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कंपनी राज के पहले विद्रोही राजा फतेह बहादुर की कहानी, जिन्हें आजतक उचित सम्मान न मिला!

महाराजा फतेह बहादुर शाही ने 23 साल तक भूमिगत रहकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा था युद्ध

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राजा फतेह बहादुर शाही अंग्रेजों के खिलाफ सबसे लंबे समय तक युद्ध लड़ने वाले राजा हैं (सभी फोटो: डॉ. मुन्ना पाण्डेय)
आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में आज़ादी के कई ज्ञात-अज्ञात सेनानियों की चर्चा हो रही है पर अफसोस जिस वीर ने पहली बार स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से विद्रोह किया था, उसे मुख्यधारा की मीडिया ही नहीं बल्कि इतिहासकारों और साहित्यकारो ने भी अनदेखा कर दिया है.बक्सर के युद्ध में हार के बाद भारत की राजनीतिक और प्रशासनिक स्थितियां और स्वरूप बदल गया था. सन 1765 ई. में जब शाह आलम ने बिहार, बंगाल और उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को सौंप दी, तब सारण के कलेक्टर ने हुस्सेपुर राज (अब वर्तमान बिहार के गोपालगंज जिले का एक गाँव) के यशस्वी महाराज फतेह बहादुर शाही (Raja Fateh Bahadur Shahi ) से राजस्व की मांग की और उनसे कंपनी की अधीनता स्वीकार करने की भी बात कही. वीर फतेह बहादुर शाही ने इन दोनों बातों को मानने से इंकार कर दिया.इसके बाद से सारण प्रान्त के इस इलाके में लगभग तेईस वर्षों तक फतेहबहादुर शाही अंग्रेजों से युद्ध करते रहे.
फतेह बहादुर का यह युद्ध कभी सीधे सामने डट कर था तो कभी छापामार/गुरिल्ला ढंग से. सीमित संसाधनों और एक छोटी सेना जिनमें प्रशिक्षित सैनिकों, घुड़सवारों की जितनी संख्या थी, उससे ज्यादा वहां की जनता की भी थी. संसाधनों की कमी और बाकी पड़ोसी रियासतों से प्रत्यक्षतः मदद नहीं मिलने के बावजूद महाराजा फतेह शाही ने अपना संघर्ष बांकजोगिनी के जंगलों से चालू रखा.बांकजोगिनी का इलाका अवध के नवाब के राज में था, अतः उधर कंपनी का वश नहीं चल पा रहा था. फतेह शाही के संघर्ष का क्षेत्र बांकजोगिनी होने और युद्धक पद्धति गुरिल्ला होने का फायदा उठाते हुए अंग्रेजों ने उनके राज्य हुस्सेपुर के किले को तबाह कर दिया.
हुस्सेपुर किले का एक खंडहर
हुस्सेपुर किले का एक खंडहर


अंग्रेजों से संघर्ष करने वाले वीर राजाओं के इतिहास में महाराजा फतेह शाही का विद्रोह सम्भवतः पहला और आखिरी ही है, जहां किसी राजा ने इतने लंबे समय तक सफल विद्रोह किया. किले के ध्वस्त हो जाने के बाद फतेह शाही ने आज के उत्तरप्रदेश के तमकुहीराज में अपना राज्य स्थापित किया. तमकुहीराज के झगरहवा बाग में हुए लड़ाई में महाराजा के पुत्र की शहादत के बावजूद अंग्रेजी सत्ता के प्रति विद्रोह का भाव रंच मात्र भी कम न हुआ. फतेहबहादुर शाही के संघर्ष की एक विशेषता यह भी रही कि उन्होंने जीवन भर न अंग्रेजी राज की अधीनता स्वीकार की, ना अपने राज में अंग्रेजो को चैन से टैक्स वसूलने दिया. भोजपुरिया इलाके के सारण क्षेत्र के वीर फतेह शाही की दास्तान का इतिहास भारतीय इतिहासकारों की नजर से बेशक परे हटा हो पर अपने इस विद्रोही वीर विपक्षी पर अंग्रेजों और पश्चिमी अध्येताओं ने खूब लिखा है.
