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कहानी सागर सरहदी की, जिन्होंने शशि कपूर से उधार सामान लेकर क्लासिक फिल्म बना डाली

जिन्होंने यश चोपड़ा के साथ मिलकर 'कभी-कभी', 'नूरी', 'सिलसिला' जैसी कमाल फ़िल्में दी.

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सागर सरहदी जी ने नवाज़ के साथ भी 'चौंसर' नाम की फ़िल्म बनाई थी. जो रिलीज़ नहीं हो पाई.
हिंदी फिल्मों के लेखक और निर्देशक सागर सरहदी की 21 मार्च 2021 की रात मुंबई में डेथ हो गई. वो 88 साल के थे. आज के पाकिस्तान के बफ्फा में पैदा हुए सागर को बेहद कम उम्र में हिंदुस्तान-पाकिस्तान विभाजन का दर्द झेलना पड़ा. जिसकी टीस उन्हें उनके जीवन के अंतिम वर्षों तक सालती रही. आइए सागर साहब के ज़िंदगीनामे पर एक नज़र डालते हैं. #विभाजन का दर्द 11 मई 1933 को ठेकेदार थान सिंह तलवार और प्रेम दाई के यहां जन्मे गंगा सागर तलवार जब आठवीं कक्षा में थे, तब उन्हें उस वक़्त हो रही विभाजन की हिंसा से बचने के लिए अपना घरबार छोड़कर दिल्ली आना पड़ा. दिल्ली में कुछ वक़्त तक सागर साहब और उनके परिवार को रिफ्यूजी कैम्प्स की तकलीफों से दो-चार होना पड़ा. चूंकि पिता बफ्फा के बड़े ठेकेदार थे और बड़े भाई भी कारोबर कर रहे थे, तो उन दोनों ने अपनी बचत से दिल्ली में भी दो कमरों का मकान ले लिया. बाकियों की तरह ज़्यादा दिन उन्हें छावनी में नहीं गुज़ारने पड़े. #शुरुआती सफ़र दिल्ली में सागर ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. और आगे की पढाई करने मुंबई आ गए. अपने बड़े भैया के पास, जो कुछ वर्षों से मुंबई में नौकरी करने लगे थे. यहां आकर बी.ए किया. और साथ ही साथ छोटी-मोटी नौकरियां भी जेबखर्ची के लिए करने लगे. इसके बाद एम.ए में भी दाखिला ले लिया. लेकिन नौकरी की भाग-दौड़ के चक्कर में पढाई पर ध्यान नहीं लगा पाए और फेल हो गए. इसके बाद सागर ने पढ़ाई छोड़ दी और एक ब्रिटिश कंपनी में बतौर ट्रांसलेटर नियुक्त हो गए. कुछ समय वहां काम किया और फ़िर इस्तीफ़ा थमाकर नाटकों और फिल्मों में डायलॉग्स लिखने का निर्णय लिया. #सरहदी गंगा सागर जी को बचपन से फिल्मों का बेहद शौक था. राज कपूर की फिल्मों को बहुत पसंद करते थे. जब लेखक बनने का निश्चय किया तो मसला आया सिग्नेचर नेम का. उस वक़्त के लेखक अपने नाम के साथ एक हस्ताक्षर जोड़ते थे, वैसे ही गंगा सागर जी ने भी किया. चूंकि वो सरहद पार से यहां आकर बसे थे, तो उन्होंने अपना नाम सागर सरहदी रख लिया. ये नाम रखने के पीछे की एक प्रेरणा उस वक़्त के मशहूर कलाकार जे.एल सरहदी भी रहे, जिनके सागर मुरीद थे. #यश चोपड़ा ने दिया ब्रेक हुआ कुछ यूं कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान विभाजन पर केंद्रित 'मिर्ज़ा साहिबा' नाम से सागर सरहदी के लिखे नाटक का मंचन हो रहा था. सागर के भतीजे रमेश तलवार ने नाटक देखने यश चोपड़ा को बुलाया हुआ था. रमेश तलवार उस वक़्त तक 'दीवार', 'इत्तेफाक' जैसी फिल्मों में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर काम कर चुके थे. नाटक यश चोपड़ा को बहुत पसंद आया और उन्होंने सागर जी को एक रोमांटिक फ़िल्म लिखने का काम दे दिया. सागर ने दिए वक़्त में फ़िल्म लिख दी.
यश चोपड़ा ने दिया था सागर जी को पहला ब्रेक.
यश चोपड़ा ने दिया था सागर जी को पहला ब्रेक.


