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नरेंद्र मोदी को राजनीति का ककहरा सिखाने वाले केशुभाई पटेल नहीं रहे

गुजरात का वो नेता, जो दो बार मुख्यमंत्री बना और कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया.

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केशुभाई को मिठाई खिलाते हुए अटलबिहारी वाजपेयी

काठियावाड़ के जूनागढ़ जिले के समतल मैदानों में अचानक से एक पहाड़ी उभर आई है. पुराणों में इसका जिक्र रेवतक पर्वत के तौर पर मिलता है. फिलहाल इसे गिरनार के नाम से जाना जाता है. उस दौर में जब शेर ही जंगल का असली राजा हुआ करता था, तब 'बिल्ली परिवार' की एक और आक्रामक नस्ल साइबेरिया से सफ़र तय करते हुए भारत पहुंची थी. इसने भारत के जंगलों में शेरों के वर्चस्व को चुनौती देना शुरू किया. शेरों की अयाल उनमें कोई ख़ास डर पैदा नहीं कर पाई. नतीजतन शेरों को पीछे हटना पड़ा. बड़े भू-भाग पर फैले शेर अंत में गिरनार की पहाड़ी पर सिमट कर रह गए. इस हमलावर विदेशी जाति का नाम था, बाघ.

देश भर के जंगलों से पीटकर भगाए गए शेरों के अलावा गिरनार कई किस्म के लोगों के लिए शरणस्थली था. यहां आपको हिन्दू योग परम्परा की हर शाखा के साधक मिल जाएंगे. एकांत की तलाश में भटकते संन्यासियों के लिए यह स्वर्ग था. संन्यासी साधना करके नीचे लौटते तो उनके झोले में धूणे की राख, चिमटे, टेके, कमंडल के अलावा शेरों से मुठभेड़ के किस्से होते, जिन्हें सुनाकर वो भक्तों पर अपना रौब कायम करते. कहते हैं कि ईसा से करीब ढाई सौ साल पहले मौर्यवंश के सम्राट अशोक ने अपनी विरुदावलियां इन पहाड़ों की छाती पर गोद दी थीं. जैन मानते हैं कि उनके 22वें तीर्थंकर नेमीनाथ ने इन्हीं पर्वतों पर तपस्या की थीं. 12वीं शताब्दी में चालुक्य शासक कुमारपाल ने यहां एक जैन मंदिर बनवाया था. इसके अलावा गोरखनाथ और अम्बा माता के प्राचीन मंदिर भी इसी पहाड़ी पर हैं. 7000 सीढ़ियों की मदद से आप तीन हजार फीट ऊंची इन पहाड़ियों की चोटी पर पहुंचते हैं.


गिरनार की पहाड़ियां
गिरनार की पहाड़ियां

जनवरी 1995. सात लोगों की एक टुकड़ी गिरनार पहाड़ी का सफ़र तय कर रही थी. यह टुकड़ी मंदिरों के दर्शन के लिए नहीं निकली थी, हालांकि रास्ते में पड़ने वाले हर मंदिर की घंटी टनटना दी जाती. ये लोग परमात्मा की खोज में भी नहीं थे. न ही बाघों की तरह ये लोग नए सिरे से शेरों के वर्चस्व को चुनौती देने जा रहे थे. इनमें केशुभाई पटेल, शंकर सिंह वाघेला, नरेंद्र मोदी, चिमनभाई शुक्ला और सूर्यकांत आचार्य शामिल थे. दो महीने बाद सूबे में विधानसभा चुनाव होने थे. राम मंदिर आंदोलन के बाद का पहला चुनाव. ये सब लोग यहां जुटे थे ताकि लोगों की नज़रों से दूर इस विधानसभा चुनाव का ब्लूप्रिंट तैयार किया जा सके. इसी बैठक में तय हुआ कि 1990 के चुनाव की पटेल राजनीति एक बार फिर से उभर रही है. चिमनभाई पटेल की मौत के बाद पटेल बिरादरी में कोई कद्दावर चेहरा नहीं है. ऐसे में केशुभाई पटेल को चेहरा बनाकर अगर चुनाव लड़ा जाए तो सफलता मिलने की संभावना बढ़ जाएगी.

