निसार मैं तेरी गलियों पे ए वतन, के जहां चली है रस्म कि कोई ना सर उठाके चले.
जब फैज़ अहमद फैज़ से पूछा गया, 'ब्याह की अंगूठी लेकर आए हो या नहीं?'
इस शायर की न शादी आसान थी और न ही जिंदगी. पढ़िए उनके इश्क की दास्तान. आज के दिन दुनिया छोड़ दी थी.

जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले
- - - - - - - - - - - गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे बोल जबां अब तक तेरी है तेरा सुतवां, जिस्म है तेरा बोल कि जां अब तक तेरी है
सोशल मीडिया के दौर में तो ये आजादी कुछ ज्यादा ही मायनों में बुलंद है. अपनी शायरी से फैज़ ने सोये जमीरों को जगाया. दबे कुचलों की आवाज बने. ये सब करना उनके लिए आसान नही था. इसके लिए जेल भी गए. फैज जिस कस्बे (लाहौर के पास सियालकोट) में पैदा हुए वो बंटवारे के बाद पाकिस्तान के हिस्से में आया. और वो पाकिस्तान के बाशिंदे हो गए, लेकिन उनकी नज्में और गजलें सरहदों की बंदिशों में बंधकर नहीं रहीं. बल्कि बहुत दूर तक पहुंचने में कामयाब रहीं. अगर पाकिस्तानी गायिका नूर जहां ने 'मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग' को अपनी आवाज दी, तो गजल गायक जगजीत सिंह ने 'चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले' को अपने सुरों में पिरो दिया. और अमर कर दिया. ये वो गजल थी जिसको फैज़ अहमद फैज़ ने 1954 में मांटगोमरी जेल में लिखा. फैज अहमद फैज सियालकोट के मशहूर बैरिस्टर सुल्तान मुहम्मद खां के घर पैदा हुए. पांच बहनें और चार भाई थे. छोटे थे. दुलारे तो होते ही. फैमिली बेहद ही इस्लामिक थी. कुरान पढ़ने के लिए भेजा गया. दो सिपारे यानी दो चैप्टर ही याद कर पाए थे. आंखें दुःख आईं. और कुरान को याद करना छोड़ दिया. स्कूल में अव्वल आते रहे और शायरी करने लगे. उनकी जिंदगी के किस्से तो बहुत हैं. मगर यहां उनकी जिंदगी का मुख़्तसर सा तब्सिरा है. उन्हें कम्युनिस्ट कहा गया. इस्लाम के खिलाफ भी बताया गया. लेकिन उनका कहना था कि ये उनपर सिर्फ इल्जाम हैं सच नहीं. अमृतसर में रहते हुए उनकी मुलाकात एलिस से हुई. पहली मुलाकात में ही दोनों दिल हार बैठे. और 1941 में एलिस उनकी हमसफर बन गईं. एलिस अमृतसर के एम ओ कॉलिज के प्रिसिंपल डॉ. तासीर की बीवी की बहन थीं. एलिस हिन्दुस्तान अपनी बहन से मिलने आई थीं. जहां फैज़ से इश्क हो गया.एक इंटरव्यू में फ़ैज़ की बहन बीबी गुल ने कहा था, 'फ़ैज़ के लिए बहुत से रिश्ते आए थे, मगर जहां वालिदा और बहनें चाहती थीं, वहां फ़ैज़ ने शादी नहीं की और एलिस का इंतख़ाब किया. वालिदा ने मशरिकी (पूर्वी) रवायत के मुताबिक़ उन्हें दुल्हन बनाया, चीनी ब्रोकेड का ग़रारा था, गोटे किनारी वाला दुपट्टा, जोड़ा सुर्ख़.'एलिस के बारे में बीबी गुल का कहना था, 'उनकी बहुत सादा तबीयत थी, बहुत ख़लीक़ और मोहब्बत करने वाली साबित हुईं और उन्होंने ससुराल में क़दम रखते ही सबका दिल जीत लिया और ख़ानदान में इस तरह घुल मिल गईं, जैसे इसी घर की लड़की हैं, वही लिबास इख्तियार किए जो हम सब पहनते थे. हां सास और बहू का रिश्ता प्यार और आदर वाला रहा, सास ने बहू को मोहब्बत दी और बहू ने सास की इज्ज़त की.' अमृता प्रीतम ने एलिस का इंटरव्यू लिया था. जो फैज़ अहमद फैज़ ब्लॉग पर साल 2011 में पब्लिश हुआ. एलिस ने बताया कि वह इंग्लैंड से 1938 में अपनी बहन से मिलने इंडिया आई थीं. अमृतसर में फैज़ से मिलीं. मेरे लिए अमृतसर हिंदुस्तान बन गया और हिंदुस्तान 'फैज़'. जब अमृता ने एलिस से पूछा कि तुम तो उर्दू जबान नहीं जानती थीं, फिर फैज़ को शायरी से कैसे इश्क हुआ तो एलिस ने कहा, 'सच्ची बात तो यह है कि मैं आज तक "फ़ैज़" की शायरी की गहराई को नहीं जान सकी. ज़रा सी ज़बान को समझ लेना और बात है, लेकिन पूरी तहज़ीब को जानना और बात है...'
