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चार साल का सोनू थिएटर में खड़ा नहीं हुआ तो क्या जनता उसे भी पीट देगी?

राष्ट्रगान को लेकर देश तेजी से हिंसक बनता जा रहा है.

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फोटो - thelallantop
'दंगल' मूवी बहुत दिन से चल रही है. इसमें दो बार राष्ट्रगान बजता है. पर बहुत दिन से किसी को मारने-पीटने की कोई घटना नहीं आई थी. मुंबई ने इस बार ये जिम्मेदारी ली. बुधवार को 59 साल के बुजुर्ग अमलराज दसन से इसी कारण मारपीट की गई. दूसरी बार (फिल्म के एक सीन में) बजने वाले राष्ट्रगान पर खड़ा न होने के लिए उनके मुंह पर कथित तौर पर उन्हें थप्पड़ मारा गया. हमला करने वाले का नाम शिरीष मधुकर बताया गया है. उस पर सेक्शन 323 और 504 के तहत केस दर्ज किया गया है. अभी देश में लगता है सबसे बड़ा अपराध है सिनेमा के दौरान जन गण मन बजे तो खड़ा ना होना. लगता है इसके लिए आपके साथ कुछ भी किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि सबको खड़ा होना ही है. जो अशक्त है, वो खड़ा तो हो नहीं पाएगा. श्रद्धालु कहते हैं कि खड़ा नहीं हो रहे तो क्या करने जा रहे हो थिएटर में? कोर्ट ने श्रद्धालुओं की भावना का सम्मान करते हुए ऑर्डर किया कि जो हैंडिकैप्ड (दिव्यांग) हैं, वो बैठे ही बैठे अपनी कमर तान लें, टाइट हो जाएं. अब कुछ ऐसी बातें हैं जिन पर गौर किया जा सकता है:-
1. चार साल का सोनू 'दंगल' फिल्म में राष्ट्रगान बजने के दौरान खड़ा न हो तो क्या उसे भी मारा जाएगा? या क्या पुलिस गिरफ्तार कर लेगी? या कोर्ट चेतावनी देकर छोड़ देगी? 2. अगर कोई सीजोफ्रेनिक यानी दिमागी रूप से अस्वस्थ इंसान अपने परिवार के साथ मूवी देखने जाता है और खड़ा न हो तो क्या जनता उसे पीट देगी? क्या पुलिस उसे पागलखाने लेकर जाएगी? कोर्ट क्या कहेगी? 3. कोई इंसान ऐसा है जिसे कांपने की बीमारी है तो वो सीधा खड़ा ही नहीं रह सकता. खड़ा भी होगा तो हिलता रहेगा. ऐसे में तो लोग उसे पीट ही देंगे. इस बात की जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या पुलिस उसके साथ खड़ी रहेगी? या उसे पूरी दुनिया को बताना होगा कि 'मुझे मत मारो, मुझे बीमारी है.'
अगर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से लोग पुलिस का रोल खुद ही अदा करने लगे हैं तो ये चिंता का विषय है. कोर्ट का ही एक अन्य फैसला जल्लीकट्टू को लेकर भी आया लेकिन वहां जनता खुलकर विरोध कर रही है, कोर्ट की अवमानना के भय से परे. वहीं इतने बड़े पैमाने पर राष्ट्रगान को लेकर जल्लीकट्टू खेला जा रहा है और जनता चुप है तो ये ज्यादा चिंता का विषय है. हत्या के अपराधी तक को हमारे देश में तय न्याय प्रक्रिया का अधिकार प्राप्त है. उसे जनता सजा नहीं दे सकती. पर इस मामले में तुरंत सजा. पुलिस और कोर्ट इस बात पर चुप है. फिलीपींस के राष्ट्रपति रॉड्रीगो ने नशा बेचने और सेवन करने वालों के लिए सजा निर्धारित कर दी है. सड़कों पर लोग मारे जा रहे हैं. लोग घूमते-फिरते मार दे रहे हैं लोगों को. इसमें किसी से भी दुश्मनी निकाल ली जा रही है. ये दंगाई मानसिकता है. ठीक यही होता है किसी भी दंगे में. लोग खुद ही सजा निर्धारित कर देते हैं. मिडिल ईस्ट में इसी मानसिकता की आलोचना होती है कि जनता ही फैसला कर देती है. अगर आने वाले समय के लिहाज से देखें तो राष्ट्रगान को लेकर ये समस्या बहुत बड़ी चीजों की तरफ इशारा कर रही है. इससे पहले गौरक्षा को लेकर जनता इतनी एक्टिव हुई है कि लोगों को गाय का नाम लेने में डर लग रहा है. हर जगह विजिलांते ग्रुप एक्टिव हो गए हैं. राह चलते लोगों को पीट दे रहे हैं. जान से मार दे रहे हैं. अगर ऐसे लोगों की प्रोफाइलिंग की जाए तो ज्यादातर गुंडे-मवाली निकलेंगे. ऐसे में ये सच हो जा रहा है कि गुंडे-मवाली लोगों का आखिरी रास्ता देशभक्ति से ही होकर जाता है. सरकार और कोर्ट जाने-अनजाने में जो कर रहे हैं उसे लोगों ने हिंसक होने की प्रेरणा के तौर पर ले लिया है. क्योंकि राष्ट्रगान को लेकर फैसला उग्र राष्ट्रवादियों को खुश करता है. इसका कोई और जस्टिफिकेशन नहीं समझ आता. भविष्य में ऐसा होगा कि गुंडे किसी भी गैर-जरूरी बात को सेंसिटिव मुद्दा बना देंगे और इसके आधार पर कानून की मांग करने लगेंगे. कानून बन भी जाएगा. वहीं जो असली मुद्दे हैं, वो दब जाएंगे. अभी हम लोग देख रहे हैं कि जल्लीकट्टू को लेकर जनता क्या कर रही है. कोर्ट के आदेशों का पालन नहीं हो रहा है. सरकार अध्यादेश ले आई है. कोर्ट के फैसले का अब कोई अर्थ नहीं रहेगा. अगर कोर्ट के फैसले को अप्रासंगिक कर दिया गया तो क्या इसका मतलब ये माना जाए कोर्ट ने गलत फैसला दिया था? हम हमेशा कोर्ट पर ज्यादा भरोसा करते हैं. क्योंकि आर्टिकल 32 के तहत हमारे नागरिक अधिकारों की सुरक्षा का आखिरी पायदान सुप्रीम कोर्ट में ही है. एेसे संस्थानों के सम्मान और विश्वसनीयता का बने रहना बहुत जरूरी है. छोटी-छोटी बातें ही जनता का मूड चेंज कर देती हैं. मार-पीट की ये घटनाएं अभी तो मामूली लगती हैं. पर अगर लगातार रिपीट हों तो ये धीरे-धीरे सब-कॉन्शस माइंड यानी अवचेतन में बैठ जाएंगी. लोगों का एटिट्यूड वही हो जाएगा. लोग अनजाने में भी वही करने लगेंगे. समाज को हिंसक होते देर नहीं लगती. बड़ी मुश्किल से अहिंसा का पाठ गांधी ने पढ़ाया था. इतनी खूबसूरती से लोगों के दिमाग में ये चीज पिरोई गई कि आज तक ये कॉन्सेप्ट जिंदा है. पर उतनी ही बारीकी से हिंसा भरी जा रही है लोगों के दिमाग में. अगर समय रहते इसे नहीं चेता गया तो दस-बीस साल में भारत पहचानने लायक नहीं रहेगा.
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