यह आश्चर्यजनक है कि पलासी और बक्सर के युद्ध को दर्ज करने वाली निगाहें सीधे 1857 पर जा पहुंचती हैं. 1857 के विद्रोह को सीमा मान बैठे इतिहासकारों को मैनेजर पाण्डेय का वह उद्धरण पढ़ लेना चाहिए जहाँ उन्होंने लिखा है कि
'उस वक़्त एक अंग्रेज ने लिखा था कि जितनी परेशानी पेशवा से नहीं है उससे अधिक परेशान तो अकेले फतेहबहादुर शाही ने कर रखा है.'
14 जून 1775 को ईस्ट इंडिया कंपनी के इसाक रोज, साइमन रोज, इमन ता लेफ्टिनेंट अर्सकिन द्वारा भेजे पत्र की प्रतिलिपि के हवाले से यह तथ्य सामने आया कि वारेन हेस्टिंग्स और उनकी परामर्शदात्री समिति को भेजे इस पत्र में लिखा गया -
" ...फतेहबहादुर शाही हुस्सेपुर राज्य के ताल्लुकेदार हैं. वह सन 1768 ई. से कंपनी सरकार से विद्रोह कर बैठे हैं और टैक्स देने से स्पष्ट मना कर चुके हैं....हम सब आपसे और आपके सभी सभासदों से अनुरोध करते हैं कि आप लोगों को फतेहबहादुर शाही को पकड़ने के लिए जो व्यवस्था उचित जान पड़े आज सब हमलोगों को कराने का कष्ट करें." 
वारेन हेस्टिंग्स को भेजे गए पत्र की प्रतिलिपि
वारेन हेस्टिंग्स को भेजे गए पत्र की प्रतिलिपि


इस चिट्ठी के साथ ही मैनेजर पाण्डेय यह स्थापित करते हैं कि अंग्रेजी राज के खिलाफ जो चिंगारी फतेह शाही ने जलाई थी उसी का विस्फोट 1857 की क्रांति के रूप में हुआ. इतिहासकार रामलखन शुक्ल ने भी फतेह शाही विद्रोह को भारत में कंपनी राज के खिलाफ पहला जन विद्रोह कहा है.
आज हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं लेकिन गोपालगंज के आज़ादी के जिस पहले नायक की इतनी विपुल गौरवशाली और त्यागपूर्ण ऐतिहासिक विरासत है उसके योगदान और त्याग को भारत वर्ष तो छोड़िए उनके आने प्रान्त और इलाके ने दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से बिसरा दिया है. इस ऐतिहासिक तीन दशक लंबे संघर्ष और भारत के इस लाल से जिला प्रशासन तक अनभिज्ञ है. कुछ माह पूर्व गोपालगंज जिले के आधिकारिक वेबसाइट पर महाराजा फतेह शाही को डकैत के रूप में लिखा गया था. इन लेख के लेखक, उसके अकादमिक साथियों, फतेह शाही विद्रोह को जानने वालों के कड़े विरोध के बाद प्रशासन ने पूरा हिस्सा ही डिलीट कर दिया और अफसोस इसके बाद उन्होंने हुस्सेपुर का वास्तविक इतिहास का जिक्र करना भी जरूरी नहीं समझा है और हम भारतीय स्वातंत्र्य का अमृत महोत्सव मना रहे है. इतिहासकार प्रो. जे एन सिन्हा अपने द हिन्दू के एक लेख 'vignettes from an age of war(21 मई, 2011) में लिखते हैं,
'His war against the British may probably be considered as India's First War of Independence and he as its hero. He was a contemporary of Tipu Sultan whom the British defeated and killed brutally; but Sahi was never caught or surrendered to them.'
यह बात इतिहास सम्मत है कि 27, फरवरी 1781 में इस योद्धा से त्रस्त होकर वारेन हेस्टिंग्स और एडवर्ड व्हीलर के हस्ताक्षर से एक परवाना निकाला जिसमें 27 फरवरी सन 1781 को वारेन हास्टिंग्स और एडवर्ड व्हीलर ने अपने इस पत्र में सारण जिले के कलेक्टर को एक आदेश दिया की राजा फ़तेह शाही को पकड़ने वाले को 20,000(बीस हजार रुपये) रुपये का इनाम दिया जाएगा. इस पत्र में इस बात की भी चर्चा है की नवाब अवध को अर्ज़ी दी गयी है की वो अपने क्षेत्र से फ़तेह शाही को निकाल दें. तब तक हुस्सेपुर से सटा बांकजोगिनी का जंगल अवध के नवाब के अधीन था.