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म गिला है जो भी किसी से तेरे सबब से है
मुलाकात के तकरीबन दो साल बाद शादी हुई. एलिस ने बताया कि ये दो साल का का इंतजार इसलिए था कि फ़ैज़ के वालिदैन से मंज़ूरी चाहिए थी, क्योंकि एक ख़ुशगवार माहौल के बग़ैर हम शादी नहीं कर सकते थे. शादी की रस्म कश्मीर में हुई. महाराजा कश्मीर ने अपना गर्मियों का महल हमें निकाह की रस्म के लिए दिया था और शेख़ अब्दुल्लाह ने निकाह की रस्म अदा की थी.गर बाजी इश्क की बाजी है, तो जो भी लगा दो डर कैसा, जीत गए तो बात ही क्या, हारे भी तो हार नहीं
राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
और क्या देखने को बाक़ी है आप से दिल लगा के देख लिया
जेल गए तो चर्चा थी, फैज़ को फांसी होगी
1951 में पाकिस्तान के रावलपिंडी में पीएम लियाकत अली खां का तख्ता पलटने की साजिश हुई. इस साजिश का भंडाफोड़ हुआ, लोगों की गिरफ्तारियां हुईं, गिरफ्तार लोगों में फैज अहमद फैज़ भी शामिल थे. फैज पर मुकदमा चला उस वक्त पाकिस्तानी मीडिया में चर्चा थी कि फैज को फांसी होगी. गनीमत रही फैज के खिलाफ इल्जाम साबित ना हो सके और वो 1955 में रिहा हो गए. जेल में उन्होंने शायरी की और वो शायरी 'जिंदान नामा' (कारावास का ब्योरा) के नाम से छपी और इस जिन्दान नामा ने उनकी मकबूलियत में इजाफा कर दिया. हालांकि जेल में उनके लिखने पर पाबंदियां लगा दी गई थीं, लेकिन इंकलाब पर बंदिशें लगाना वैसा ही है जैसे हवाओं से खुशबू को पिंजरे में कैद करना. शायर से कागज-कलम भले ही छिन गया था, मगर जज्बात और हिम्मत नहीं.मताए लौह-ओ-कलम छिन गई तो क्या गम है कि खून-ए-दिल में डूबो ली हैं उंगलियां मैंने. जुबां पे मुहर लगी है तो क्या, कि रख दी है हर एक हल्का-ए-जंजीर में जुबां मैंने
फैज हमेशा यही कहते रहे कि वो बेवजह ही जेल में डाले गए. उनका रावलपिंडी केस में कोई हाथ नहीं था. ये ही बात उनके करीबी और रिश्तेदार मानते थे. 1963 में उन्हें सोवियत रूस से लेनिन शांति पुरस्कार मिला. 1984 में नोबेल प्राइज के लिए उनका नामांकन किया गया था. और फिर 20 नवंबर 1984 का वो दिन आया जब उर्दू शायरी का एक बड़ा सितारा इस जहां से परवाज कर गया. फैज़ के इंतकाल के बाद उनकी आखिरी शायरी 'ग़ुबार-ए-अय्याम' के नाम से छपी. उसी के ये नज्म है. गुनगुनाएं...हम मुसाफ़िर यूं ही मसरूफ़े सफ़र जाएंगे बेनिशां हो गए जब शहर तो घर जाएंगे
किस क़दर होगा यहां मेहर-ओ-वफ़ा का मातम हम तेरी याद से जिस रोज़ उतर जाएंगे
जौहरी बंद किए जाते हैं बाज़ारे-सुख़न हम किसे बेचने अलमास-ओ-गुहर जाएंगे
नेमते-ज़ीस्त का ये करज़ चुकेगा कैसे लाख घबरा के ये कहते रहें मर जाएंगे
शायद अपना ही कोई बैत हुदी-ख़्वां बनकर साथ जाएगा मेरे यार जिधर जाएंगे
'फ़ैज़' आते हैं रहे, इश्क़ में जो सख़्त मक़ाम आने वालों से कहो हम तो गुज़र जाएंगे
ये स्टोरी 'दी लल्लनटॉप' के लिए असगर ने की थी.
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