तारीख थी 24 जनवरी 1939. नोबल पुरस्कार देने वाली संस्था के पास एक प्रस्ताव आया. ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए. कारण बताया गया कि उन्होंने हिटलर के साथ म्यूनिख समझौता करके विश्वशांति की रक्षा की थी. म्यूनिख समझौते (Munich Agreement) के बारे में बाद में बताएंगे क्योंकि उसका मामला लंबा है. अभी इतना जानिए कि इस समझौते से पश्चिमी देशों ने चेकोस्लोवाकिया का एक बड़ा हिस्सा सुडेटेनलैंड जर्मनी को सौंप दिया था.
जिस Nobel Prize के लिए ट्रंप ने हल्ला काट रखा है, वो कभी हिटलर को भी देने की मांग थी
जर्मन तानाशाह Adolf Hitler को साल 1939 में शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था. एक स्वीडिश सांसद के इस प्रस्ताव ने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया था.
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ये वो समझौता था, जिसके आधार पर नेविल चेम्बरलेन के लिए शांति का नोबेल मांगा गया था. प्रस्ताव 12 स्वीडिश सांसदों के एक ग्रुप ने भेजा था. लेकिन असली कहानी ये नहीं है.
इस घटना के ठीक तीन दिन बाद यानी 27 जनवरी 1939 को स्वीडन के ही एक सांसद से एक और नाम का प्रस्ताव नोबल समिति को मिला. शांति के पुरस्कार के लिए. माने उस पुरस्कार के लिए जो दुनिया भर में शांति और मानवता की दिशा में काम करने वाले सबसे बड़े नायक को दिया जाता है. प्रस्तावक का नाम था एरिक ब्रांट. स्वीडन के इस समाजवादी लोकतांत्रिक नेता ने जिसका नाम शांति के पुरस्कार के लिए भेजा था, उसका नाम था- जर्मनी के तत्कालीन फ्यूहरर एडोल्फ हिटलर.
नोबल पुरस्कार देने वाली समिति भी ये नाम पढ़कर चौंक गई थी. 1939 का साल वह समय था, जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया था. इस युद्ध में हिटलर की क्या भूमिका थी, सब जानते ही हैं. इससे पहले जर्मनी में यहूदियों के नरसंहार के बारे में भी पूरी दुनिया जानती है. फिर भी, इसके बारे में आपको थोड़ा बताते हुए उस चिट्ठी की तरफ बढ़ेंगे, जिसमें हिटलर को शांति का नोबेल देने की सिफारिश की गई थी. और जिसमें उसे ‘शांति का राजकुमार’ और ईश्वर द्वारा भेजा गया ‘शांति का सच्चा योद्धा’ कहा गया था.

साल 1939 के उस वक्त तक जब हिटलर शांति के पुरस्कार के लिए नामित हो रहा था, तब तक उसका यहूदियों के खून से सना नफरती चेहरा दुनिया के सामने आ गया था.
साल 1933 में हिटलर की नाजी पार्टी के सत्ता में आने के बाद से ही यहूदियों पर यातना का पहाड़ टूट पड़ा था. जर्मनी में धीरे-धीरे कई ऐसे कानून बने, जिन्होंने यहूदियों को देश में दोयम से भी निचले दर्जे का नागरिक बना दिया. सबसे पहले यहूदी नागरिकों के अधिकारों को सीमित करने वाला पहला बड़ा कानून 7 अप्रैल 1933 को आया. इसका नाम था- कमर्शियल सिविल सेवा की बहाली का कानून. इसके अनुसार यहूदी और हिटलर विरोधी सिविल सेवकों और कर्मचारियों को सरकारी सेवा से बाहर कर दिया गया.
1935 में नूर्नबर्ग कानून आया, जिसमें ऐलान किया गया है कि यहूदी किसी ‘जर्मन खून’ वाले नागरिक से साथ न तो ब्याह रचाएंगे और न ही उनके साथ यौन संबंध बनाएंगे. यहूदियों का वोट देने का अधिकार छीन लिया गया और सरकारी नौकरियों के लिए हमेशा के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया. उनके पासपोर्ट पर लाल रंग का J लिख दिया. यह उन्हें जूड (यहूदी) दर्शाने के लिए था.
