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लल्लनटॉप कहानी कंपटीशन में एक लाख रुपए जीतने वाली कहानी 'टमाटर होता है फल'

पहला इनाम यानी एक लाख रुपये जीते हैं कैफ़ी हाशमी की कहानी ने.

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फोटो - thelallantop
साल 2016 का नवंबर. एक गुनगुने महीने में ‘आज तक’ ने एक दो दिवसीय साहित्य उत्सव के बहाने कुछ सरगर्मियां पैदा कीं. इन सरगर्मियों को बढ़ाने में एक बड़ा किरदार ‘लल्लनटॉप कहानी कंपटीशन’ का भी रहा. यह हिंदी के इतिहास में पहला मौका था, जब साहित्य के किसी समारोह में इस तरह की कोई प्रतियोगिता आयोजित की गई. 10-12 नवंबर, 2017 को एक बार फिर उसी जगह पर होगा साहित्य के शौकीनों का महाजमावड़ा. आप पिछली बार आए हों या न आए हों, इस बार जरूर आइएगा वहां लल्लनटॉप अड्डे पर.  कहानी कंपटीशन का पहला इनाम रखा गया था एक लाख रुपये. नतीजा आ भी गया. संपादक मंडल ने अपने विवेक से पहली कहानी कैफ़ी हाशमी की चुनी है. कैफ़ी हाशमी जामिया मिल्लिया इस्लामिया से बी.एड. कर रहे हैं. साहित्य में बचपन से ही दिलचस्पी है. वह भी इतनी कि साइंस छोड़कर हिंदी साहित्य में ग्रेजुएशन किया और गोल्ड मेडलिस्ट रहे. कुछ अप्रकाशित कविताएं और कहानियां हैं, जिन्हें संभाले हुए हैं. उनकी कहानी का नाम है 'टमाटर होता है फल'. यहां पढ़ें.

टमाटर होता है फल                                                         -  कैफ़ी हाशमी

  वह एक बंद कमरे में रहता था. चित्रकार था. अपनी सारी पेंटिंग्स में आग लगाने से पहले तक उस चित्रकार के बारे में सभी को यह लगता था कि वह सामान्य व्यक्ति नहीं है. हालांकि उसने कभी किसी से नहीं कहा कि उसकी पेंटिंग्स अलादीन के चिराग की तरह जादुई हैं. लेकिन वह जो कुछ भी बनाता था उसका बन कुछ और जाता था. यह बात उतनी सीधी नहीं है जितनी सरलता से बताई जा रही है और जितनी लापरवाही से आप इसे समझ रहे हैं. दिल्ली, कला और साहित्य की दृष्टि से एक मुकम्मल शहर. शायद यही सोचकर चित्रकार महोदय मुंबई की सरकारी नौकरी छोड़ कर दिल्ली आ बसे थे. प्राइवेट स्कूल में आर्ट टीचर की नौकरी, किराए का फ्लैट, शाम को पत्नी के साथ जाकर आर्ट गैलरी में चित्र-प्रदर्शनियां देखना, कुल मिलाकर चित्रकार की जिंदगी अच्छी कट रही थी. चूंकि चित्रकार को एक न एक दिन अपनी सारी पेंटिंग्स में आग लगानी थी, इसलिए यह जरूरी था कि शोक और अवसाद उसकी जिंदगी में तारी हो जाए. दिसंबर की एक ठंडी शाम में जब कंपा देने वाली सर्दी दांतों को सुन्न कर रही थी. चित्रकार महोदय एक कुत्ते का बच्चा घर ले आए. पत्नी को कुत्ते के बच्चे से तो प्यार था, लेकिन उस नाम से नहीं जो चित्रकार महोदय ने उस कुत्ते के बच्चे को दिया था. ‘‘फुईफुई... यह भी कोई नाम है?’’ ‘‘हां, इतना अच्छा तो है... फुईफुई.’’ ‘‘तुम यह अच्छे से जानते हो कि यह नाम मेरी सौतेली मां ने मुझे बचपन में चिढ़ाने के लिए रखा था और मुझे यह नाम बिल्कुल पसंद नहीं.’’ पत्नी की फुईफुई के नाम के साथ न भुला देने वाली यादें जुड़ी थीं और चित्रकार जैसा कि सबको लगता कि एक सामान्य व्यक्ति नहीं है. वह अब सिर्फ दो कमरे के फ्लैट, सफेद कैनवास और फुईफुई के साथ रंगों की तिलिस्मी गंध से अपनी उदास शामों को महका रहा था. यह बात सच है कि चित्रकार ने पत्नी को रोकने की कोशिश नहीं की पर इसका यह मतलब नहीं था कि वह अपनी पत्नी से प्यार नहीं करता था. पत्नी से प्यार का आलम यह था कि सामने वाले फ्लैट की तलाकशुदा महिला में चित्रकार वह फुईफुई ढूंढ़ने लगा था, जिसे बचपन में चिढ़ाने के लिए सौतेली मां ने कुत्ते के बच्चे का नाम दे दिया था. स्कूल खत्म होने के बाद दोपहर की झपकी और चाय की चुस्कियां लेते हुए चित्रकार ने कई बार कहा, ‘‘तुम्हारे होंठ मुझे लाल शहतूत की तरह लगते हैं, जिन्हें काले रंग से रंग दिया जाना चाहिए.’’ इसके बाद तलाकशुदा महिला अपने बच्चों को कुछ खुल्ले पैसे देकर बाहर भेज देती है. बच्चों के वापस लौटने से पहले जब चित्रकार अपने फ्लैट में घुसता तब उसके होंठ काले रंग से पुते होते जो लगातार घर्षण या फिर शायद खींच-तान से हल्के पड़ जाते थे. इस बात में कोई संदेह नहीं है कि चित्रकार तलाकशुदा महिला से प्यार नहीं करता था. यह बस रंगों की तिलिस्मी गंध से उदास शामों के खालीपन को भरने की कोशिश थी. चित्रकार इस बात से अंजान था कि रंगों की तिलिस्मी गंध उसके भीतर के खालीपन को और भी ज्यादा बढ़ा रही है. इस खालीपन को पत्नी की उपस्थिति से ही भरा जा सकता था. सभवत: इसीलिए चित्रकार ने कैनवास को अपनी बालकनी में रखा और रंगों से सराबोर एक ऐसी कलाकृति बनाने लगा जो हूबहू उसकी पत्नी से मिलती थी. इस पूरे घटनाक्रम में फुईफुई ध्यान से चित्रकार को चित्रकारी करते देखता रहता और एक अच्छे सहयोगी की तरह चित्रकारी की सारी आवश्यकताओं को पूरा करता. फुईफुई जानता था कि चित्रकार के लाल शहतूत को काला बनाने के दौरान उसे घर को पूरी सुरक्षा प्रदान करनी है, दूध को बिल्ली से बचाना है, रंगों को चूहों की होली से बचाना है और कैनवास को पत्नी के गुस्से से बचाना है. वह दिन तेज आंधी और बारिश का दिन था. रंग, ब्रश, कलर-प्लेट और चाय के कप के अंदर रखने के बाद चित्रकार ने जैसे ही कैनवास को अंदर रखना चाहा, पत्नी ने अंदर जाने से साफ मना कर दिया. चित्रकार फुईफुई का नाम न बदलने की जिद करके पछता रहा था, वह अब और पछताना नहीं चाहता था. चित्रकार ने पत्नी की कलाकृति को ध्यान से देखा, जिसे पूरा होने में दो दिन की कमरतोड़ मेहनत की जरूरत थी और बुझे हुए मन से गुनगुनाने लगा :
