गाना है, इक मेरी अंख काशनी. गाने वाली, जैस्मिन सैंडलस. वही, जिनका गाया हुआ 'इल्लीगल वेपन' लोगों की ज़बान पर चढ़ा. और ऐसा चढ़ा कि लोग दीवाने हो उठे. लेकिन जो असली दीवाने थे, वो बहुत पहले ही जैस्मिन को दिल दे चुके थे. क्योंकि उन्होंने एक बेहद खूबसूरत गाने की आन निभा दी थी. उस गायिका के पैरों में सजदा कर आई थीं, जिनका कद आज भी पंजाबी संगीत में अनछुआ बना हुआ है.
नाम? बीबी सुरिंदर कौर. पंजाब दी कोयल.

1930 का दशक था. ज़माना था शमशाद बेगम का. जीनत बेगम का. इनके गाये हुए तराने लोगों की ज़बान पर मौजूद रहते थे. लेकिन गाने-बजाने से ‘भले घर की बेटियां’ दूर रखी जाती थीं. औरतों के बीच बैठ कर हंस-बोल लें, गुनगुना लें, वही बहुत. ऐसे ही परिवार में जन्मीं परकाश कौर, सुरिंदर कौर, और नरिंदर कौर. तीन बहनें. जिनको जन्म के साथ ही भगवान ने गले में सच्चा सुर बरतने की काबिलियत बख्शी थी. मां माया देवी घर में बैठी गुनगुनाया करतीं. उनके साथ परकाश और सुरिंदर भी हौले-हौले सुर मिलातीं. संगीत की दुनिया से पहला साबिका, सभी कौर बहनों के लिए यही था. इसी साबिके से वो पहला गाना निकला, जिसने कौर बहनों की लोकप्रियता हमेशा के लिए पंजाबी संगीत में पक्की कर दी. 'मांवां ते धियां'.
मां की धी, जो लाहौर से रशिया पहुंची
जब बिशन सिंह और माया देवी ने देखा, कि उनकी बेटियों को संगीत साधना का ही सुर लगा हुआ है. तो वे भी झुक गए. झुक गए और अपनी पीठ आगे कर दी. कि जिन पर खड़े होकर उनकी बेटियां ऊपर उठ सकें. उस समय जिस समय खानदानी गायकों के अलावा लोगों के सामने गाने वाली लड़कियों को अधिकतर हीरा मंडी से आई सौगात समझा जाता था. आम लोगों के दिलो-दिमाग में यही छवि पैवस्त थी. जिसे तोड़ने की ज़िम्मेदारी कौर बहनों ने उठा ली. परकाश कौर ने उस्ताद इनायत हुसैन साहब से तालीम लेनी शुरू की. ये बड़े गुलाम अली साहब के भतीजे थे. उनके पहला कदम उठाने से सुरिंदर कौर के लिये आगे बढ़ना थोड़ा आसान हुआ. कच्ची मिट्टी में दिखते पांवों के निशान भी बड़ा सहारा होते हैं. फिर परकाश कौर की शादी हुई, और वो ससुराल चली गईं. तब तक रेडियो पर गाने का अनुभव उन्हें हो चुका था.उन्हीं के नक़्शे कदम पर चलते हुए सुरिंदर कौर ने भी अगस्त 1943 में लाहौर रेडियो पर लाइव गाया. और इसके साल भर बाद ही परकाश कौर के साथ उन्होंने HMV (His Masters Voice) के लिए अपना पहला गाना रिकॉर्ड किया. 'मावां ते धीयां रल बैठियां'. परकाश की शादी के बाद उनके पति ने उन्हें काफी सपोर्ट किया था. उनकी गायिकी के लिए.

गाने के बोलों के मतलब थे कि लड़कियां अपनी मां के साथ बैठकर बातें कर रही हैं. और पूछ रही हैं, लड़की पैदा ही क्यों हुई. पंजाबी घरों में ये गाने मांओं, चाचियों, मौसियों की ज़बान पर चढ़े हुआ करते थे. आंगन में गाये जाने वाले इन गानों को परकाश और सुरिंदर कौर ने दुनिया के सामने पहुंचाया.