1938 में नाजी सरकार ने 17 हजार पोलिश यहूदियों को जर्मनी में गिरफ्तार कर लिया और पोलिश सीमा पर फेंक दिया. उधर पोलिश सरकार ने उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर दिया. इससे हजारों यहूदी 'नो-मैन्स लैंड' में रहने को मजबूर हो गए. इसके बाद एक बड़ी घटना घटी, जिसके नतीजे में दुनिया ने पहली बार हिटलर के यहूदियों से नफरत का दिल दहला देने वाला नमूना देखा.
हर्शेल ग्रिंजपैन नाम के एक जवान पोलिश यहूदी ने पेरिस के जर्मन दूतावास में घुसकर वहां के एक मामूली कर्मचारी अर्न्स्ट वोम राथ को गोली मार दी. ग्रिंजपैन के मां-बाप पोलैंड और जर्मनी के बीच फंसे 17 हजार यहूदियों में शामिल थे. इसी गुस्से में उसने इस वारदात को अंजाम दिया.
हिटलर का सबसे खास आदमी था जोसेफ गोएबल्स. उसने जब इस गोलीबारी के बारे में सुना तो खुशी से उछल पड़ा. उसके दिमाग में एक खतरनाक आइडिया आया. उसे इस घटना के जरिए यहूदियों पर अत्याचारी कार्रवाई का बहाना मिल गया. हिटलर की इजाजत से उसने जर्मनी के इतिहास में तबाही वाली रात कही जाने वाली ‘क्रिस्टलनाच्ट’ (Kristallnacht) की भूमिका लिखी.
वो 9 नवंबर 1938 की रात थी. नाजी जर्मनी के इतिहास में ये तारीख ‘क्रिस्टलनाच्ट' (Kristallnacht) नाम से जानी जाती है. यानी ‘द नाइट ऑफ़ ब्रोकन ग्लास’. वो रात जब जर्मनी की सड़कें कांच के टुकड़ों से पट गई थीं. इस तारीख से पहले यहूदियों का आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार होता था. लेकिन उस रोज सारी हदें पार कर दी गईं. यहूदियों को घरों से निकाल कर सड़कों पर घसीटा गया. दुकानें तोड़ दी गईं. यहूदी पूजाघरों को आग लगा दी गई. हजारों मारे गए. जो बचे, कंसन्ट्रेशन कैम्प्स में डाल दिए गए. रातों-रात जर्मनी के लोगों के लिए यहूदी उनके सबसे बड़े दुश्मन बन गए.
आतंक की इस रात में 1 हजार सभास्थलों को आग लगा दी गई. 26 हजार यहूदियों को कंसंट्रेशन कैंप्स में भेज दिया गया और 91 यहूदी पुरुषों की हत्या कर दी गई.
जुल्म की इंतेहा यहीं तक नहीं थी. हिटलर के बाद जर्मनी में जो दूसरा सबसे ताकतवर आदमी था, उसका नाम था- हरमन गोअरिंग. उसने क्रिस्टलनाच्ट की घटना की जांच करवाई. इसके लिए यहूदियों को ही जिम्मेदार ठहरा दिया गया. 'प्रायश्चित' के लिए उन्हें एक अरब आरएम (Reichsmark) का भुगतान करने के लिए कहा गया.
हिटलर के समय जर्मनी की आधिकारिक मुद्रा Reichsmark यानी RM थी.
यहूदियों पर क्रूरता की ये सब घटनाएं 1939 से पहले हुई थीं और इन सारे अमानवीय अत्याचारों का सूत्रधार था हिटलर. वही हिटलर जिसे स्वीडिश सांसद ने ‘शांति का राजकुमार’ बताकर नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया था.
नोबेल प्राइज की कहानी क्या है?स्टॉकहोम. 27 जनवरी, 1939. नोबेल पुरस्कार देने वालों को एक चिट्ठी मिली. पहला वाक्य लिखा था- नॉर्वेजियन नोबेल समिति के लिए. चिट्ठी शुरू होती है ‘मैं विनम्रतापूर्वक सुझाव देता हूं’ से. सुझाव था कि 'साल 1939 का नोबेल शांति पुरस्कार जर्मन चांसलर और फ्यूहरर एडॉल्फ हिटलर को दिया जाए. एक ऐसे व्यक्ति को, जो लाखों लोगों की नजर में दुनिया में किसी से भी ज्यादा इस सम्मानित पुरस्कार का हकदार है.'