‘‘टमाटर होता है फल सब्जी न समझना अपनी जिद को जान मेरी मर्जी न समझना’’
बिस्तर पर लेटने के बाद चित्रकार लगातार यह सोचता रहा कि क्यों उसने वे पंक्तियां गुनगुनाईं जिनका न तो कोई अर्थ था, न लय और न ही कोई पूर्वापर संबंध. इसी उधेड़बुन में चित्रकार की आंख लग गई और उसने एक अजीब सपना देखा. इस सपने में चित्रकार लगातार रंगों की तिलिस्मी गंध और उदास शामों के खालीपन का तीव्र अनुभव कर रहा था. चित्रकार ने सपने में देखा कि पत्नी कैनवास से बाहर आ गई है. तलाकशुदा महिला के साथ पत्नी उसी कुर्सी पर बैठी है जिस पर बैठ कर वह दोपहर की झपकी के बाद चाय की चुस्कियां लेता है. चीनी की चाय के सेट के बराबर में काले शहतूत बड़ी साफगोई से रखे हुए हैं. पत्नी एक शहतूत उठाती है और तलाकशुदा महिला के मुंह में डालती है. हर एक शहतूत खाने के बाद तलाकशुदा महिला पहले से भी अधिक सुंदर होती जा रही है. उसकी लगातार बढ़ती सुंदरता से कमरे का एक-एक अंग दीप्तिमान होता जा रहा है. जब तक सारे शहतूत खत्म हुए तब तक तलाकशुदा महिला दुनिया की सबसे सुंदर औरत बन चुकी थी. तभी अचानक पत्नी ने तलाकशुदा महिला के मुंह पर नाखूनों से वार कर दिया और तलाकशुदा महिला दुनिया की सबसे बदसूरत महिला बन गई. लहूलुहान हो चुके चेहरे से जब तलाकशुदा महिला ने हाथ हटाया तो सफेद बालों से ढंके चौपाए को देख तेजी से चिल्ला उठी, ‘‘फुईईईईई... फुईईईईई...’’ पत्नी फुईफुई में बदल चुकी थी. आश्चर्य था कि सुबह जब चित्रकार उठा तो उसे पूरा सपना याद था. वह हड़बड़ा कर बालकनी की तरफ भागा. कैनवास देखते ही उसके होश फाख्ता हो गए. पेंटिंग पूरी तरह तैयार थी. पेंटिंग में एक ऐसी महिला का चित्र था जिसे घंटों निहारा जा सकता था, जिससे लहूलुहान चेहरे के अनेक मतलब निकाले जा सकते थे. जिसकी डबडबाई आंखों में खुद के दर्द को ढूंढ़ा जा सकता था. यह पेंटिंग एक मास्टरपीस थी. इस पेंटिंग में एक ऐसा तीखा आकर्षण था कि गली से जो कोई भी गुजरता, वह सिर ऊपर उठा कर इसे देखे बिना नहीं रह पाता. शाम तक चित्रकार का फ्लैट शहर भर के अनजान लोगों से भर चुका था जो कला के कद्रदान थे और चित्रकार की सृजनशीलता से अति उत्साहित थे. तलाकशुदा महिला कला के इन कद्रदानों को उछल-उछल कर नींबू-पानी पिला रही थी और धीमी आवाज में सबसे कहती, ‘‘देखो तो, पेंटिंग की यह औरत कितनी बदसूरत है... हाहाहाहह... लेकिन फिर भी मैंने ऐसी कलाकृति आज तक नहीं देखी.’’ यह घोर निराशा का दिन था जिसकी तीक्ष्णता को सिर्फ चित्रकार और फुईफुई ही महसूस कर पा रहे थे. अगले दिन तक सब कुछ सामान्य हो गया. चित्रकार अपनी प्रसिद्धि, पेंटिंग की महानता और फुइफुई की निर्दोषता को स्वीकार कर चुका था. वह फिर से महान पेंटिंग बनाने की महत्वकांक्षा में जुट गया. कला के इन कद्रदानों में एक मिस्टर सबरवाल थे जिनके थुलथुल पेट और रेशमी जनाना बालों में लगभग एक-सी थिरकन थी. मिस्टर सबरवाल मोटर पार्ट्स के व्यापारी थे जिनकी कला में मनचली किस्म की दिलचस्पी थी. लंदन से लेकर न्यूयार्क और न्यूयार्क से लेकर दिल्ली तक में उन्होंने अपने आर्ट सेंटर्स खोल रखे थे. इन दिनों वह न्यूयार्क की कंपनी के साथ साझा व्यापार कर रहे थे. इस कंपनी से उन्हें एक ऐसी पेंटिंग बनवाने का काम मिला था जिसके जरिए लोगों में देशभक्ति की भावना जागृत की जा सके. मिस्टर सबरवाल अपने थुलथुल पिचका कर बोले, ‘‘देखों साईं, हम तुमको यह काम सौंप रहा है जिसको तुम ट्वेंटीज डेज के अंदर फिनिश कर डालो.’’ इस बार मिस्टर सबरवाल अपना मुंह चित्रकार के कान के पास ले जाकर बोले, ‘‘किसी को कहना मत यंग बॉय, यह पेंटिंग वहां की ऑपोजिशन पार्टी ने इलेक्शन के लिए मंगवाई है... तुम हिस्ट्री चेंज करने वाला है.’’ इसके बाद मिस्टर सबरवाल ने अपने रेशमी जनाना बालों में हाथ फिरा कर कोमलता का जायजा़ लिया और चित्रकार की वार्षिक आय से पांच गुना ज्यादा का चेक चित्रकार की चेक शर्ट की एकमात्र जेब में डाल दिया. देशभक्ति के नाम पर चित्रकार को सिर्फ अपने पिताजी याद आते थे. पिताजी सेना से कर्नल रिटायर हुए थे. निहायत ही नफासत पसंद, अनुशासन प्रिय और सिद्धांतवादी इंसान जिससे चित्रकार की कभी नहीं बनी. चित्रकार को इस बात का कभी अफसोस नहीं हुआ कि उसने अपने पिता से हमेशा बदतमीजी की है, क्योंकि वह जानता था कि बाप-बेटे में अनबन सृष्टि का वैसा ही शाश्वत सत्य है जैसा कि मृत्यु. शुरू के दो दिन तो चित्रकार ने यही सोचने में बिता दिए कि आखिर वह ऐसा क्या बनाए जिसे देख कर लोगों के अंतस में देशभक्ति की भावना गर्म पराठे पर मक्खन की तरह पिघलने लग जाए. अंत में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि पिताजी को आदर्श मान कर वह एक फौजी का चित्र बनाएगा. फौजी के पीछे कंटीली तारों की एक सरहद होगी, जिसके पीछे सपाट बीहड़ रेगिस्तान, फौजी के कंधों पर बच्चे, बूढ़े, औरतें और देश के अन्य नागरिक बैठे होंगे. फौजी एक ऐसी मुस्कान से पुलकित होगा जिससे देश का गौरव और अभिमान झलके. चित्रकार अपनी इस नई कलाकृति के सृजन के लिए इतना उत्साहित था कि वह भूल गया कि उसके आस-पास रंगों की तिलिस्मी गंध और उदास शामों का खालीपन अपना बसेरा बसा चुका है. फुईफुई का दोस्ताना स्वभाव और तलाकशुदा महिला का चित्रकार की दुनिया में असाधारण अधिकार सौम्यता से स्वीकार किया जा सकता था. चित्रकार ने भयानक महिला की पेंटिंग अखबारों से ढक कर स्टोर रूम में रख दी और एक नया कैनवास बालकनी में ले गया. यह उन्नीसवां दिन था. थुलथुल पेट और रेशमी जनाना बालों वाले मिस्टर सबरवाल निश्चय ही