राजा फ़तेह शाही को पकड़ने की इतनी बड़ी रकम इनाम में मिलने की घोषणा के बादजूद उनको अँगरेज़ पकड़ नहीं पाए.आम जनता ने इनाम से ज्यादा अपने राजा का साथ देना पसंद किया.
A reward of 20,000 rupees was declared by the English for anyone who would help catch Raja Fateh Sahi. Unfortunately for the English, the citizens preferred to side with their king. (Source:Soldiering in india 1764-1787,extracts form journals and letters left by Lt. Colonel Allen Macpherson and Lt. Colonel John Macpherson)
आज के हिसाब से सोचिए कि यह कितनी बड़ी इनामी राशि थी और इस बड़ी इनामी राशि के रखे जाने के पीछे अंग्रेजी राज के छटपटाहट को समझा जा सकता है. महाराजा फ़तेह शाही को पकड़ने की खातिर इतनी बड़ी रकम इनाम में दिए जाने की घोषणा के बावजूद अंग्रेज उनको न तो कभी पकड़ पाए न ही हरा सके.महाराजा फतेह शाही की असल शक्ति उनके समाज के हर वर्ग के लोग थे. यही वजह थी कि उन्होंने इतना लंबा संघर्ष जारी रखा.
बिना जनता के सहयोग के यह कैसे सम्भव होता. इतिहास की बड़ी क्रांतियाँ जनता का साथ पाकर ही संभव हुई हैं. फतेह शाही के विद्रोह को इस मायने में विशिष्टता हासिल है कि उनके विद्रोह में उनकी प्रजा का हर वर्ग उनके साथ ही पलायित हुआ और जाकर उनके द्वारा तमकुहीराज में बसाया गया. आधुनिक भारत के इतिहास में ऐसे जनप्रिय राजा के कम ही उदाहरण दिखाई देते हैं.
हालांकि महाराज के चचेरे भाई बाबू बसंत शाही ने अपने अग्रज के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ दिया, जिस वजह से दंडात्मक कार्यवाही के रूप में महाराजा फतेह शाही ने वर्तमान गोपालगंज के जादोपुर में अपने भाई बसन्त शाही का सर कलम कर दिया. साथ ही, अंग्रेजों के टैक्स सुपरिटेंडेंट मीर जमाल का सर भी उन्होंने कलम कर दिया. इतिहास की इस घटना पर भोजपुरी के कवि कुलदीप नारायण राय 'झड़प' ने 'मीर जमाल वध' नामक खण्ड काव्य भी लिखा है -
''फतेह शाही वीर लाख में/एक अकेले लाख समान/जइसे बाज झपट मारे/झपटसु, डपटसु करसु प्यान..."
इतिहासकार जे एन सिन्हा ने अपने इसी लेख में दर्ज किया है कि
On May 3, on intelligence about the enemy camping at Jadopur near Huseypur, he dashed through darkness with a 1000-strong cavalry to reach the enemy camp just before dawn. In the bloody skirmish that followed, he killed cousin Basant Sahi and Mir Jamal, and escaped with the booty to his forest fastness. Hundreds were left behind dead and wounded... Basant Sahi's head was cut off and sent to his widow, who committed sati along with 13 aides whose husbands too were killed in the battle. The 14 stupas containing their ashes at Huseypur are worshiped till date.'
गोपालगंज जिले के मिश्र बतरहां गाँव में इस सती स्थान के चिन्ह मौजूद है और स्थानीय जनता द्वारा इस सती स्थान की पूजा भी होती है.
एक इतिहासकार ने अक्षयबर दीक्षित द्वारा संपादित किताब में बेहद तल्खी से यह दर्ज किया है कि अंग्रेजों से बसंत शाही के परिवार की निष्ठा के फलस्वरूप अंग्रेजी सरपरस्ती में हथुआ राज का वैभव जगमगाया और अंग्रेजी सत्ता से सतत टकराहट की कीमत हुस्सेपुर की रियासत ने तमकुहीराज पलायित होकर चुकाई. अंग्रेजों ने हुस्सेपुर के किले को ध्वस्त करके उसको हथुआ राज में मिला दिया.
