साबरमती आश्रम के 100 साल पूरे होने पर 29 जून को अहमदाबाद पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गो-रक्षा के नाम पर हत्या करने वालों को चेतावनी देते हुए कहा कि गाय के नाम पर इंसानों को नहीं मारना चाहिए. मोदी ने कहा,
नरेंद्र मोदी ने तो कह दिया, लेकिन क्या गांधीजी के दिखाए रास्ते पर चल पाएंगे 'गो-रक्षक'
गोरक्षा के लिए महात्मा गांधी का दिखाया रास्ता इतना आसान भी नहीं है.

'गाय की रक्षा करना गांधीजी और विनोबा जी ने सिखाया है. गाय के नाम पर इंसान को मार दें, ये रास्ता गांधीजी का और विनोबा जी का नहीं हो सकता.'
देर से ही सही, लेकिन देश के 'प्रधान-सेवक' ने गो-रक्षा के नाम हो रहीं मॉब लिंचिंग पर चुप्पी तोड़ी. गांधी का नाम लेकर. ऐसे में ये जानना मौजूं है कि महात्मा गांधी गोरक्षा के लिए क्या रास्ता सुझाते थे. 1909 में इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका जाते समय गांधीजी ने एक किताब लिखी थी, 'हिंद स्वराज'. ये किताब इंटरव्यू की शैली में लिखी गई है, जिसमें गांधीजी ने उस समय की अवाम के सवालों के एक संपादक के रूप में जवाब दिए. वो 'हरिजन' और 'यंग इंडिया' के संपादक रहे भी.

महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज
इसी किताब के एक अंश 'हिंदुस्तान की दशा- 3' में पाठक रूपी अवाम उनसे सवाल करती है कि क्या मुस्लिमों के आने से हमारा एक-राष्ट्र मिट रहा है. इसी अंश में गांधीजी गोरक्षा पर भी अपने स्पष्ट विचार रखते हैं. आज जब नरेंद्र मोदी गोरक्षा के लिए गांधीजी से सीख लेने के लिए कह रहे हैं, तो हम आपके लिए गांधीजी की किताब का वही अंश लाए हैं.
तो पढ़िए और खुद जानिए कि गांधीजी ने क्या कहा था:
पाठक: पर मैं तो अब जो सवाल मैंने उठाया है, उसका जवाब सुनने को अधीर हो रहा हूं. मुसलमानों के आने से हमारा एक-राष्ट्र रहा या मिटा?
संपादक: हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं, उससे वो एक-राष्ट्र मिटने वाला नहीं है. जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते. वे उसकी प्रजा में घुलमिल जाते हैं. ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक-राष्ट्र माना जाएगा. ऐसे मुल्क में दूसरे लोगों का समावेश करने का गुण होना चाहिए. हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है. यों तो जितने आदमी, उतने धर्म ऐसा मान सकते हैं. एक-राष्ट्र होकर रहने वाले लोग एक-दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते. अगर देते हैं, तो समझना चाहिए कि वो एक-राष्ट्र होने लायक नहीं हैं.
अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो ये एक निरा सपना है. मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए. फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं एक-देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं, और उन्हें एक-दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा. दुनिया के किसी भी हिस्से में एक-राष्ट्र का अर्थ एक-धर्म नहीं किया गया है, हिन्दुस्तान में तो ऐसा था ही नहीं.
पाठक: लेकिन दोनों कौमों के कट्टर बैर का क्या?
संपादक: 'कट्टर बैर' शब्द दोनों के दुश्मन ने खोज निकाला है. जब हिन्दू-मुसलमान झगड़ते थे, तब वो ऐसी बातें भी करते थे. झगड़ा तो हमारा सबका बंद हो गया है. फिर कट्टर बैर काहे का? और इतना याद रखिए कि अंग्रेजों के आने के बाद ही हमारा झगड़ा बंद हुआ, ऐसा नहीं है. हिन्दू लोग मुसलमान बादशाहों के मातहत और मुसलमान हिन्दू राजाओं के मातहत रहते आए हैं. दोनों को बाद में समझ में आ गया कि झगड़ने से कोई फायदा नहीं, लड़ाई से कोई अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे और कोई अपनी जिद भी नहीं छोड़ेंगे. इसलिए दोनों ने मिलकर रहने का फैसला किया. झगड़े तो फिर से अंग्रेजों ने शुरू करवाए.
'मियां और महादेव की नहीं बनती' इस कहावत का भी ऐसा ही समझिए. कुछ कहावतें हमेशा के लिए रह जाती हैं और नुकसान करती ही रहती हैं. हम कहावत की धुन में इतना भी याद नहीं रखते कि बहुतेरे हिन्दुओं और मुसलमान के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है. क्या धर्म बदला, इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए? धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं. हम दोनों अलग-अलग रास्ते लें, इससे क्या हो गया? उसमें लड़ाई काहे की?
और ऐसी कहावतें तो शैवों और वैष्णवों में भी चलती हैं, पर इससे कोई ये नहीं कहेगा कि वे एक-राष्ट्र नहीं हैं. वेदधर्मियों और जैनों के बीच बहुत फर्क माना जाता है, फिर भी इससे वे अलग राष्ट्र नहीं बन जाते. हम गुलाम हो गए हैं, इसीलिए अपने झगड़े हम तीसरे के पास ले जाते हैं.
जैसे मुसलमान मूर्ति का खंडन करने वाले हैं, वैसे हिन्दुओं में भी मूर्ति का खंडन करने वाला एक वर्ग देखने में आता है. ज्यों-ज्यों सही ज्ञान बढ़ेगा त्यों-त्यों हम समझते जाएंगे कि हमें पसंद न आने वाला धर्म दूसरा आदमी पालता हो, तो भी उससे बैर भाव रखना हमारे लिए ठीक नहीं. हम उस पर जबरदस्ती न करें.
पाठक: अब गोरक्षा के बारे में अपने विचार बताइए.
संपादक: मैं खुद गाय को पूजता हूं यानी मान देता हूं. गाय हिन्दुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिन्दुस्तान का, जो खेती-प्रधान देश है, आधार है. गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है. वह उपयोगी जानवर है, ये तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे.