बीसवें दिन पहुंच जाएंगे. यह बात चित्रकार अच्छी तरह से जानता था, इसलिए वह दो गुनी रफ्तार से काम कर रहा था. पेंटिंग लगभग पूरी हो चुकी थी. इस पेंटिंग को बनाने में चित्रकार ने अपना सर्वश्रेष्ठ देने की पूरी कोशिश की थी. केवल मुस्कान को बनाने में ही, माफ कीजिएगा गौरव और अभिमान से परिपूर्ण मुस्कान को बनाने में ही, चित्रकार को तीन दिन लग गए थे. चित्रकार इस पेंटिंग को बनाने में इतना तन्मय हो चुका था कि वह लाल शहतूत को काला करने का काम फुईफुई से करवाने लगा था. फुईफुई एक सच्चे स्वामी-भक्त की तरह इस काम को भी उतनी ही कुशलता से करता, जितना चित्रकार स्वयं कर सकता था. लाल शहतूत को काला बनाने के बाद फुईफुई जब फ्लैट में वापस लौटता तब उसके मुंह को काले रंग से पुता देख कहीं उसका स्वामी ग्लानि से न भर जाए, इसलिए वह तुरंत बाथरूम में जाकर बाल्टी में मुंह घुसा अपना चेहरा साफ कर लेता. चित्रकार पर पेंटिंग बनाने की धुन इस कदर सवार थी कि फुईफुई की क्रियाओं की उसे बिल्कुल भी भनक नहीं लग पाती और न ही कभी वह यह जानने की चेष्टा करता कि हर सुबह बाल्टी में रखा पानी लाल और काले के मध्यवर्ती रंग मेहरून-सा क्यों दिखता है? हां, तो जैसा कि आप जानते हैं यह उन्नीसवां दिन था. और पेंटिंग लगभग पूरी हो चुकी थी, अब समय था कि चित्रकार के पिता अपने बाएं हाथ में देश का राष्ट्रीय फूल पकड़ें, लेकिन चित्रकार के पिता ने साफ इंकार कर दिया. वास्तव में पिता के पैंसठ साल के जीवन में, जिसमें उन्होने केवल मर्दानगी भरे कार्य ही किए थे, यह कैसे मुमकिन था कि वह जीवन की सारी शानो-शौकत को एक फूल पकड़ कर मिट्टी में मिल जाने देते? यह दूसरी बार था जब चित्रकार को उसकी अपनी ही पेंटिंग ने न कहा था. चित्रकार ने अनुभव किया कि रंगों की तिलिस्मी गंध और उदास शामों का खालीपन उसके शरीर के रोम-छिद्रों को बंद कर रहा है. चित्रकार बौखला उठा, इससे पहले कि वह कुछ कहता पिता ने दो टूक जवाब देकर मुंह फेर लिया, ‘‘तुम्हें पेंटिंग बनानी ही नहीं आती.’’ चित्रकार कुछ नहीं बोला. वह बोल ही क्या सकता था. अपनी बौखलाहट और बंद होते रोम-छिद्रों से युद्ध करने से अधिक सुखद उसे सोना लगा. इस बार भी उसने एक अजीब सपना देखा, उन्नीस दिनों से पेंटिंग में खड़े पिता अपने शरीर से आने वाली बदबू और त्वचा की खुश्क कर देने वाली खुजलाहट से परेशान होकर पेंटिंग से बाहर निकल आए हैं. वह नहाने के लिए बाथरूम ढूंढ़ने लगे हैं. तपते बीहड़ रेगिस्तान की गर्मी से इस कदर खीझ चुके थे कि बिना ड्रेस उतारे ही बाल्टी में रखे पानी को जल्दी-जल्दी अपने शरीर पर डालने लगे. हड़बड़ाहट में तीन-चार जग अपने शरीर पर डालने के बाद जब उन्हें थोड़ा सुकून मिला तब उन्हें अहसास हुआ कि उनकी ड्रेस चिपचिपे तरल पदार्थ से भारी हो रही है. पिताजी ने तुरंत बाल्टी में देखा, मेहरून पानी में उन्हें एक आकृति नजर आई जिसे देखकर गुस्से से केवल वह इतना ही बोल पाए, ‘‘फुईईईईईईई...