गिरनार की पहाड़ी पर की गई मंत्रणा विधानसभा चुनाव में सटीक साबित हुई. कांग्रेस इस विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से हारी. कुल 182 में से 121 सीट बीजेपी के खाते में आ गई. कांग्रेस महज़ 45 के आंकड़े पर सिमट गई. यहां तक कि मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा. उप मुख्यमंत्री नरहरी अमीन, मनोहर सिंह जड़ेजा सहित राज्य सरकार के 35 में से 18 मंत्री हर गए. अहमदाबाद, भरूच, मेहसाणा, सूरत, वलसाड़, बनासकांठा, राजकोट और कच्छ में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई. 12 मार्च को बुलाई गई विधायक दल की मीटिंग में मुख्यमंत्री का चुनाव महज़ औपचारिकता था. मालाओं से लदे हुए केशुभाई पटेल ने इस मीटिंग में जाने से ठीक पहले इंडिया टुडे को दिए इंटरव्यू में कहा था-


"गुजरात ने पिछले पांच साल में भूमाफियाओं, अनैतिक व्यापारियों, सत्ता के दलालों और गुंडों का राज देखा है. हम जनता को हर लिहाज से अच्छी सरकार देने के लिए प्रतिबद्ध हैं. कुछ ही दिनों में सड़क पर चलते लोगों को यह अंतर समझ में आने लगेगा."

खजुरिया और हजुरिया

नरेंद्र मोदी को करीब से जानने वाले लोगों का कहना है कि मेहनती होने के साथ-साथ हावी हो जाना उनके स्वभाव का हिस्सा है. 1987 के साल में संघ ने अपने प्रचारक नरेंद्र मोदी को नया काम दिया, बीजेपी का संगठन देखने का. मोदी गुजरात प्रदेश बीजेपी के नए संगठन मंत्री बनाए गए. 1985 के चुनाव में माधव सिंह सोलंकी की 'खाम' राजनीति के सामने बीजेपी चारों खाने चित्त हो चुकी थी. अब नए सिरे से संगठन को खड़ा करना था. नरेंद्र मोदी संघ से आए थे. बीजेपी के संगठन को उन्होंने अपने हिसाब से चलाना शुरू किया. उस समय शंकर सिंह वाघेला बीजेपी संगठन पर मजबूत पकड़ रखते थे. शुरुआती दौर से ही वो नरेंद्र मोदी के तौर-तरीकों से खुश नहीं थे. ऐसे में मोदी ने शक्ति के संतुलन को बराबर रखने के लिए संगठन के अंदरूनी मामलों में केशुभाई का साथ देना शुरू कर दिया.


केशुभाई, नरेंद्र मोदी और शंकर सिंह वाघेला. इस तिगड़ी की वजह से गुजरात में बीजेपी को बहुमत हासिल हुआ था
केशुभाई, नरेंद्र मोदी और शंकर सिंह वाघेला. इस तिकड़ी की वजह से गुजरात में बीजेपी को बहुमत हासिल हुआ था.

सत्ता मिलते ही केशुभाई पटेल ने एक कुशल राजनेता की तरह पार्टी के भीतर संभावित विरोधियों को ठिकाने लगाना शुरू किया. नए मंत्रिमंडल में ऐसे किसी भी विधायक को जगह नहीं दी गई, जिनके टिकट के लिए शंकर सिंह वाघेला ने सिफारिश की थी. दूसरी तरफ वो नरेंद्र मोदी को केन्द्रीय संगठन में भेजकर राज्य से उनके राजनीतिक निर्वासन की तैयारी करने में लग गए. केशुभाई ने बहुत सोच-समझ कर पुख्ता योजना बनाई थी, लेकिन वो यह भूल गए कि अच्छी से अच्छी योजना कई बार उल्टी पड़ जाती है.

सितंबर 1995. केशुभाई गुजरात में विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए अमेरिकी दौरे के लिए निकल रहे थे. 'स्वदेशी' का जाप करने वाली बीजेपी के मुख्यमंत्री का विदेशी निवेश के लिए अमेरिका जाना एक किस्म की राजनीतिक उलटबांसी था. अखबारों में इस कदम के समर्थन और आलोचनाओं के बारे में लेख छप रहे थे. दौरे पर निकलने से ठीक पहले उन्होंने शंकर सिंह वाघेला को अपने पास बुलाया. उन्होंने वाघेला से पूछा कि क्या उन्हें नरेंद्र मोदी से कोई दिक्कत है. वाघेला ने दो टूक जवाब देते हुए कहा, "मुझे मोदी नहीं, आपसे दिक्कत है. जब आप लौटेंगे तो आप मुख्यमंत्री की कुर्सी गवां चुके होंगे."