बापू
लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूं, वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूं. जैसे गाय उपयोगी है, वैसे मनुष्य भी. फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू, उपयोगी है. तब क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लड़ूंगा? क्या उसे मैं मारूंगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान का और गाय का भी दुश्मन बनूंगा.
इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश के खातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए. अगर वो न समझे, तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वो मेरे बस की बात नहीं. अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती हो, तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए. वही धार्मिक कानून है, ऐसा मैं तो मानता हूं.
'हां' और 'नहीं' के बीच हमेशा बैर रहता है. अगर मैं वाद-विवाद करूंगा, तो मुसलमान भी वाद-विवाद करेगा. अगर मैं टेढ़ा बनूंगा, तो वो भी टेढ़ा बनेगा. अगर मैं बालिश्त भर नमूंगा, तो वो हाथ भर नमेगा. और अगर वो नहीं भी नमे, तो मेरा नमना गलत नहीं कहलाएगा. जब हमने जिद दी, तब गोकुशी बढ़ी. मेरी राय है कि गोरक्षा प्रचारिणी सभा गोवध प्रचारिणी सभा मानी जानी चाहिए. ऐसी सभा का होना हमारे लिए बदनामी की बात है. जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए, तब ऐसी सभा की जरूरत पड़ी होगी.
मेरा भाई गाय को मारने दौड़े, तो मैं उसके साथ कैसा बर्ताव करूंगा? उसे मारूंगा या उसके पैरों में पड़ूंगा? अगर आप कहें कि मुझे उसके पांव पड़ना चाहिए, तो मुझे मुसलमान भाई के भी पांव पड़ना चाहिए.
गाय को दुख देकर हिंदू गाय का वध करता है, इससे गाय को कौन छुड़ाता है? जो हिंदू गाय की औलाद को पैना आरा भोंकता है, उस हिंदू को कौन समझाता है? इससे हमारे एक-राष्ट्र होने में कोई रुकावट नहीं आई है.
अंत में, हिंदू अहिंसक और मुसलमान हिंसक है, ये बात अगर सही हो, तो अहिंसक का धर्म क्या है? अहिंसक को आदमी की हिंसा करनी चाहिए, ऐसा कहीं लिखा नहीं है. अहिंसक के लिए तो राह सीधी है. उसे एक को बचाने के लिए दूसरे की हिंसा करनी ही नहीं चाहिए. उसे तो मात्र चरण-वंदना करनी चाहिए, सिर्फ समझाने का काम करना चाहिए. इसी में उसका पुरुषार्थ है.
लेकिन क्या तमाम हिंदू अहिंसक हैं? सवाल की जड़ में जाकर विचार करने पर मालूम होता है कि कोई भी अहिंसक नहीं है, क्योंकि जीव को तो हम मारते ही हैं. लेकिन इस हिंसा से हम छूटना चाहते हैं, इसलिए अहिंसक कहलाते हैं. साधारण विचार करने से मालूम होता है कि बहुत से हिंदू मांस खाने वाले हैं, इसलिए वे अहिंसक नहीं माने जा सकते. खींच-खांचकर दूसरा अर्थ करना हो, तो मुझे कुछ कहना नहीं है. जब ऐसी हालत है, तब मुसलमान हिंसक और हिंदू अहिंसक हैं, इसलिए दोनों की नहीं बनेगी, वो सोचना बिल्कुल गलत है.
ऐसे विचार स्वार्थी धर्म-शिक्षकों, शास्त्रियों और मुल्लाओं ने हमें दिए हैं. और इसमें जो कमी रह गई थी, उसे अंग्रेजों ने पूरा किया है. उन्हें इतिहास लिखने की आदत है. हर एक जाति के रीति-रिवाज जानने का वो दंभ करते हैं. ईश्वर ने हमारा मन तो छोटा बनाया है, फिर भी वो ईश्वरी दावा करते आए हैं और तरह-तरह के प्रयोग करते हैं. वो अपने बाजे खुद बजाते हैं और हमारे मन में अपनी बात सही होने का विश्वास जमाते हैं. हम भोलेपन में उस सब पर भरोसा कर लेते हैं.
जो टेढ़ा नहीं देखना चाहते, वो देख सकेंगे कि कुरान शरीफ में ऐसे सैकड़ों वचन हैं, जो हिंदुओं को मान्य हों. भगवद्गीता में ऐसी बातें लिखी हैं कि जिनके खिलाफ मुसलमान को कोई भी ऐतराज नहीं हो सकता. कुरान शरीफ का कुछ भाग मैं न समझ पाऊं या कुछ भाग मुझे पसंद न आए, इस वजह से क्या मैं उसे मानने वाले से नफरत करूं? झगड़ा दो से ही हो सकता है. मुझे झगड़ा नहीं करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? और मुसलमान को झगड़ा न करना हो, तो मैं क्या कर सकता हूं? हवा में हाथ उठाने वाले का हाथ उखड़ जाता है. सब अपने-अपने धर्म का स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगड़े का मुंह हमेशा के लिए काला ही रहेगा.
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