फुईईईईईईई..’’ चित्रकार सुबह उठते ही बालकनी की तरफ गया. कल रात देखे सपने ने उसे इस बात की समझ दे दी थी कि कुछ ऐसा होने वाला है जिसे नहीं होना चाहिए. बालकनी में फुईफुई निष्कपट भाव से अपनी पूंछ हिला रहा था. चित्रकार ने एक नजर पेंटिंग की तरफ देखा. यह नजारा दिल दहला देने वाला था. पेंटिंग में पिताजी बनियान और कच्छा पहने खड़े थे. एक हाथ में बंदूक थीं और दूसरे में राष्ट्रीय फूल. पिता की सुर्ख लाल ड्रेस कंटीली सरहद पर सूख रही थी, जिसमें से मेहरून रंग का तरल टपक रहा था. चित्रकार पेंटिंग के बिगड़े हुए स्वरूप से अधिक इस बात से आश्चर्यचकित था कि पिताजी ने आखिर फूल पकड़ कैसे लिया और नंगा होते हुए भी एक फौजी, अभिमान और गर्व से सजी-धजी मुस्कान को कैसे बनाए रख सकता है? यह दिन अपने आपको वैसे ही दोहरा रहा था, जैसे भयानक महिला वाली पेंटिंग के तैयार हो जाने के बाद अगला दिन गुजरा था. चारों तरफ पेंटिंग की ही चर्चा थी. शाम तक सारा मजमा चित्रकार के फ्लैट पर इकट्ठा हो गया. तलाकशुदा महिला उस दिन की तरह ही सबको उछल-उछल कर नींबू-पानी पिला रही थी और धीरे से सबको कहती जा रही थी, ‘‘देखो तो फौजी की हालत को... हाहाहाहा... हाहाहाहा... यह एक नंबर का कार्टून लग रहा है.’’ फ्लैट पर इकट्ठा हुए मेहमानों की सामूहिक सहमति इस बात पर पहुंची थी कि इस पेंटिंग का सौंदर्यशास्त्रीय महत्व भले ही बहुत ज्यादा हो, लेकिन यह पेंटिंग किसी भी देश में तहलका मचा सकती है. मिस्टर सबरवाल चित्रकार की करतूत से खासा नाराज थे, हालांकि उन्हें अभी भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें फौजी की निर्लज्जता पर नाराज होना चाहिए या चित्रकार की. पेंटिंग अखबारों से ढक कर स्टोर रूम में रख दी गई. चेक वापस ले लिया गया. रंगों की तिलिस्मी गंध और उदास शामों के खालीपनसे ग्रसित चित्रकार ने फुईफुई के साथ अपने आपको तीन महीने के लिए फ्लैट में बंद कर लिया. इस बीच चित्रकार ने दो ओर पेंटिंग बनाईं जिसका परिणाम कुछ इस प्रकार रहा. सबसे पहले चित्रकार ने एक स्तनपान करते बच्चे की तस्वीर बनाई जो पेंटिंग पूरी होने के अंतिम दिन राक्षस में बदल गया. पेंटिंग के अंदर यह राक्षस अपनी ही मां को खा रहा था. दूसरी पेंटिंग आत्महत्या कर रहे युवक की थी जो हिमालय के ग्लेशियर पर खड़ा था और कूदने की तैयारी कर रहा था, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघल गया. दुर्भाग्य से युवक को तैरना भी आता था. वस्तुतः पेंटिंग के अंतिम स्वरूप में वह युवक विशाल समुद्र में तैर रहा था और बीच पर खड़ी चीयर लीडर्स अपनी कामुक