मंटो जिसे कमलेश्वर ने दुनिया का सबसे अच्छा कहानीकार कहा. उस बेफिक्र-बेलौस मंटो का 11 मई को जन्मदिन होता है. इस पूरे महीने हम आपको मंटो की रचनाएं पढ़वाएंगे. क्योंकि ये महीना मंटो का है. और ये रचनाएं हमें उपलब्ध कराई हैं वाणी प्रकाशन ने. इस पब्लिकेशन हाउस से
मंटो अब तक शीर्षक के साथ मंटो की सभी कहानियां प्रकाशित हुई हैं. आज की कहानी ‘गुनहगार मंटो’ के एक चैप्टर से ली गई है.
ठण्डा गोश्त
ईशर सिंह ज्यों ही होटल के कमरे में दाख़िल हुआ, कुलवंत कौर पलंग पर से उठी. अपनी तेज़-तेज़ आंखों से उसकी तरफ़ घूर के देखा और दरवाज़े की चटख़नी बन्द कर दी. रात के बारह बज चुके थे, शहर का मुज़ाफ़ात(आस-पास का क्षेत्र) एक अजीब पुरअसरार ख़ामोशी में ग़र्क़ था. कुलवंत कौर पलंग पर आलती-पालती मार कर बैठ गई. ईशर सिंह जो ग़ालिबन अपने परागन्दा(अस्त-व्यस्त) ख़यालात के उलझे हुए धागे खोल रहा था हाथ में कृपाण लिए एक कोने में खड़ा था. चन्द लम्हात इसी तरह ख़ामोशी में गुज़र गए. कुलवंत कौर को थोड़ी देर के बाद अपना आसन पसन्द न आया, और दोनों टांगे पलंग से नीचे लटका कर हिलाने लगी. ईशर सिंह फिर भी कुछ न बोला. कुलवंत कौर भरे-भरे हाथ-पैरोंवाली औरत थी. चौड़े चकले कूल्हे, थुल-थुल करने वाले गोश्त से भरपूर, कुछ बहुत ही ज़्यादा ऊपर उठा हुआ सीना, तेज़ आंखें, बालाई(ऊपर का) होंठ पर बालों का सुर्मई गुबार. ठोड़ी की साख्त साख्त(बनावट) से पता चलता था कि बड़े धड़ल्ले की औरत है. ईशर सिंह सिर नयोढाए एक कोने में चुपचाप खड़ा था. सिर पर उसकी कसकर बांधी हुई पगड़ी ढीली हो रही थी. उसके हाथ जो किरपान थामे हुए थे, थोड़े-थोड़े लरजां रहे थे, मगर उसके कदो-क़ामत खद्दो-खाल से पता चलता था कि वह कुलवंत कौर जैसी औरत के लिए मौजूंतरीन(बहुत सही) मर्द है. चन्द और लम्हात जब इसी तरह ख़ामोशी में गुज़र गए तो कुलवंत कौर छलक पड़ी. लेकिन तेज़-तेज़ आंखों को नचा कर वह सिर्फ़ इस कदर कह सकी: ‘‘ईशर सिंयां’’
ईशर सिंह ने गरदन उठा कर कुलवंत कौर की तरफ़ देखा, मगर उसकी निगाहों की गोलियों की ताब न लाकर मुंह दूसरी तरफ़ मोड़ लिया. कुलवंत कौर चिल्लाई: ‘‘ईशर सिंयां.’’ लेकिन फौरन ही आवाज़ भींच ली और पलंग पर से उठ कर उसकी ओर जाते हुए बोली: ‘‘कहां रहे तुम इतने दिन?’’
