17 मार्च, 2017 की सुबह. न्यूज वेबसाइट फर्स्टपोस्ट ने एक खबर चलाई. जिसमें कहा गया,
मनोज सिन्हा का नाम यूपी के मुख्यमंत्री के रूप में तय हो चुका है. शनिवार को विधायकों की बैठक के बाद इसकी घोषणा कर दी जाएगी.इसी दिन मनोज सिन्हा वाराणसी पहुंचे. उनका स्वागत भावी मुख्यमंत्री के रूप में हुआ. यहां उन्होंने पत्रकारों से बात की. कहा कि वो नेतृत्व की ओर से दिए गए किसी भी दायित्व को निभाने को तैयार हैं. हालांकि, इससे पहले कह चुके थे कि वो सीएम की रेस में नहीं हैं. सिन्हा उसी दिन बनारस से गाजीपुर पहुंचे. यहां उनके लिए प्रशासन की ओर से गार्ड ऑफ ऑनर का इंतजाम किया गया था. लेकिन उन्होंने इसके लिए मना कर दिया.
अगले दिन 18 मार्च, 2017 को मनोज सिन्हा वाराणसी में मंदिरों के दर्शन कर रहे थे. जहां-जहां जाते मीडिया उनके पीछे-पीछे चलता. इस बीच दिल्ली से वापस गोरखपुर लौटे योगी आदित्यनाथ को फिर से दिल्ली बुला लिया गया. अमित शाह ने उनके लिए चार्टर्ड प्लेन भेजा था. इस बीच यह भी चर्चा चली कि एक और चार्टर्ड प्लेन बाबतपुर हवाई अड्डे पर खड़ा है. मनोज सिन्हा को लखनऊ ले जाने के लिए. लेकिन इस चार्टर्ड प्लेन ने उस दिन उड़ान नहीं भरी. और मनोज सिन्हा देश के सबसे बड़े सूबे के सीएम बनते-बनते रह गए.
इस घटना का जिक्र मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जीवनी The rise of saffron socialist किताब में मिलता है. जिसे लिखा है सीनियर पत्रकार प्रवीण कुमार ने. ये किताब हिन्दी में भी आई. जिसका अनुवाद किया है प्रेम शंकर मिश्र ने.
लेकिन हम आपको ये कहानी क्यों बता रहे हैं? क्योंकि कभी केंद्रीय मंत्री रहे मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर का उपराज्यपाल नियुक्त किया गया है. 6 अगस्त को आई इस खबर को किस रूप में देखा जाना चाहिए? इस बारे में बात करेंगे, लेकिन वापस लौटते हैं उसी 2017 में जो मनोज सिन्हा के लिए गेम चेंजिंग साल हो सकता था, लेकिन नहीं हो पाया.
क्यों नहीं बन पाए सीएम?
राजनीति के जानकार कहते हैं कि मनोज सिन्हा पीएम मोदी और अमित शाह दोनों के करीबी हैं. वाराणसी जो पीएम मोदी का लोकसभा क्षेत्र है. उसकी देखरेख का जिम्मा मनोज सिन्हा के पास था. सिन्हा मोदी के विश्वास पात्रों में से थे. कहने वाले तो ये भी कहते हैं कि सिन्हा कैबिनेट मंत्री नहीं थे. रेल राज्य मंत्री थे. लेकिन कैबिनेट से ज्यादा पावर रखते थे. 2014 में एनडीए की सरकार बनने के बाद पहली बार ऐसा हुआ था कि ऊपर से रेलवे में वर्क डिविजन किया गया था. सिन्हा को बड़ी जिम्मेदारी दी गई थी. रेल राज्य मंत्री के साथ ही उन्हें दूरसंचार मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार दिया गया था.
हालांकि वो कैबिनेट मंत्री नहीं बन पाए. खबरों के मुताबिक, सिन्हा को बताया गया कि पीएम मोदी ऐसा चाहते हैं. सिन्हा ने पीएम की बात मान ली थी. एक सीनियर पत्रकार बताते हैं कि पीएम का विश्वासपात्र होने के कारण सीएम की रेस में इनका नाम था. पीएम मोदी की खासियत ये बताई जाती है कि कई बार वो जाति की राजनीति में जाति को डायलुट करने का काम करते हैं. गुजरात में पीएम मोदी की कास्ट बहुत प्रॉमिनेंट कास्ट नहीं है. मीडिया सूत्रों के मुताबिक, प्रॉमिनेंट कास्ट का नहीं होने के बाद भी कैसे अच्छा गवर्नेंस दिया जा सकता है, उसी पैटर्न पर मोदी मनोज सिन्हा को सीएम बनाना चाहते थे.