आज़ादी के बाद सुरिंदर कौर और उनका परिवार हिन्दुस्तान आ गया. गाज़ियाबाद में रहना शुरू किया. यहीं पर उनकी शादी हुई प्रोफ़ेसर जोगिन्दर सिंह सोढ़ी से. शादी के बाद प्रोफ़ेसर सोढ़ी ने सुरिंदर कौर के करियर को आगे बढ़ाने में बहुत मदद की. उन्हीं की सलाह पर लोकगीतों के अलावा सुरिंदर ने मशहूर लेखकों की लिखी हुई नज्में और गीत गाने शुरू किए. प्रोफ़ेसर को पंजाबी साहित्य में गहरी रुचि थी. कवियों को पढ़ते रहते थे. शिव कुमार बटालवी. जिनको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था. अपनी लम्बी कविता 'लूणा' के लिए. जिनका लिखा हुआ गाना, 'इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत' कुछ समय पहले ही 'उड़ता पंजाब' फिल्म में इस्तेमाल हुआ था. वही शिव कुमार बटालवी. उनका प्रोफ़ेसर सोढ़ी से गहरा नाता था. घर आया-जाया करते थे. कई बार उनकी लिखी हुई कविताओं, गीतों पर प्रोफ़ेसर सोढ़ी सुझाव भी दिया करते थे. बाद में शिव कहते, सही कह रहे थे आप. मैं लिखना यही चाहता था, कुछ और लिख गया. अमृता प्रीतम भी उनके दोस्तों में शामिल थीं. 'इक मेरी अख काशनी' भी शिव कुमार बटालवी ने लिखा.
कुछ समय के लिए बॉम्बे में रहना हुआ सुरिंदर कौर का. वहां 'शहीद' फिल्म के लिए तीन गाने भी गाये उन्होंने. लेकिन बॉम्बे का मौसम उन्हें रुचा नहीं. दिल्ली वापस आ गईं. कोशिश पूरी लगा दी, पंजाबी लोकगीतों को जनता तक पहुंचाने की. विदेशों में भी गईं. परफॉर्म करने. वहां आसा सिंह मस्ताना से मुलाक़ात हुई. रशिया में. वो भी बेहद लोकप्रिय सिंगर थे. वहां से वापस आकर उन दोनों ने साथ में गाने भी गाए. जो अभी तक गूंज रहे हैं. अलग-अलग रूपों में. अगर आपने आसा सिंह मस्ताना और सुरिंदर कौर का नाम नहीं भी सुना हो, तो भी आप ये गाने पहचानते होंगे.
2017 में ही पव धरिया का एक गाना आया था, ना जा ना जा मित्रां तों दूर. अंबरां तों आई तू लगदी है हूर. इस गाने की शुरुआत में बैकग्राउंड म्यूजिक जब शुरू होता है. तो आसा सिंह और सुरिंदर कौर की जोड़ी वाला गीत बज रहा होता है. 2019 में रिलीज हुई फिल्म (?) स्टूडेंट ऑफ द ईयर 2 का गाना (?) जट लुधियाने दा भी असल में आसा सिंह और सुरिंदर कौर ने पॉपुलर किया था. वो आप यहां सुन लीजिए:
एहना अंखियां च पावां कीवे कजला वे, अंखियां च तू वसदा
सुरिंदर कौर का एक गाना है. जिसका मतलब है इन आंखों में काजल कैसे डालूं, इन आंखों में तो तू बसता है. सूफी कलामों में भी लोग लिखते हैं, जिन नैनन में पी बसे, दूजा कौन समाय. मौसिकी भी ऐसा ही फ़न है. एक बार रूह को इसकी खुराक मिलनी शुरू हो जाए, फिर कुछ और नहीं रुचता. सुरिंदर जहां भी जाती थीं, अपने गानों के लिए धुनें सोचती रहतीं, गुनती रहतीं. सुनती रहतीं.
समय के साथ उनके फन की कद्र करने वालों का दायरा सिमटा नहीं, पर बिखर ज़रूर गया. 80 के दशक तक गुरदास मान और मलकीत सिंह जैसे गायक पॉपुलर हो रहे थे. तड़क-भड़क गानों के शब्दों और उसकी तासीर में भी उतर आई थी. लोगों को अब ऐसे सिंगर चाहिए थे जो स्टेज पर परफॉर्म भी कर सकें. बीट पर थिरक सकें. भीड़ को झुमा सकें.