ईशर सिंह ने ख़ुश्क होंठों पर ज़ुबान फेरी: ‘‘मुझे मालूम नहीं.’’ कुलवंत कौर भिन्ना गई: ‘‘ये भी मांया जवाब है!’’ ईशर सिंह ने किरपान एक तरफ़ फेंक दी औरपलंग पर लेट गया. ऐसा मालूम होता था कि वह कई दिनों का बीमार है. कुलवंत कौर ने पलंग की तरफ देखा जो अब ईशर सिंह से लबालब भरा था. उसके दिल में हमदर्दी का जज़्बा पैदा हो गया. चुनांचे उसके माथे पर हाथ रखकर बड़े प्यार से पूछा: ‘‘जानी, क्या हुआ है तुम्हें?’’ ईशर सिंह छत की तरफ़ देख रहा था. उससे निगाहें हटा कर उसने कुलवंत कौर के मानूस(जाना-पहचाना) चेहरे को टटोलना शुरू किया: ’’कुलवंत’’ उसकी आवाज़ में दर्द था. कुलवंत कौर सारी सिमटकर अपने बालाई होंठ में आ गई: ‘‘हां, जानी!’’ कहकर वह उसको दांतों से काटने लगी. ईशर सिंह ने पगड़ी उतार दी. कुलवंत कौर की तरफ़ सहारा लेने वाली निगाहों से देखा, उसके गोश्त भरे कूल्हे पर ज़ोर से धप्पा मारा और सर को झटका देकर अपने आपसे कहा: ‘‘यह कुड़िया दिमाग़ ही ख़राब है. झटका देने से उसके केश खुल गए. कुलवंत कौर उंगलियों से उनमें कंघी करने लगी. ऐसा करते हुए उसने बड़े प्यार से पूछा: ‘‘ईशर सियां कहां रहे तुम इतने दिन?’’ ‘‘बुरे की मां के घर.’’ ईशर सिंह ने कुलवंत कौर को घूर के देखा और दफ़अतन(अचानक) दोनों हाथों से उसके उभरे हुए सीने को मसलने लगा: ‘‘क़सम वाहेगुरू की! बड़ी जानदार औरत हो.’’ कुलवंत कौर ने एक अदा के साथ ईशर सिंह के हाथ एक तरफ झटक दिए और पूछा: ‘‘तुम्हें मेरी क़सम! बताओ कहां रहे...? शहर गए थे?’’ ईशर सिंह ने एक ही लपेट में अपने बालों का जूड़ा बनाते हुए जवाब दिया: ‘‘नहीं.’’ कुलवंत कौर चिड़ गई: ‘‘नहीं तुम ज़रूर शहर गये थे-और तुमने बहुत सा रुपया लूटा है जो मुझसे छुपा रहे हो.’’ ‘‘वह अपने बाप का तुख़्म(बीज) न हो जो तुम से झूठ बोले...’’ कुलवंत कौर थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गई, लेकिन तुरंत ही भड़क उठी: ‘‘लेकिन मेरी समझ में नहीं आता, उस रात तुम्हें हुआ क्या...? अच्छे-भले मेरे साथ लेटे थे, मुझे तुमने वो तमाम गहने पहना रखे थे जो तुम शहर से लूट के लाये थे. मेरी भप्पियां ले रहे थे. पर जाने एकदम तुम्हें क्या हुआ, उठे कपड़े पहन कर बाहर निकल गए...?’’ ईशर सिंह का रंग ज़र्द हो गया. कुलवंत कौर ने ये तब्दीली देखते ही कहा: ‘‘देखा, कैसे रंग पीला पड़ गया... ईशर सियां, क़सम वाहे गुरू की, ज़रूर कुछ दाल में काला है!’’ ‘‘तेरी जान की क़सम, कुछ भी नहीं.’’ ईशर सिंह की आवाज़ बेजान थी. कुलवंत कौर का शुब्हा और ज़्यादा मज़बूत हो गया. बालाई होंठ भींचकर उसने एक-एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा: ‘‘ईशर सियां, क्या बात है? तुम वह नहीं हो जो आज से आठ दिन पहले थे?’’ ईशर सिंह एकदम उठ बैठा, जैसे किसी ने उस पर हमला किया हो. कुलवंत कौर को अपने तनोमन्द(बलिष्ठ) बाज़ुओं में समेटकर उसने पूरी क़ुव्वत के साथ भंभोड़ना शुरू कर दिया: ‘‘जानी मैं वही हूं ...घुट-घुट पा जफ्फियां, तेरी निकले हड्डियां दी ग़र्मी... कुलवंत कौर ने कोई मुजाहेमत(विरोध) न की . लेकिन वह शिकायत करती रही: ‘‘तुम्हें उस रात हो क्या गया था?’’ ‘‘बुरे की मां का...वो हो गया था.’’ ‘‘बताओगे नहीं?’’ ‘‘कोई बात हो तो बताऊं.’’ ‘‘मुझे अपने हाथों से जलाओ अगर झूठ बोलो.’’ ईशर सिंह ने अपने बाज़ू उसकी गर्दन में डाल दिये और होंठ उसके होंठों में गाड़ दिये.मूंछों के बाल कुलवंत कौर के नथुनों में घुसे तो उसे छींक आ गई. दोनों हंसने लगे.