क्यों दिया जाए, चिट्ठी में इसके तर्क भी थे. कहा गया,
प्रामाणिक दस्तावेज बताते हैं कि सितंबर 1938 में विश्वशांति बहुत खतरे में थी. यूरोप में जंग छिड़ने ही वाली थी. जिस व्यक्ति ने दुनिया को इस भयानक तबाही से बचाया, वह बेशक जर्मन जनता का महान नेता था, जिसने उस नाजुक घड़ी में अपनी इच्छा से हथियारों को बोलने नहीं दिया। हालांकि उसके पास शक्ति थी कि वो विश्वयुद्ध शुरू कर सकता था.
आगे कहा गया कि शांति के प्रति हिटलर का प्रेम प्रबल है. इसका उल्लेख उन्होंने अपनी किताब ‘मीन काम्फ’ में किया है, जो ‘बाइबिल के बाद शायद दुनिया की सर्वश्रेष्ठ और सबसे लोकप्रिय साहित्यिक कृति है’.

आगे ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन के साथ एडोल्फ हिटलर के बीच हुए म्यूनिख समझौते का जिक्र है. इस समझौते के बाद चेकोस्लोवाकिया का एक हिस्सा जर्मनी के पास चला गया था. इसमें फ्रांस और ब्रिटेन की भी सहमति थी.
म्यूनिख समझौते की कहानीदरअसल, ऑस्ट्रिया पर कब्जा करने के बाद हिटलर की नजर चेकोस्लोवाकिया पर थी, जहां ठीक-ठाक जर्मन आबादी रहती थी. हिटलर वहां हमला कर कब्जा करना चाहता था लेकिन बिना कारण के ऐसा करना उसे ठीक नहीं लगा. दुनिया उसके खिलाफ हो सकती थी. इसलिए ‘कारण तैयार करने’ की योजना बनाई जाने लगी.
तय हुआ कि चेकोस्लोवाकिया में जर्मन आबादी वाले हिस्से में दंगा भड़काया जाएगा. तनाव चरम पर होने के बाद किसी एक घटना का बहाना बनाकर जर्मन सेना वहां चढ़ाई कर देगी. मई 1938 तक ये साफ हो गया कि जर्मनी चेक पर हमला करने वाला है. चेक को भरोसा था फ्रांस पर, जिसके साथ उसकी सैन्य संधि थी. लेकिन ऐन मौके पर फ्रांस ने उसे धोखा दे दिया. वहां के अखबार लिखने लगे कि फ्रांस चेक की रक्षा करने के लिए मजबूर नहीं है. वहीं ब्रिटेन के ‘द टाइम्स’ अखबार ने भी लिखा कि चेकोस्लोवाकिया के इलाके को बचाने के लिए ब्रिटेन युद्ध नहीं कर सकता.
ब्रिटिश पीएम चैंबरलिन का मानना था कि अगर हिटलर ने चेक पर कब्जा करने की ठान ली है तो वह करके ही रहेगा. लिहाजा, चेकोस्लोवाकिया को मनाने की कार्रवाई शुरू की गई. सुझाव दिया गया कि चेकोस्लोवाकिया को कुछ जर्मन इलाके छोड़ देने चाहिए ताकि शांति बनी रहे. 29 सितंबर 1938 को जर्मनी के म्यूनिख में हिटलर, चेम्बरलिन, फ्रांस के राष्ट्रपति एडवर्ड डलादिए और इटली के तानाशाह मुसोलिनी मिले. मीटिंग में मुसोलिनी ने एक योजना पेश की, जिसे म्यूनिख समझौता कहा गया.
इसके मुताबिक, ब्रिटिश और फ्रांसीसी नेताओं ने प्रस्ताव तैयार किया कि जिन इलाकों में 50 फीसदी से ज्यादा जर्मन आबादी है, उन्हें जर्मनी को दे दिया जाए.
चेकोस्लोवाकिया से इस पर राय भी नहीं ली गई. फ्रांस ने भी चेकोस्लोवाकिया से साफ कह दिया कि या तो वह अकेले जर्मनी से लड़ाई लड़ ले या ये समझौता मान ले. आखिरकार चेक को झुकना पड़ा और म्यूनिख समझौता मान लेना पड़ा. इसके बाद चेक के सूडेटनलैंड के इलाके पर जर्मनी का कब्जा हो गया.