सुरिंदर कौर समय के साथ अपने संगीत में और गहरे उतरती गईं. उनकी बेटी, रुपिंदर कौर गुलेरिया, जिनको डॉली गुलेरिया के नाम से लोग जानते हैं, ने गाना सीखा. डॉली की बेटी सुनैनी भी गाती हैं. अपनी नानी की थाती संभाले चल रही हैं. 1995 में एक स्टेज पर सुरिंदर कौर, डॉली और सुनैनी ने एक साथ गाना गाया था. डॉली की आंखें आंसुओं से लबालब थीं. सामने ऑडियंस में बैठी महिलाओं की आंखें भी नम थीं.
हमेशा से सुरिंदर कौर इस बात को दिल में लिए जीती रहीं, कि अपनी मिट्टी के पास वापस जाएंगी. पंजाब उनका पहला प्यार था. वहां की सोंधी मिट्टी के पास लौट जाना उनका ध्येय था. उससे बिछड़ना, उन्हें गवारा नहीं था.
लोकी पूजन रब, मैं तेरा बिरहणा
जीरकपुर में वो घर बनवा रही थीं. पंचकूला में उनकी बेटी डॉली रहती थीं ज़रूर, लेकिन हरियाणा में पड़ता था. सुरिंदर कौर पंजाब की मिट्टी में ही अपने आखिर पल गुजारना चाहती थीं. बाकी दोनों बेटियां नंदिनी और प्रमोदिनी न्यू जर्सी में रहती थीं. वहां जाना, पंजाब दी कोयल दी मर्जी नहीं थी. इंटरव्यू में मुस्कुराती हुई कहतीं, बचपन से गाती आई हूं. आज नहीं भी गाती तो बाजा लेकर बैठी रहती हूं. 1976 में प्रोफ़ेसर सोढ़ी के गुज़र जाने के बाद ज़िन्दगी में जो खालीपन आया, उसे भरने के लिए एकमात्र आसरा सुरिंदर कौर के पास संगीत ही बचा था. उससे साथ छूटता, तो शायद सब कुछ छूट जाता. इसलिए नहीं छोड़ा. रूह को खुराक देती रहीं. 1984 में साहित्य नाटक अकादमी ने उन्हें पंजाबी लोकसंगीत के लिए अवार्ड दिया. गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी ने उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि भी दी. ये बात है 2002 की. फिर 2006 में भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया.
संगीत न होंदा मेरे कोल, ते कुछ वी न होंदा मेरा.
25 नवंबर 1929 को पैदा हुईं सुरिंदर कौर को 2006 में दिल का दौरा पड़ा था. लेकिन उससे उबर गईं वो. पद्मश्री लेने खुद गईं थीं. लेकिन उसके बाद तबीयत बिगड़ी, तो संभल नहीं पाई. न्यू जर्सी गईं. वहां के एक हॉस्पिटल में एडमिट हुईं. 14 जून 2006 को सुरिंदर कौर हमेशा-हमेशा के लिए चली गईं. कहां, पता नहीं. इसका जवाब कौन ही दे पाएगा. जाने वाले कहां जाते हैं. जोत बुझती है तो कहां जाती है, जहां से आती है, वहां चली जाती है. कहीं पढ़ा था.
सुरिंदर कौर गाती थीं, मैं जाना रब दे कोल. वो रब जहां भी है, जैसा भी है, जो भी है. उसके शुक्रिया के हिस्से में बड़ा हिस्सा इसका ज़रूर होगा, कि उसने सुरिंदर कौर की आवाज़ से इस दुनिया में रहने वालों को नवाज़ा. वो नाम जिसकी आवाज़ आज भी गूंजती है. कभी दूर कहीं धूल भरे रास्ते के किनारे बने एक ढाबे में. या खड़खड़ा कर चलती हुई बस में तार जोड़कर किसी तरह ऑन किए गए रेडियो में. या यूट्यूब के किसी लकदक चमचमाते वीडियो में.