
यश चोपड़ा ने दिया था सागर जी को पहला ब्रेक.
फ़िल्म यश चोपड़ा को तो बहुत पसंद आई लेकिन फ़िल्म से जुड़े बाकी लोगों को सागर के लिखे सीन बहुत किताबी लगे. मगर यश जी ने उन सबकी बात को नज़रअंदाज़ करते हुए बिना किसी ख़ास फ़ेरबदल के कहानी को पास कर दिया. और फ़िल्म बनी 'कभी कभी'. यहां से सागर सरहदी के फ़िल्मी सफ़र का आगाज़ हुआ. इसके बाद सागर साहब ने यश चोपड़ा के साथ 'नूरी','फासलें','सिलसिला' जैसी कईं यादगार रोमांटिक फिल्में दीं. #शशि कपूर ने की मदद सागर सरहदी हिट रोमांटिक फिल्में तो लगातार दे रहे थे लेकिन बड़े ही बेमन से. उन्हें प्रेम की सपनीली दुनिया से ज़्यादा असल ज़िंदगी की कड़वी हकीकत बताने वाली कहानी कहने में ज़्यादा दिलचस्पी थी. जो समाज को सोचने पर विवश करे. हालांकि विभाजन के कठिन समय के अनुभव का कुछ अंश उन्होंने 'नूरी' में दिखलाया था, लेकिन इसकी पूरे तौर से शुरुआत की 1982 में रिलीज़ हुई 'बाज़ार' बनाकर. हालांकि यश चोपड़ा ने उन्हें कहा था ये फ़िल्म वो बना सकते हैं. लेकिन सागर जी ने इसे खुद ही बनाने का फैंसला किया. जिसमें बाद में यश चोपड़ा ने मदद भी की.

सागर सरहदी.
फ़िल्म बनाने के लिए उनकी आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं थी, तो शशि कपूर से फ़िल्म इक्विपमेंट मांगने के लिए गए. शशि जी ने भी बिना कोई किराया लिए ये कहकर सारा ज़रूरत का सामान दे दिया कि फ़िल्म चल जाए तो पैसे दे देना. ना चले तो मत देना. फ़िल्म चली. और खूब चली. गोल्डन जुबली हुई. दर्शकों और क्रिटिक्स दोनों ने ही फ़िल्म को पसंद किया. फ़िल्म की सफ़लता के बाद सागर जी ने भी शशि कपूर का शुक्रिया अदा किया और उनके सामान का पूरा किराया दिया. #शाहरुख की पहली फ़िल्म के डायलॉग 'बाज़ार' के बाद सागर सरहदी जी ने कई फिल्मों के डायलॉग लिखे. जिसमें यश चोपड़ा की 'फासलें', शाहरुख खान की पहली फ़िल्म 'दीवाना' और हृतिक की पहली फ़िल्म 'कहो ना प्यार है' शामिल हैं. उन्होंने नवाज़ुद्दीन और अमृता सुभाष के साथ 'चौसर' नाम की एक और फ़िल्म बनाई थी. जिसे अंत तक कोई डिस्ट्रीब्यूटर नहीं मिला और फ़िल्म रिलीज़ नहीं हो पाई. इस कहानी में नवाज़ एक ऐसे पति का किरदार निभा रहे थे, जो जुए में अपनी पत्नी को दांव पर लगा देता है.
अपने 80वें दशक में भी वो काम को लेकर बेहद उत्साहित थे. वो 'बाज़ार-2' बनाने की इच्छा रखते थे. वो अज़ीज़नबाई के जीवन पर भी कहानी लिख रहे थे. जो अंग्रेज़ काल में राज घरानों की नर्तकी थीं, मगर वक़्त आने पर देश के लिए अंग्रेजों के खिलाफ़ युद्ध में उतर गईं थीं. #अधूरापन सागर सरहदी को अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अधूरेपन का गहरा अहसास खलता रहा. चाहे वो उनका अधूरा काम हो जो किसी ने खरीदा नहीं, चाहें वो उनकी अधूरी प्रेम कहानियां हो जो वो आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के कारण कभी पूरा करने की हिम्मत नहीं जुटा सके. कुछ शिकायत उन्हें आज की नई पीढ़ी से भी रही, जिसने किताबों से मुंह मोड़कर मोबाइल को अपना लिया.
जब उनसे एक इंटरव्यू में (जो उनके जीवन का आखिरी इंटरव्यू साबित हुआ) एक पत्रकार ने पूछा कि आप इस उम्र में भी इतने खुश कैसे रहते हैं? इस सवाल का जो उन्होंने जवाब दिया, वो बेहद टीस भरा था. उन्होंने कहा "कैसे कह सकती हैं आप कि मैं खुश हूं? हंस रहा हूं इसलिए?".
ये बात गहरी है. एक बार में शायद ना समझ आए. अब सागर सरहदी जी नहीं हैं. उनकी 'बाज़ार' फ़िल्म के एक गाने कि ये पंक्तियां हैं....
"देख लो आज हमको जी भर के कोई आता नहीं है फ़िर मर के"