लेकिन अंतिम समय में संघ ने दस्तक दी. बताया जाता है कि आरएसएस के एक नेता अड़ गए कि नहीं मनोज सिन्हा नहीं. चर्चा के बाद योगी का नाम ऊपर आ गया. मनोज सिन्हा का नाम पीछे. योगी के समर्थक बड़े लंबे समय से उन्हें सीएम बनाने की मुहिम चलाए थे. बैठक में योगी के बारे में कहा गया कि वो संगठन को जानते हैं. उनमें ठसक है. सीएम के लिए फिट कैंडिडेट हैं. कहते हैं कि अमित शाह और संघ ने इस मामले में पीएम मोदी को कंन्विंस किया. आखिरकार पीएम मोदी को उनकी बात माननी पड़ी. सीएम की रेस में एक और नाम था. केशव प्रसाद मौर्य का. उन्हें सीएम बनाने के लिए बीजेपी कार्यालय में उनके समर्थक नारेबाजी तक कर चुके थे. बाद में उन्हें डिप्टी सीएम बनाया गया.
2019 में केंद्रीय मंत्री रहते चुनाव हारे
2017 के वाकये को भुलाकर मनोज सिन्हा आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे. लोकसभा चुनाव 2019. बीजेपी ने 2014 से भी बड़ी जीत हासिल की. मोदी के नेतृत्व में एक और इतिहास रचा जा रहा था. लेकिन इस बीच गाजीपुर से सांसद और केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा चुनाव हार गए. उन्हें बीएसपी और एसपी के गठबंधन के उम्मीदवार अफ़ज़ाल अंसारी ने 1.19 लाख वोट से हरा दिया था. हालांकि सिन्हा को 2014 की तुलना में ज्यादा वोट मिले थे, लेकिन एसपी और बीएसपी के एक हो जाने के बाद सिन्हा जाति के समीकरण को भेद नहीं पाए.
मनोज सिन्हा के समर्थक दावा करते हैं कि पांच सालों में उन्होंने अपने क्षेत्र के लिए बहुत काम किया. बीजेपी मीडिया प्रभारी नवीन श्रीवास्तव कहते हैं कि रेल राज्यमंत्री होने के नाते उन्होंने रेलवे से जुड़े कई काम कराए. गाजीपुर रेलवे स्टेशन से दिल्ली और अन्य जगहों के लिए ट्रेनें चलवाईं. मऊ से ताड़ीघाट रेलवे लाइन का काम करवाया. गाजीपुर में रेलवे ट्रेनिंग सेंटर खोले. सिंगल लाइनों को डबल कराया. किसानों के लिए गाजीपुर घाट स्टेशन पर कोल्ड स्टोरेज बनवाया. कार्गो के जरिए किसानों की उपज दूसरे राज्यों में भेजने की व्यवस्था की. गाजीपुर को गोरखपुर से जोड़ने वाले फोर लेन हाइवे का काम उनके समय में हुआ. गंगा पर पुल बनाने का काम जो सालों से अटका था उनके समय में हुआ.
लेकिन विकास पुरुष की छवि वाले सिन्हा मोदी की सुनामी में भी चुनाव हार गए. खुद अफ़ज़ाल के समर्थक भी कहते हैं कि मनोज सिन्हा ने काम कराया है, लेकिन जाति के आधार पर वोट गिरा और वो हार गए.
हालांकि कुछ लोगों ने ये भी आरोप लगाए कि सीएम नहीं चाहते थे कि मनोज सिन्हा जीत जाएं. इस बात में कितनी सच्चाई है किसी को नहीं पता.
2014 में राजनीतिक वनवास खत्म हुआ था
राजनीति कवर करने वाले एक पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि मनोज सिन्हा के पॉलिटिकल करियर में कोई बड़ा जंप नहीं रहा. 2014 से पहले उन्होंने कई चुनाव लड़े. दो को छोड़कर सभी हारे. एक तरह से राजनीतिक संन्यास की स्थिति में थे. लेकिन अमित शाह की नजर में उनकी इमेज अच्छी थी. सीधी और सौम्य छवि. 2014 का लोकसभा चुनाव. बीजेपी टिकट बांट रही थी. सिन्हा को गाजीपुर से खड़ा करना चाहती थी, लेकिन सिन्हा उतने इच्छुक नहीं थे. कोई कैंपेन नहीं कर रहे थे.