महाराजा फतेह शाही के विद्रोह का एक बड़ा पड़ाव तबके गोपालगंज में स्थित अंग्रेजों के कैंटोनमेंट एरिया लाइन बाज़ार पर हमला भी रहा, जिसमें एक अनुमान अनुमान के हिसाब से महाराजा और उनके सिपाहियों द्वारा लगभग दो सौ से अधिक अंग्रेजों की हत्या की गई थी. बेहद सीमित संसाधन और एक छोटे तोपखाने से किये गए इस हमले से इस इलाके में कंपनी राज की चूलें हिल गईं. कंपनी के अधिकारियों में भय का यह आलम था कि इस हमले के घबराए कंपनी के कई अंग्रेज अधिकारी सपरिवार पटना मिलिसिया भाग गए थे. एक और महत्वपूर्ण ऐतिहासिक बिंदु का सिरा फतेह शाही विद्रोह से जुड़ता है. वह है - संन्यासी विद्रोह का.
संन्यासी विद्रोह के सारण जनपद के इतिहास में भूमिका देखने पर हम पाते हैं कि फतेह शाही विद्रोह में संन्यासियों का भी सक्रिय सहयोग मिला था. सारण के इस इतिहास पर अभी बहुत काम होना बाकी है. अपने उम्र के आखिरी पड़ाव में महाराजा फतेह शाही अपने राज को अपने परिवार को सौंप के पश्चिम की ओर चले गए. लेकिन उनकी वीरता का प्रताप यह रहा कि लगभग ढाई दशक तक अंग्रेजी सत्ता सारण के इस इलाके में पूर्णतया स्थापित और स्थिर नहीं रह पाई.
म्यूज़ीअम में रखी तलावर

महाराजा फतेहबहादुर शाही टीपू सुल्तान के समकालीन थे और उनका राज्य नारायणी (गंडक) गंगा, सरयू के त्रिकोण में स्थित था. उनके पूर्वज राजा मयूरभट्ट का इतिहास ईस्वी पूर्व 500 से शुरू होता है. मुगलकालीन भारत में बादशाह अकबर ने फतेह शाही के पूर्वज राजा कल्याण मल्ल जी को महाराजा बहादुर के उपाधि दी और फिर आगे चलकर महाराजा क्षेमकरण शाही को शाही के उपाधि से सम्मानित किया गया. तबसे इस राजपरिवार की दोनों शाखाएँ (तमकुही राज और हथुआ राज) अपना नाम के साथ मल्ल छोड़कर शाही लगाते हैं. इस वंश के टाइटल का भी रोचक इतिहास है. ये भट्ट से सेन, सेन से सिंह, सिंह से मल्ल और फिर मल्ल से शाही हुए. हुस्सेपुर से तमकुही विस्थापित होने के बाद भी इस राजपरिवार की अंग्रेजी हुकूमत से हमेशा ठनी रही. और इसके बड़े नायक थे - महाराजा फतेह शाही. यह बात भी जानने योग्य है कि इतिहास में जो कथा चेत सिंह विद्रोह के नाम से मशहूर है, उसमें भी महाराजा फतेह शाही का युध्द कौशल ही सबसे प्रमुख था. जुलाई फतेह शाही की वीरता के आगे 1781 में बनारस से हेस्टिंग्स को भागकर चुनार छिपना पड़ा था और लोक में यह गीत प्रचलित हुआ
 'घोड़ा पर हौदा हाथी पर जीन, भागा चुनार को वारेन हिस्टिन.'
आज आज़ादी के इतने बरस बाद भी महाराजा फतेह बहादुर शाही के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को उचित और सम्मानित स्थान नहीं मिला है. यह भूलना नहीं चाहिए कि इतने लंबे समय तक अंग्रेजी सत्ता से सफलतापूर्वक लड़ने वाला आज़ादी की पहली बागी तलवार वीर फतेह शाही की थी, जिनका समय बक्सर के युद्ध के बाद से शुरू होकर 1790 तक विस्तृत और गरिमामयी ढंग से फैला हुआ है पर अफ़सोस भारतीय इतिहासकारों और न प्रशासनिक अमलों की नजर न जाने किन वजहों से इधर नहीं जाती. जबकि महाराजा फतेह शाही का संघर्ष जिस अंग्रेजी सत्ता के विरोध में रहा, आश्चर्यजनक रूप से उन अंग्रेजों की कलम इस वीर महाराजा पर खूब चली है. आज़ादी के अमृत महोत्सव में कंपनी राज के इस प्रथम विद्रोही की अनुपस्थिति आश्चर्य पैदा करती है.

(आपके लिए ये खास स्टोरी डॉ. मुन्ना पाण्डेय ने लिखी है)