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आतंकवादियों ने एक सांसद की घर में घुसकर हत्या की, CBI आज तक चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाई

हत्या के बाद भिंडरावाले ने मनीष तिवारी की माता को फोन किया और कहा, ''डॉ. साहब, इससे हमारा कोई लेना देना नहीं है.''

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मनीष तिवारी ने बताया कि हत्या के बाद जरनैल सिंह ने मां को कॉल किया था.

लल्लनटॉप का वीकली पॉलिटिकल शो जमघट. इसमें कांग्रेस नेता, आनंदपुर साहिब सांसद और नामी वकील मनीष तिवारी तशरीफ लाए. और राहुल गांधी की सांसदी, अडानी, प्रधानमंत्री मोदी, अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस के भविष्य जैसे विषयों पर खुलकर अपनी बात रखी. 

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मनीष इन विषयों पर नियमित रूप से लिखते और बोलते रहे हैं. लेकिन जमघट में उन्होंने अपनी ज़िंदगी की किताब का एक ऐसा पन्ना भी पलटा, जिसपर इससे पहले उन्होंने किसी इंटरव्यू में बात नहीं की थी - खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा उनके पिता प्रोफेसर विश्वनाथ तिवारी की हत्या.

मनीष तिवारी ने अपने पिता का जिक्र करते हुए बहुत कुछ बताया. कहा कि उनके पिता का पंजाब, पंजाबी और पंजाबियत के प्रति समर्पण था. वो पंजाबी में कंपेरेटिव मॉडर्न इंडियन लिटरेचर के प्रोफेसर थे. पंजाब यूनिवर्सिटी के पंजाबी डिपार्टमेंट में भाई वीर सिंह चेयर ऑफ सिख स्टडीज़ हुआ करती थी, प्रो तिवारी उसके चेयरमैन थे. राज्यसभा के नामित सदस्य भी थे. जब पंजाबी सूबा आंदोलन चला, तब प्रो. तिवारी ने एक किताब लिखी थी - लैंग्वेजेज़ ऑफ चंडीगढ़. इसमें उन्होंने ये प्रमाणित किया था कि चंडीगढ़ के लोगों की मातृभाषा पंजाबी है. उन्होंने अपनी 47-48 साल की ज़िंदगी में करीब 40 किताबें लिखी थीं, जिनमें से कई सिख गुरुओं पर थीं. 

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बकौल मनीष तिवारी, उनके पिता हिंदू-सिख एकता के पैरोकार थे और अलगावाद के खिलाफ पंजाबियत के मूल्यों का नारा दे रहे थे. वो बताते हैं,

‘दिसंबर 1983 में पिताजी ने दिल्ली में वर्ल्ड पंजाबी राइटर्स कॉन्फ्रेंस की. पूरी दुनिया से पंजाबी कलाकार और लेखक जुटे. और जो अलगाववाद का माहौल पनप रहा था, उसके खिलाफ उस वक्त उन्होंने हिंदू-सिख एकता, हिंदू सिख भाईचारे की बात शुरू की. इसके बाद माहौल कुछ बिगड़ना शुरू हुआ. ये बात सही है कि उन्हें सार्वजनिक तौर पर किसी पंजाबी अखबार में धमकी भी दी गई थी. पर उनका ये मानना था कि मुझे कौन मारेगा. मैं किसका बुरा कर रहा हूं. उनको कई बार मेरी मां ने चेताया, लेकिन पिताजी को नहीं लगता था कि कोई उनका कुछ बुरा करेगा. और फिर 3 अप्रैल 1984 को चंडीगढ़ के हमारे घर में ये वाकया हो गया.'

3  अप्रैल 1984 को क्या हुआ था?

बकौल मनीष तिवारी, 3 अप्रैल 1984 को वो सभी चंडीगढ़ के 24 सेक्टर वाले घर में थे - मकान नं 84. सुबह पौने छह बजे 3 लोग घर आए. मनीष ने आगे बताया,  

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‘सुबह जो 3 लोग घर आए और उन्होंने खुद को पिताजी का स्टूडेंट बताया. हमारी मेड, जिन्हें हम माताजी बुलाते थे, उन्होंने दरवाजा खोला. मेरी मां को जब ये मालूम चला, तो उन्होंने माताजी से कहा कि प्रो. तिवारी के उठने का वक्त भी हो ही गया है. जाकर उन्हें उठा दो. 

प्रो तिवारी इसके बाद दरवाज़े तक आए. जो तीन लोग आए थे, उन्होंने कहा कि हम आपके छात्र हैं, आपसे बात करना चाहते हैं. इसपर प्रो. तिवारी ने उन्हें ड्राइंग रूम में बैठने बुलाया. जैसे ही मेरी मां ड्रॉइंग रूम से अंदर की ओर बढ़ीं, अंदर आए हमलावर ने पिताजी को गोली मार दी. मां दौड़ते हुए कमरे में लौटीं और उस आतंकवादी को पकड़ लिया. अब तक बाहर खड़े दो हमलावरों में से एक भाग चुका था. जिस टेरेरिस्ट को मां ने पकड़ लिया था, उसने मां पर भी गोली चलानी चाही, लेकिन गोलियां खत्म हो चुकी थीं.’

मनीष ने आगे बताया कि जब ये सब हुआ तब वो और उनकी बहन ऊपर थे. आवाज़ आई तो उन्हें लगा कि सिलेंडर फटा है. जब वो नीचे आए तब उन्होंने देखा कि प्रो. तिवारी सोफे को पकड़कर उठने की कोशिश कर रहे थे. अब तक टेरेरिस्ट भाग चुके थे. और रास्ते में उन्होंने एक और बेगुनाह को भी मार दिया था. उन्होंने आगे कहा,  

‘हम उन्हें हॉस्पिटल (पीजीआई) लेकर गए. मैं डॉक्टर्स को उनके घर से लेकर दूसरी गाड़ी में अस्पताल पहुंचा. उन्हें बचाने की जितनी कोशिश की जा सकती थी, हमने की. लेकिन प्रो. तिवारी के ज़ख्म गहरे थे. उन्होंने हॉस्पिटल के (ऑपरेशन) टेबल पर ही दम तोड़ दिया.’

केस कभी इन्वेस्टिगेट ही नहीं हुआ?

बकौल मनीष तिवारी, इस घटना के बाद जरनैल सिंह भिंडरावाले ने उनकी मां को कॉल किया था और कहा था कि हमारा इससे कोई लेना देना नहीं है. जो टेरेरिस्ट थे, उनकी पहचान नहीं हो पाई. CBI को जांच दी गई, लेकिन मनीष का कहना है कि मामले में चार्जशीट अब तक दाखिल नहीं की गई है. 

दशमेश रेजिमेंट नाम के संगठन ने इस हमले की ज़िम्मेदारी ली थी. बाद में कहा गया कि हमलावरों का संगठन पाकिस्तान से था. जिन्हें कभी ट्रेक नहीं किया जा सका. 

वीडियो: मनीष तिवारी ने अग्निपथ स्कीम पर राहुल गांधी से अलग लाइन पकड़ ली

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