ईशर सिंह ने अपनी सदरी उतार दी और कुलवंत कौर को शहवत(कामुक) नज़रों से देख कर कहा: ‘‘आ जाओ एक बाज़ी ताश की हो जाये.’’ कुलवंत कौर के बालाई होंठ पर पसीने की नन्ही-नन्ही बूंदें फूट आईं. एक अदा के साथ उसने अपनी आंखों की पुतलियां घुमायी और कहा: ‘‘चल, दफ़ा हो...’’ ईशर सिंह ने उसके भरे हुए कूल्हे पर ज़ोर से चुटकी भरी. कुलवंत कौर तड़प कर एक तरफ़ हट गई: ‘‘न कर ईशर सियां, मेरे दर्द होता है...’’ ईशर सिंह ने आगे बढ़कर कुलवंत कौर का बालाई होंठ अपने दांतों के तले दबा लिया और किचकिचाने लगा. कुलवंत कौर बिल्कुल पिघल गई. ईशर सिंह ने अपना कुर्ता उतार कर फेंक दिया और कहा: ‘‘लो, फिर हो जाये तुरप चाल...’’ कुलवंत कौर का बालाई होंठ कंपकंपाने लगा. ईशर सिंह ने दोनों हाथों से कुलवंत कौर की क़मीज़ का घेरा पकड़ा और जिस तरह बकरे की खाल उतारते हैं, उसी तरह उसको उतारकर एक तरफ़ रख दिया. फिर उसने घूर के उसके नंगे बदन को देखा और ज़ोर से बाज़ू पर चुटकी लेते हुए कहा: ‘‘कुलवंत! क़सम वाहगुरू की, बड़ी करारी औरत है तू...’’ कुलवंत कौर अपने बाज़ू पर उभरते हुए लाल धब्बे को देखने लगी. बड़ा ज़ालिम है तू ईशर सियां !’’ ईशर सिंह अपनी घनी काली मूंछों में मुस्कुराया: ‘‘होने दे आज ज़ुल्म?’’ और ये कहकर उसने और मज़ीद(और अधिक) ज़ुल्म ढाने शुरू किये. कुलवंत कौर का बालाई होंठ दांतों तले किचकिचाया. कान की लौओं को काटा, उभरे हुए सीने को भंभोड़ा. भरे हुए सीने पर आवाज़ पैदा करने वाले चांटे मारे. गालों के मुंह भर-भर के बोसे लिए, चूस-चूस के उसका सारा सीना थूकों से लथेड़ दिया...कुलवंत कौर तेज़ आंच पर चढ़ी हुई हांडी की तरह उबलने लगी. लेकिन ईशर सिंह इन तमाम हीलों के बावजूद ख़ुद में हरारत पैदा न कर सका. जितने गुर और जितने दांव उसे याद थे सबके सब उसने पिट जाने वाले पहलवान की तरह इस्तेमाल कर दिया लेकिन कोई कारगर न हुआ. कुलवंत कौर ने, जिसके बदन के सारे तार तन कर ख़ुद-ब-ख़ुद बज रहे थे, ग़ैर ज़रूरी छेड़छाड़ से तंग आकर कहा: ‘‘ईशर सियां, काफी फेंट चुका अब पत्ता फेंक!’’