अदाओं से उसका उत्साह बढ़ा रही थीं. तीन महीने बाद चित्रकार अपने फ्लैट से बाहर निकला. उसकी आंखें लाल थीं जो अंदर की तरफ धंस चुकी थीं, बढ़ी हुई दाढ़ी और उलझे-बिखरे बालों में जुएं परम आनंद प्राप्त कर रही थीं. चित्रकार इस बात को अच्छी तरह समझ चुका था कि पेंटिंग पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है, पेंटिंग खुद को वैसा ही बनाती है जैसा उसको बनना होता है या फिर जैसा कि फुईफुई और रात को आने वाले सपने चाहते हैं. चित्रकार इस बात को भी समझता था कि उसके द्वारा बनाई जाने वाली पेंटिंग की करिश्माई आदतें उसकी जिंदगी तबाह कर रही हैं. संभवतः इसलिए उसने अपने रंगों की तिलिस्मी गंध और उदास शामों के खालीपन की अनदेखी करनी शुरू कर दी थी. चित्रकार भूल गया कि वह एक चित्रकार है. उसने फिर से स्कूल जाना शुरू कर दिया. लाल शहतूत को काला करने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी. इससे भी आगे बढ़कर उसने फुईफुई का भी तलाकशुदा महिला के घर जाना बंद करवा दिया. दोपहर की झपकी के बाद बालकनी में बैठकर चाय की चुस्कियां लेते हुए चित्रकार अपने पुराने दिनों को याद करता, जब वह पत्नी के साथ अपने बुढ़ापे की कल्पना किया करता था. इन्हीं शामों में वह फुईफुई को अपनी पत्नी मान घंटों बातें करता रहता. चित्रकार ने सामान्य होने का पूरा प्रयास किया और अगर नमक-मिर्च लगा कर न कहा जाए तो चित्रकार सामान्य हो ही गया था. एक मशहूर पुरानी कहावत है, ‘‘हम सब अपनी नियति में बंधे होते हैं.’’ शायद इसी कहावत को सच साबित करने के लिए मिस्टर सबरवाल ने चित्रकार को फोन किया, ‘‘देखो साईं, हम अच्छे से जानता है कि तुम एक अच्छा चित्रकार है, यंग बॉय, ब्रिटिश काउंसिल ऑफ अर्कीयोलोजिकल रिसर्च से बड़ा प्रोजेक्ट हाथ लगा है जिसको तुम ही पूरा करेगा. इंग्लैंड के नेशनल म्यूजियम के लिए हमको एक पेंटिंग मांगता जिसमें मुगल बादशाह औरंगजेब की कट्टरता झलकनी चाहिए.’’ इतना सुनने के बाद चित्रकार को रिसीवर रखने की आवाज आई. चित्रकार को जैसे किसी ने गहरी नींद से उठा दिया हो, वह पागल हो उठा. बड़ी मुश्किल से उसने स्वयं को यह विश्वास दिलाया था कि वह चित्रकार नहीं है, उतनी ही मुश्किल से उसने रंगों की तिलिस्मी गंध और उदास शामों के खालीपन को बेवकूफ बनाना शुरू किया था और अब फिर से वही सब? चित्रकार ने सोच लिया कि मिस्टर सबरवाल को गुस्से से भरी न कहने का वक्त आ गया है कि तभी सहसा उसके मन में एक ख्याल आया. यह एक शैतानी ख्याल था. क्यों न इस बार एक प्रयोग किया जाए. चित्रकार शैतानी मुस्कान के साथ बड़बड़ाया. चित्रकार ने इतिहास की थोड़ी बहुत काट-छंटाई की और पेंटिंग बनाने में जुट गया. इस बार उसके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. उसने