इस बीच गाजीपुर में बीजेपी के पीएम कैंडिडेट नरेंद्र मोदी की रैली हुई. उस रैली में सिन्हा का पोस्टर देखने को मिला. इसके बाद तय हो गया कि वो चुनाव लड़ रहे हैं. नतीजे आए सिन्हा जीत गए. लेकिन जीत का अंतर 32 हजार वोटों के आसपास रहा. सिन्हा बड़ी मुश्किल से चुनाव जीते थे. कहते हैं कि इस चुनाव में एक आईपीएस की ड्यूटी लगी थी, जिन्होंने 50 हजार से ज्यादा बोगस वोट रोके थे. अगर ये बोगस वोट नहीं रोके गए होते तो मनोज सिन्हा की जीत मुश्किल थी. इस बात की जानकारी होने पर सिन्हा ने व्यक्तिगत तौर चुनाव ड्यूटी से लौट रहे उस आईपीएस से बीच रास्ते में गाड़ी रोककर मुलाकात की थी.
इंजीनियरिंग की पर इंजीनियर नहीं बने
मनोज सिन्हा मोहम्मदाबाद तहसील के मोहनपुरा गांव के रहने वाले हैं. पिता इंटर कॉलेज में प्रिंसिपल थे. सिन्हा की पढ़ाई राजकीय सिटी इंटर कॉलेज गाजीपुर से हुई. उनके एक करीबी का कहना है कि मनोज सिन्हा पढ़ाई में बहुत अच्छे थे. हाईस्कूल और इंटर में टॉप-10 में रहे हैं. 12वीं के बाद वो आगे की पढ़ाई के लिए बीएचयू चले गए. आईटी बीएचयू (अब आईआईटी बीएचयू) से उन्होंने एमटेक किया. 1982 में एवीबीपी की तरफ़ से छात्र संघ अध्यक्ष रहे. हालांकि, इंजीनियरिंग की डिग्री वाले सिन्हा ने कभी इंजीनियर की नौकरी नहीं की. उनकी एक बेटी और एक बेटा है. बेटा इंजीनियर है.गाजीपुर के रहने वाले भारतीय जनता पार्टी के मीडिया प्रभारी नवीन श्रीवास्तव का कहना है कि मनोज सिन्हा ने 1985 में बीजेपी के टिकट पर अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा. 1989 में दूसरी बार चुनाव लड़े. इस बार भी हार गए. 1996 में पहली बार जीत हासिल की. इसके बाद 1999 में चुनाव लड़े और जीते. 2004 में उन्हें फिर हार का सामना करना पड़ा. अफजाल अंसारी ने उन्हें पटखनी दी. मनोज सिन्हा ने 2009 का चुनाव बलिया से लड़ा. लेकिन सपा के नीरज शेखर से हार गए.

2019 में हार के बाद राजनीतिक गलियारों में चर्चा रही कि मनोज सिन्हा को राज्यसभा भेजा जा सकता है. फिर से मंत्री बनाया जा सकता है. यूपी में राज्यसभा की सीट खाली हुई तो इस चर्चा ने जोर पकड़ा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अब पार्टी ने उन्हें जम्मू-कश्मीर का उपराज्यपाल बना दिया है. वापस लौटते हैं उसी सवाल पर कि इसे किस रूप में देखा जाना चाहिए. कहने वाले कहते हैं कि कहीं ना कहीं सिन्हा का समायोजन होना था. मुख्यधारा की पॉलिटिक्स में समायोजन नहीं हो पाया तो इस तरह से समायोजित किया गया.
राजनीतिक पंडित कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में आज की तारीख में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करनी है. और ये किसी बाबू के अंडर नहीं हो सकती. इसके लिए एक राजनेता की जरूरत है. जिसके पास प्रशासनिक अनुभव हो. इसमें मनोज सिन्हा फिट बैठते हैं.

तो क्या ये मान लिया जाए कि मनोज सिन्हा का पॉलिटिकल करियर खत्म हो गया. इसका जवाब हां में भी है और न में भी. एक नेता जो केंद्र में मंत्री रह चुका है. जिसे सीएम का दावेदार माना गया, उसे उपराज्यपाल बना देना तो पहली नजर में ऐसा ही लगता है. लेकिन राजनीति में कुछ भी संभव है. बीजेपी में पद बड़े अनिश्चित होते हैं. ऐसे में बीजेपी अगर फिर से उन्हें एक्टिव पॉलिटिक्स में ले आए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
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