वे बात कर रहे थे फिल्म पत्रिका 'पिंकविला' से. उनसे पूछा गया कि क्या कोई ऐसा सीन था, जिसे निभाने में उन्हें बहुत दिक्कत हुई हो. अरुण ने बताया कि आमतौर पर उन्हें ज़्यादा तैयारी नहीं करनी पड़ती थी. लेकिन एक सीन, या कहिए एक रिएक्शन, पेचीदा साबित हुआ. जहां परफॉर्म करने से पहले उन्हें कुछ देर सोचना पड़ा,
"एक सीन है, जहां राम वनवास में हैं. उनके भाई भरत उन्हें उनके पिता की मृत्यु के बारे में बताने आते हैं. वहां जो रिएक्शन मुझे देना था, उसमें कुछ चैलेंज था. क्योंकि राम का कैरेक्टर इंसान के भेष में भगवान है. हालांकि उन्होंने कभी खुद को भगवान के रूप में नहीं दिखाया. इसलिए कैरेक्टर और उनकी बैक-स्टोरी को दिमाग में रखते हुए रिएक्शन देना थोड़ा मुश्किल था. मैं कोई लाउड रिएक्शन नहीं देना चाहता था. या शरीर से कोई ऐसा इशारा, जो सही ना जंचे. इतना लाउड नहीं हुआ जा सकता था, कि यह लगे 'अरे, ये इंसानों जैसे रो रहा है". लेकिन रिएक्शन का ज़्यादा सॉफ्ट होना भी सही नहीं था. मुझे याद है कि मैंने उस सीन को सही पकड़ने में कुछ समय लिया था."यहां देखिए भरत मिलाप के उस सीन की एक झलकी -
इस तरह एक्टिंग की बारीकियों को पकड़ना वाकई एक बड़ी चुनौती है. लेकिन मुश्किलें यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाती. अरुण बताते हैं कि उस समय पर शूटिंग करना काफ़ी मुश्किल होता था. जहां वे शूट करते थे, वहां बहुत कम सुविधाएं थीं. केवल बेसिक सुविधाएं. शूटिंग का कोई विशेष टाइम नहीं होता था -
"जब हम शूटिंग करना शुरू करते थे, हमें नहीं पता होता था कि ख़त्म कब करेंगे. उस समय शिफ्ट जैसा कुछ नहीं होता था. सागर साब को रात में शूटिंग करना बहुत पसंद था. इसलिए ज़्यादातर समय हम पूरी रात शूटिंग करते थे. इकट्ठे मिलकर काम करते थे. वे मुझे परिवार की तरह समझते थे. और मुझे याद है कि हम इकट्ठे उठते-बैठते थे, काम करते थे. टाइम की कोई फ़िक्र नहीं होती थी."वे आगे बताते हैं कि मेक-अप के लिए कोई अलग कमरा नहीं होता था. सब तैयार हो जाते, तो शूटिंग शुरू हो जाती. लगातार 24 घंटे से भी ज़्यादा उन्होंने काम किया है. सागर टाइम की तरफ नहीं देखते थे. और पैक-अप तभी होता था, जब वे संतुष्ट हो जाते थे. अरुण कहते हैं -
"आज हमारे पास नियम हैं. लेकिन उस समय केवल हमारा जूनून था, जो हमें आगे खींचता था."उस समय एक्टर्स के लिए प्लास्टिक की ज्यूलरी नहीं होती थी. जो बाजूबंद और ज्यूलरी वे पहनते थे, सब मैटल के बने हुए थे. उनके किनारे तेज़ धार वाले होते थे. इसलिए उन्हें पहनने से अक्सर एक्टर्स के शरीर पर खरोंच पड़ जाती थीं. ये सब गहने गर्मी में पहनने होते थे. क्योंकि ए.सी. फ्लोर नहीं थे. बहुत पसीना आता था. वे बहुत असहज महसूस करते थे. लेकिन फिर भी उन्हें काम करने में मज़ा आता था.

रामायण में 'सीता स्वयंवर' का एक सीन
इस मेहनत और जूनून का परिणाम तो हम देख ही सकते हैं. उसके बाद भी उसी परिवार द्वारा दो रामायण और बनाई गईं. लेकिन वो बात नहीं बनी. इसके दो कारण अरुण ने बताए. एक तो यह कि उनकी कास्ट पर कुछ अलग ही कृपा थी. और दूसरा यह कि हर किसी ने उसमें अपना दिल लगाया था.
वीडियो देखें - फिरोज़ खान की 'कुर्बानी' ने कैसे रामानंद सागर को 'रामायण' बनाने को प्रेरित किया?