पेंटिंग को कुछ इस तरह बनाने के बारे में सोचा कि वह यथार्थ के बिल्कुल विलोम हो. वास्तव में उसे पूरा विश्वास था कि पेंटिंग तैयार होने के अंतिम दिन फुईफुई और स्वप्न अपना काम कर जाएंगे और पेंटिंग वैसी बन जाएगी जैसी वह चाहता है. अपनी ही पेंटिंग को धोखा देने के अहंकार ने चित्रकार को आत्मविश्वास से भर दिया. वह अपने जीवन की सबसे महान पेंटिंग न सही, लेकिन सबसे दुर्लभ पेंटिंग जरूर बनाने जा रहा था. चित्रकार ने इस पेंटिंग में एक तरफ मंदिर और एक तरफ मस्जिद बनाई जिसके बीच में बैठा बूढ़ा औरंगजेब टोपियां-सी रहा था. मंदिर और मस्जिद के बीच में एक दिया जल रहा था जिसकी लौ कैनवास के चारों खाने रोशन कर रही थी ताकि टोपी सीने के लिए पर्याप्त रोशनी का इंतजाम हो सके. सिली हुई टोपियों का एक अंबार लगा था जो एक कोण से देखने पर हिंदुस्तान का नक्शा तो दूसरे कोण से देखने पर लाल किला प्रतीत होती थी. पेंटिंग को पूरा करने में तीस दिन लग गए. चित्रकार बहुत खुश था उसे यकीन था कि कल जब मिस्टर सबरवाल पेंटिंग लेने आएंगे तब वह पेंटिंग को देखकर इतना खुश होंगे कि उनका थुलथुल पेट बेली डांस की तरह थिरकने लगेगा, जिस पर उड़ते रेशमी जनाना बाल किसी सौगात से कम नहीं लगेंगे. आज रात आने वाले स्वप्न को लेकर चित्रकार ने अनेक कल्पनाएं की थीं. उसे लगा था कि आज रात ऐसा सपना आने वाला है जिसमें औरंगजेब अपनी टोपियां बेचने के लिए पेंटिंग से बाहर आ जाएगा. टोपियां बेचने के लिए जब वह दुकान सजा रहा होगा तब फुईफुई चुपके से आकर टोपियों पर मूत देगा. फुईफुई के पेशाब से टोपिंयां तलवार में बदल जाएंगी. फुईफुई की इस हरकत से गुस्सा होकर औरंगजेब उसी तलवार से पेंटिंग के मंदिर गिरा देगा और बची हुई पाक टोपियां खंडहर हो चुके मंदिर को पहना देगा. अपनी इन कल्पनाओं से वह इतना अधिक रोमांचित था कि बिस्तर पर लेटते ही उसकी आंख लग गई. कई बार कहानियां दार्शनिक अंत चाहती हैं और जीवन का एक दार्शनिक-सा सिद्धांत भी है कि जब हम किसी चीज की इच्छा नहीं करते तब वह चीज हर समय हमें अपनाने के लिए आतुर रहती है, लेकिन वही चीज जब हमारी इच्छाओं में सबसे पहले दर्ज होती है, तब उसका न तो कोई अता होता है और न ही कुछ पता. अगले दिन जब चित्रकार उठा तो उसने उठते ही अपनी सारी पेंटिंग्स में आग लगा दी. कल रात न तो कोई सपना आया था और न ही फुईफुई ने अपने मालिक की कल्पनाओं के अनुरूप शहतूत का कर्ज अदा किया था. सुबह से दोपहर हुई और फिर दोपहर से शाम, जलती हुई पेंटिंग्स का धुआं अपने साथ रंगों की तिलिस्मी गंध और उदास शामों का खालीपन लेकर ऊपर उठ रहा था. चित्रकार और फुईफुई आग की उठती लपटों के बीच से निकलते धुएं को इत्मीनान से देख रहे थे.
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