म्यूनिख से लौटते हुए चेम्बरलिन ने कहा कि ‘यह सम्मान के साथ शांति है’ लेकिन उनके प्रखर आलोचक और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल ने तुरंत कहा कि आपको युद्ध और अपमान में से एक चुनना था. आपने अपमान चुना और अब आपको युद्ध भी मिलेगा. बाद में चर्चिल की बात एकदम सही साबित हुई.

एरिक ब्रांट ने इसी म्यूनिख समझौते के लिए हिटलर का नाम शांति के नोबेल के लिए प्रस्तावित किया था. उसने अपने लेटर में लिखा,
हिटलर ने हाल ही में ऑस्ट्रिया को अपने देश में मिला लिया, जो उसने बिना लड़ाई के किया. अब वह सूडेटनलैंड में अपने जर्मन लोगों को आजाद करना चाहता है और अपने देश को बड़ा और मजबूत बनाना चाहता है लेकिन बिना जबरदस्ती के. अगर युद्ध चाहने वाले लोग उसे भड़काना बंद कर दें और उसे शांति से काम करने दिया जाए तो शायद वह पूरे यूरोप और शायद पूरी दुनिया में भी शांति ला देगा.
इस समझौते के लिए ही ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चैंबरलिन को शांति का नोबेल देने का भी प्रस्ताव भेजा गया था.
ब्रांट अपने आवेदन में कहते हैं,
हिटलर के नाम पर भड़क गई दुनियाअगर कई स्वीडिश सांसदों ने एक और उम्मीदवार यानी ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन का नाम प्राइज के लिए न भेजा होता तो हिटलर का नामांकन गलत कदम लगता. यूरोप के बड़े हिस्से में आज भी जो शांति कायम है, उसके लिए सबसे पहले हिटलर को धन्यवाद देना चाहिए. किसी और को नहीं. यही व्यक्ति भविष्य में शांति की आशा भी है. एडोल्फ हिटलर निश्चित रूप से शांति के लिए ‘ईश्वर के भेजे गए एक सच्चे योद्धा’ हैं और दुनिया भर के लाखों लोगों की आशा धरती पर ‘शांति के राजकुमार’ के रूप में उन पर टिकी हुई है.
ऐसा नहीं है कि शांति के नोबेल के लिए हिटलर का नाम भेजे जाने का विरोध नहीं हुआ. इस नाम के प्रस्ताव की दुनिया भर में इतनी चर्चा हुई, इतना विरोध हुआ कि प्रस्तावक भी डर गए. एरिक ब्रांट को पागल बताया गया. अनाड़ी कहा गया. उन पर आरोप लगे कि उन्होंने मजदूर वर्ग से गद्दारी की है. कई संगठनों और क्लबों में उनके व्याख्यान रद्द कर दिए गए. ऐसी हिंसक प्रतिक्रियाओं से ब्रांट हैरान रह गए. और तब जाकर उन्होंने बताई असली बात.
'मजाक था भाई'आपने ‘वेलकम बैक’ फिल्म देखी है तो उसमें नसीरुद्दीन शाह के ‘वांटेड भाई’ वाला किरदार याद करिए. इस प्रस्ताव के असली मकसद का खुलासा करते हुए ब्रांट भी वांटेड भाई की तरह बोल दिए, ‘मजाक था भई. मजाक था’.
इस घटना के कुछ दिन बाद स्वीडन के एक अखबार 'स्वेन्स्का मोर्गनपोस्टेन' ने एरिक ब्रांट का इंटरव्यू लिया. इसमें ब्रांट ने बताया कि हिटलर के नाम का प्रस्ताव उन्होंने ‘मजाक में किया था’. असल में जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया तो उन्हें बहुत गुस्सा आया. उन्हें लगा कि म्यूनिख समझौते में चेम्बरलेन ने शांति के नाम पर चेकोस्लोवाकिया के साथ धोखा किया है.इसके विरोध में उन्होंने 'व्यंग्य' के तौर पर हिटलर को ही नॉमिनेट कर दिया.

बाद में, जब लोगों की प्रतिक्रिया बहुत तीखी और गुस्से वाली हो गई और ज्यादातर स्वीडिश लोगों को समझ नहीं आया कि यह मजाक था तो ब्रांट ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया. उन्होंने हिटलर का नाम 1 फरवरी 1939 को वापस लिया, जो उस साल नामांकन की आखिरी तारीख थी.
ब्रांट का कहना था कि न तो नेविल चेम्बरलेन और न ही हिटलर. दोनों में से कोई भी शांति पुरस्कार के लायक नहीं था.
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