यह सुनते ही ईशर सिंह के हाथ से जैसे ताश की सारी गड्डी नीचे फिसल गई. हांफता हुआ वह कुलवंत कौर के पहलू में लेट गया और उसके माथे पर सर्द पसीने के लेप होने लगे. कुलवंत कौर ने उसे गर्माने की बहुत कोशिश की. मगर नाकाम रही. अब तक सब कुछ मुंह से कहे बग़ैर ही होता रहा था. लेकिन कुलवंत कौर के मुंतज़िर-ब-अमल आज़ा(प्रतीक्षारत अंग) को सख़्त नाउम्मीदी हुई तो वह झल्लाकर पलंग से नीचे उतर गई . सामने खूंटी पर चादर पड़ी थी, उसको उतार कर उसने जल्दी-जल्दी ओढ़ कर और नथुने फुलाकर, बिफरे हुए लहजे में कहा: ‘‘ईशर सियां, वह कौन हरामज़ादी है जिसके पास तू इतने दिन रह कर आया है और जिसने तुझको निचोड़ डाला है?’’ ईशर सिंह पलंग पर लेटा हांफता रहा और उसने कोई जवाब न दिया. कुलवंत कौर गुस्से से उबलने लगी: ‘‘मैं पूछती हूं, कौन है वह चड्डो... कौन है वो अलीफती...कौन है वो चोर पत्ता?’’ ईशर सिंह ने थके हुए लहजे में जवाब दिया ‘‘कोई भी नहीं कुलवंत, कोई भी नहीं.’’ कुलवंत कौर ने अपने भरे हुए कूल्हों पर हाथ रख कर एक अज़्म(दृढ़ निश्यच): के साथ कहा: ‘‘ईशर सियां, मैं आज झूठ-सच जानकर रहूंगी...खा वाहे गुरू जी की क़सम...क्या इसकी तह में कोई औरत नहीं...?’’ ईशर सिंह ने कुछ कहना चाहा, मगर कुलवंत कौर ने इसकी इजाज़त न दी: ‘‘क़सम खाने से पहले सोच ले कि मैं भी सरदार नेहाल सिंह की बेटी हूं...तिक्का बोटी कर दूंगी अगर तूने झूठ बोला...ले अब खा वाहे गुरू की क़सम...क्या इसकी तह में कोई औरत नहीं...?’’ ईशर सिंह ने बड़े दुख के साथ इसबात(स्वीकारोक्ति) में सर हिलाया. कुलवंत कौर बिल्कुल दीवानी हो गई. उसने लपक कर कोने में से किरपान उठाई, म्यान को केले के छिल्के की तरह उतारकर एक तरफ फेंका और ईशर सिंह पर वार कर दिया. आन की आन में लहू के फव्वारे छूट पड़े. कुलवंत कौर की इससे भी तसल्ली न हुई तो उसने वहशी बिल्लियों की तरह ईशर सिंह के केश नोचने शुरू कर दिए. साथ ही साथ वह अपनी नामालूम सौत को मोटी-मोटी गालियां देती रही. ईशर सिंह ने थोड़ी देर के बाद नकाहत भरी इलितजा की: ‘‘जाने दे अब कुलवंत, जाने दे...’’ उसकी आवाज़ में बला का दर्द था. कुलवंत कौर पीछे हट गई. ख़ून ईशर सिंह के गले से उड़-उड़ कर उसकी मूंछों पर गिर रहा था. उसने अपने लरजां होंठ खोले और कुलवंत कौर की तरफ़ शुक्रिए और गिले की मिली-जुली निगाहों से देखा: ‘‘मेरी जान, तुमने बहुत जल्दी की...लेकिन जो हुआ ठीक है.’’ कुलवंत कौर का हसद फिर भड़का: ‘‘मगर वो कौन है? तुम्हारी मां!’’ लहू ईशर सिंह की ज़ुबान तक पहुंच गया. जब उसने इसका जाइका चखा तो उसके बदन में झुरझुरी-सी दौड़ गई: और मैं... और मैं... भैणया छह आदमियों को क़त्ल कर चुका हूं...इसी कृपाण से...’’ कुलवंत कौर के दिमाग़ में सिर्फ दूसरी औरत थी: ‘‘मैं पूछती हूं कौन है वह हरामज़ादी?’’ ईशर सिंह की आंखें धुंधला रही थीं. एक हल्की सी चमक उनमें पैदा हुई और उसने कुलवंत कौर से कहा: ‘‘गाली न दे उस भड़वी को...’’ कुलवंत चिल्लाई: ‘‘मैं पूंछती हूं, वह है कौन? ईशर सिंह के गले में आवाज़ रुंध गई, ‘‘बताता हूं’’ यह कह कर उसने अपनी गर्दन पर हाथ फेरा और उस पर अपना जीता-जीता खून देख कर मुस्कुराया: ‘‘इंसान की माया भी एक अजीब चीज़ है...’’ कुलवंत कौर उसके जवाब की मुंतज़िर थी: ‘‘ईशर सियां, तू मतलब की बात कर...’’ ईशर सिंह की मुस्कुराहट उसकी लहू भरी मूंछों में और ज़्यादा फैल गई:‘‘मतलब ही की बात कर रहा हूं. गला चिरा है मांया मेरा...अब धीरे-धीरे ही सारी बात बताऊंगा.’’ और जब वो बात बताने लगा तो उसके माथे पर ठण्डे पसीने के लेप होने लगे: ‘‘कुलवंत मेरी जान! मैं तुम्हें नहीं बता सकता, मेरे साथ क्या हुआ...? इंसान कुडीया यह भी एक अजीब चीज़ है...शहर में लूट मची तो सब की तरह मैंने भी इसमें हिस्सा लिया...गहने लूटे और रुपये-पैसे जो भी हाथ लगे, मैंने तुम्हें दे दिये...लेकिन एक बात तुम्हें न बताई...’ ईशर सिंह ने घाव में दर्द महसूस किया और कराहने लगा. कुलवंत कौर ने उसकी तरफ़ तवज्जो न दिया और बड़ी बेरहमी से पूछा: ‘‘कौन सी बात?’’ ईशर सिंह ने मूंछों पर जमते हुए लहू को फूंक के ज़रिए से उड़ाते हुए कहा: ‘‘जिस मकान पर...मैंने धावा बोला था...उसमें सात आदमी थे...छ: मैंने...क़त्ल कर दिये...इसी किरपान से जिससे तूने मुझे... छोड़ इसे...सुन...एक लड़की थी बहुत सुन्दर...उसको उठाकर मैं अपने साथ ले आया.’’ कुलवंत कौर ख़ामोश सुनती रही. ईशर ने एक बार फिर फूंक मार के मूंछों पर से लहू उड़ाया: ‘‘कुलवंत जानी, मैं तुमसे क्या कहूं कितनी सुन्दर थी...मैं उसे भी मार डालता, पर मैंने कहा, ‘‘नहीं, ईशर सियां, कुलवंत कौर के तो हर रोज़ मज़े लेता है, ये मेवा भी चख देख...’’ कुलवंत कौर ने सिर्फ़ इस क़दर कहा: ‘‘हूं...’’ ...और मैं उसे कंधे पर डाल कर चल दिया...रास्ते में...क्या कह रहा था मैं...? हां रास्ते में...नहर की पटरी के पास थोहर की झाड़ियों तले मैंने उसे लिटा दिया...पहले सोचा कि फेंटू, लेकिन पिफर ख़्याल आया कि नहीं...ये कहते-कहते ईशर सिंह की ज़बान सूख गई. कुलवंत कौर ने थूक निगल कर अपना हलक़ तर किया और पूछा: ‘‘फिर क्या हुआ?’’ ईशर सिंह के हलक़ से बमुश्किल यह अल्फ़ाज़ निकले: मैंने...पत्ता फेंका...लेकिन...लेकिन’’ उसकी आवाज़ डूब गई. ईशर सिंह ने अपनी बन्द होती हुई आंखें खोली और कुलवंत कौर के जिस्म की तरफ़ देखा, जिसकी बोटी-बोटी थिरक रही थी: ‘‘वह...वह मरी हुई थी...लाश थी...बिल्कुल ठण्डा गोश्त...जानी मुझे अपना हाथ दे...’’ कुलवंत कौर ने अपना हाथ ईशर सिंह के हाथ पर रखा जो बर्फ़ से भी ज़्यादा ठण्डा था. 