फ़िल्म यश चोपड़ा को तो बहुत पसंद आई लेकिन फ़िल्म से जुड़े बाकी लोगों को सागर के लिखे सीन बहुत किताबी लगे. मगर यश जी ने उन सबकी बात को नज़रअंदाज़ करते हुए बिना किसी ख़ास फ़ेरबदल के कहानी को पास कर दिया. और फ़िल्म बनी 'कभी कभी'. यहां से सागर सरहदी के फ़िल्मी सफ़र का आगाज़ हुआ. इसके बाद सागर साहब ने यश चोपड़ा के साथ 'नूरी','फासलें','सिलसिला' जैसी कईं यादगार रोमांटिक फिल्में दीं. #शशि कपूर ने की मदद सागर सरहदी हिट रोमांटिक फिल्में तो लगातार दे रहे थे लेकिन बड़े ही बेमन से. उन्हें प्रेम की सपनीली दुनिया से ज़्यादा असल ज़िंदगी की कड़वी हकीकत बताने वाली कहानी कहने में ज़्यादा दिलचस्पी थी. जो समाज को सोचने पर विवश करे. हालांकि विभाजन के कठिन समय के अनुभव का कुछ अंश उन्होंने 'नूरी' में दिखलाया था, लेकिन इसकी पूरे तौर से शुरुआत की 1982 में रिलीज़ हुई 'बाज़ार' बनाकर. हालांकि यश चोपड़ा ने उन्हें कहा था ये फ़िल्म वो बना सकते हैं. लेकिन सागर जी ने इसे खुद ही बनाने का फैंसला किया. जिसमें बाद में यश चोपड़ा ने मदद भी की.
सागर सरहदी.
सागर सरहदी.


फ़िल्म बनाने के लिए उनकी आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं थी, तो शशि कपूर से फ़िल्म इक्विपमेंट मांगने के लिए गए. शशि जी ने भी बिना कोई किराया लिए ये कहकर सारा ज़रूरत का सामान दे दिया कि फ़िल्म चल जाए तो पैसे दे देना. ना चले तो मत देना. फ़िल्म चली. और खूब चली. गोल्डन जुबली हुई. दर्शकों और क्रिटिक्स दोनों ने ही फ़िल्म को पसंद किया. फ़िल्म की सफ़लता के बाद सागर जी ने भी शशि कपूर का शुक्रिया अदा किया और उनके सामान का पूरा किराया दिया. #शाहरुख की पहली फ़िल्म के डायलॉग 'बाज़ार' के बाद सागर सरहदी जी ने कई फिल्मों के डायलॉग लिखे. जिसमें यश चोपड़ा की 'फासलें', शाहरुख खान की पहली फ़िल्म 'दीवाना' और हृतिक की पहली फ़िल्म 'कहो ना प्यार है' शामिल हैं. उन्होंने नवाज़ुद्दीन और अमृता सुभाष के साथ 'चौसर' नाम की एक और फ़िल्म बनाई थी. जिसे अंत तक कोई डिस्ट्रीब्यूटर नहीं मिला और फ़िल्म रिलीज़ नहीं हो पाई. इस कहानी में नवाज़ एक ऐसे पति का किरदार निभा रहे थे, जो जुए में अपनी पत्नी को दांव पर लगा देता है.
अपने 80वें दशक में भी वो काम को लेकर बेहद उत्साहित थे. वो 'बाज़ार-2' बनाने की इच्छा रखते थे. वो अज़ीज़नबाई के जीवन पर भी कहानी लिख रहे थे. जो अंग्रेज़ काल में राज घरानों की नर्तकी थीं, मगर वक़्त आने पर देश के लिए अंग्रेजों के खिलाफ़ युद्ध में उतर गईं थीं. #अधूरापन सागर सरहदी को अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अधूरेपन का गहरा अहसास खलता रहा. चाहे वो उनका अधूरा काम हो जो किसी ने खरीदा नहीं, चाहें वो उनकी अधूरी प्रेम कहानियां हो जो वो आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के कारण कभी पूरा करने की हिम्मत नहीं जुटा सके. कुछ शिकायत उन्हें आज की नई पीढ़ी से भी रही, जिसने किताबों से मुंह मोड़कर मोबाइल को अपना लिया.
जब उनसे एक इंटरव्यू में (जो उनके जीवन का आखिरी इंटरव्यू साबित हुआ) एक पत्रकार ने पूछा कि आप इस उम्र में भी इतने खुश कैसे रहते हैं? इस सवाल का जो उन्होंने जवाब दिया, वो बेहद टीस भरा था. उन्होंने कहा "कैसे कह सकती हैं आप कि मैं खुश हूं? हंस रहा हूं इसलिए?".
ये बात गहरी है. एक बार में शायद ना समझ आए. अब सागर सरहदी जी नहीं हैं. उनकी 'बाज़ार' फ़िल्म के एक गाने कि ये पंक्तियां हैं....

"देख लो आज हमको जी भर के कोई आता नहीं है फ़िर मर के"

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