
'हसरत' की भी कबूल हो, मथुरा मे हाजिरी
'हसरत' की भी कबूल हो, मथुरा मे हाजिरी
सुनते है आशिकों पे, तुम्हारा करम है आज
मौलाना हसरत मोहानी के मुताबिक उनके यहां इस्लाम के बुज़ुर्गों के अतिरिक्त जिसका नाम बार-बार आया है वह नाम है 'श्रीकृष्ण जी' का. वह लिखते हैं- श्रीकृष्ण के बाब में फकीर अपने पीर और पीरों के पीर हज़रत सय्यदाना अब्दुल रज्जाक बांसवी रहमतउल्ला के मसलके आशिकी का पैरव है. उनका कहना था कि कुरान शरीफ मे वर्णन है कि अल्लाह ने दुनिया के हर हिस्से मे हादी (पैगम्बर) सही रास्ता बताने के लिए भेजे हैं. हिन्दुस्तान में वो श्रीकृष्ण को 'श्रीकृष्ण जी महाराज अलैहिसलाम पैगम्बरे हिन्दुस्तान' कहते थे और यही वजह है कि करीब-करीब हर साल जन्माष्टमी के दिन मथुरा जाकर कृष्ण जी को श्रद्धांजलि अर्पित करते थे. वह बरसाना, नन्दगांव और मथुरा बराबर जाया करते थे. हज़रत सय्यद अब्दुल रज्जाक बांसवी के संबंध में हसरत के परिवार के एक सदस्य ने लिखा -मोरा प्यारा कन्हैया विराजत है, मोहे बृज भई बांसा नगरी, वाकी चौखट मैं पलकन झाडूं, जहां सीस धरे दुनिया सारी
विरह की मारी निपट दुखयारी, ताकन कबलग दूर से नइया पार उतार पिया से मिलाओ, रज्जाक पिया बांसेनगर के बसइया बांसेनगर के फिरंगी महल के, एकई नाम के दुई दुई कन्हैया रज्जाक, वहाब पिया बिन हसरत, हमरी व्यथा काहे कौन सुनइया
मोहम्मद हसरत मोहानी जी ने श्रीकृष्ण जी पर अवधी और उर्दू दोनों में शायरी की है.विरह की रैन कटे न पहाड़, सूनी नगरिया पड़ी है उजाड़ निर्दयी श्याम परदेस सिधारे, हम दुखयारिन छोड़ छाड़
उर्दू शायरी मे यों कहा है-बरसाना और नन्दगांव मे भी, देख आए हैं जलवा किसी का पैगामे हयाते जावेदां था, हर नगमा कृष्ण बांसुरी का वह 'नूरे सियाह' था कि हसरत, सरचश्मा फरोगे आगही का
मथुरा नगर है आशिकी का, दम भरती है आरजू उसी का हर जर्रा सर ज़मीने गोकुल, वारा है जमाले दिलबरी का
मौलाना हसरत मोहानी के तीन एम मशहूर थे. एक मक्का, दूसरा मथुरा, तीसरा मास्को. हसरत मोहानी ने मक्का जाकर 12 -13 बार हज किया. हरेक जन्माष्टमी और अन्य अवसरों पर मथुरा जाते थे. मक्का उनका विश्वास था. मथुरा से उन्हें मोहब्बत थी. और मास्को को राजनीतिक रुप से आवश्यक समझते थे. उनका इस्लाम पर पक्का विश्वास था लेकिन दूसरों के विश्वास और धर्म का आदर हसरत साहब करते थे. तीन एम से उनका हिन्दुस्तानी मुसलमानो को संदेश है कि वो अपने ईमान पर कायम रहते हुए हिन्दुस्तान की परंपराओं से जुड़े रह सकते हैं. और साथ में समाजवाद के द्वारा ही वो मानवता की सेवा कर सकते हैं. मौलाना हसरत मोहानी साहब लीडर होने के साथ साहित्य व पत्रकारिता के मानक भी बने. आज़ादी की लड़ाई में उनका अहम रोल रहा. वह संविधान निर्मात्री सभा के भी सदस्य रहे. बाद में उनके नाम पर डाक टिकट भी जारी हुए.