिकी प्रेशर के चलते सऊदी के शासकों ने कई बार वादा किया कि वो गुलामों का आयात बंद कर देंगे. लेकिन ये प्रथा बदस्तूर जारी रही.

सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद यूनाइटेड नेशन की स्थापना हुई. UN में पेश एक रिपोर्ट से पता चला कि अरब में उस समय भी 50 हजार से ज्यादा लोग गुलाम बनकर रह रहे थे. 1955 में फ्रेंच सरकार की एक रिपोर्ट में दर्ज़ था कि अरब में इस समय भी 20 हजार रियाल की कीमत पर औरतें बेची जा रही थीं. अधिकतर औरतों को शादी के बहाने लाया जाता था. और उसके बाद गुलामी में धकेल दिया जाता. पुरुषों को गुलाम बनाकर काम कराया जाता था. 

सऊदी सरकार पर गुलामी को रोकने का प्रेशर था. चूंकि अमेरिका के सऊदी अरब से निजी हित जुड़े हुए थे. इसलिए UN के प्रेशर का भी सऊदी पर कोई असर नहीं पड़ा. अंत में 1961 में जब जॉन ऍफ़ केनेडी अमेरिका के राष्ट्रपति बने, उन्होंने सऊदी अरब पर गुलामी रोकने का प्रेशर डाला. अमेरिकन और इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में ये मुद्दा इतना तूल पकड़ चुका था कि सऊदी किंग को 1962 में एक डिक्री जारी करनी पड़ी. जिसके तहत गुलामों की खरीद फरोख्त को पूरी तरह गैर-कानूनी बना दिया गया. यहां से आगे गुलामी को आधिकारक तौर पर पाबंदी लग गई. लेकिन एक नया सिस्टम शुरू हुआ, जिसे कफाला सिस्टम कहा जाता है. 

कफाला सिस्टम?

साल 2008 में ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट के अनुसार, 

“कफाला सिस्टम के तहत मिडिल ईस्ट का कोई शख्स, एक फॉरेन वर्कर को स्पॉन्सर कर सकता है. और उसे काम करने के लिए सऊदी अरब ला सकता है.” 

कफाला सिस्टम में एम्प्लॉयर को कफील कहते हैं, जिन्हें सरकार स्पॉन्सरशिप का परमिट देती है. ये कोई भी हो सकता है, फैक्ट्री या किसी कंपनी का मालिक. परमिट के जरिए ये विदेश से लोगों को लाकर अपने यहां नौकरी पर रख सकते हैं. ये सिस्टम मिडिल ईस्ट के कई देशों में लागू है. 1970 के बाद इसी सिस्टम के तहत हजारों लाखों लोगों मिडिल ईस्ट काम के लिए ले लाए गए. इसमें भारत के भी लोग शामिल थे. इस सिस्टम से लोगों को काम तो मिला, लेकिन एक बड़ी दिक्कत ये है कि कई बार इस सिस्टम का फायदा उठाकर लोगों का शोषण होता है. अक्सर देखा गया कि काम देने वाला व्यक्ति प्रवासी मजदूर के सारे कागजात, चाहे वो पासपोर्ट, वीजा या अन्य चीजें, अपने पास रख लेता. एक तरीके से काम करने वाले मजदूर की जिंदगी का हर फैसला उसे काम देने वाले से जुड़ जाता. इस ताकत का फायदा उठाकर लोगों से बंधुआ मजदूरी कराई जाती. और कई बार लोग अपने देश भी लौट नहीं पाते.

ये दिक्कत हालिया समय में भी बनी हुई है. फ़्रांस 24 की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया के जरिये कई कफील अपने यहां काम कर रहे मजदूरों को दूसरे कफीलों को बेच देते हैं. जो एक प्रकार से दास प्रथा का ही रूप है. यहां नोट करना जरूरी है कि हाल के समय में सऊदी सरकार ने इस मामले में कुछ जरूरी कदम उठाए हैं. 2021 में सऊदी सरकार ने कफाला सिस्टम में कुछ सुधार किए. जिसके तहत नौकरी देने वाले व्यक्ति और कंपनी का प्रवासी मजदूरों पर नियंत्रण कम हुआ. निजी सेक्टर में काम कर रहे मज़दूर को अपने मालिक की मर्ज़ी के बिना नौकरी बदलने और देश छोड़कर जाने का अधिकार मिला. तमाम सुधारों के बावजूद अब भी कई ऐसे मामले प्रकाश में आते रहते हैं. नजीब मुहम्मद की कहानी तो बस एक उदाहरण है. प्रवासी लोगों की जिंदगी का ऐसा पक्ष है, जिस पर कम चर्चा होती है.

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