1995 का चुनाव जीतने के बाद विधानसभा के बाहर विजयी मुद्रा में काशीराम राणा,केशुभाई पटेल और नरेंद्र मोदी
1995 का चुनाव जीतने के बाद विधानसभा के बाहर विजयी मुद्रा में काशीराम राणा, केशुभाई पटेल और नरेंद्र मोदी

केशुभाई, वाघेला की नाराजगी से वाकिफ थे. आखिरकार उन्होंने ही वाघेला को पार्टी में हाशिए पर लगा दिया था. वाघेला की बात को उन्होंने ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया और अशोक भट्ट को नया कार्यवाहक मुख्यमंत्री नियुक्त कर वो दौरे के लिए निकल गए. वाघेला ने चुनाव से पहले पार्टी को जीत दिलाने के लिए कड़ी मेहनत की थी. सत्ता आने के बाद हो रही अनदेखी उनके बर्दाश्त से बाहर थी. वो कई महीनों से तख्तापलट की तैयारी में जुटे हुए थे. आखिरकार उसका सही मौक़ा आ चुका था.

केशुभाई के अमेरिका जाने के बाद वाघेला ने सरकार से असंतुष्ट विधायकों को जुटाना शुरू किया. 121 में से 105 पांच विधायक उनके बुलावे पर उनके पास आए. इन विधायकों को वाघेला गांधीनगर स्थित अपने गांव वासन लेकर गए. यहां वाघेला ने सभी विधायकों से सरकार छोड़ने के लिए कहा. आधे से ज्यादा विधायक इस बात को लेकर विद्रोही गुट से अलग हो गए. पूरी छंटनी होने के बाद कुल 55 विधायक विद्रोही खेमे के साथ बने रहे. क्योंकि कई लोग खेमा छोड़कर चले गए थे इसलिए विद्रोहियों ने सही समय पर अपना ठिकाना बदलने की सोची.


बागी विधायकों के साथ शंकर सिंह वाघेला
बागी विधायकों के साथ शंकर सिंह वाघेला

गांधीनगर के माणसा तालुके में एक गांव है, चारदा. कांग्रेस के हरिभाई चौधरी इस गांव के प्रधान हुआ करते थे. उनका घर विद्रोहियों का नया ठिकाना बना. हालांकि यह जगह भी ज्यादा देर तक छुपी नहीं रही. केशुभाई पटेल खेमे के कई एमएलए अपने समर्थकों के साथ वहां पहुंचे और हरिभाई के घर पर पथराव कर दिया. हरिभाई की पत्नी भीखीबेन यह नजारा देखकर गुस्से से भर गईं. उनकी ललकार पर गांव के लोग विद्रोही गुट के विधायकों के समर्थन में खड़े हो गए. ऐसे में केशुभाई के समर्थकों को गांव छोड़ना पड़ा.

इस हमले ने वाघेला के गुट के कई लोगों का मनोबल तोड़ दिया. कई लोग पिछले दरवाजे पर अपनी वफादारियां रखकर अहमदाबाद की तरफ बढ़ गए. इस मोड़ पर शंकर सिंह यह तय कर चुके थे कि अब गुजरात में ज्यादा देर टिके रहना सुरक्षित नहीं है. सूबे से लगे हुए तीन में से दो राज्यों महाराष्ट्र और राजस्थान में बीजेपी सत्ता में थी. बचा एक राज्य मध्य प्रदेश. यहां दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी. तय यह किया गया कि बागी विधायकों को लेकर मध्य प्रदेश जाया जाए.

यह 27 सितंबर 1995 की बात है. शाम ढल चुकी थी. कुछ ही मिनटों में अंधेरा पूरी तरह से छा जाने वाला था. गांधी नगर के चारदा गांव से दो बसें निकलीं. अंदर बैठे हुए 47 लोगों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी कि उन्हें कहां लेकर जाया जा रहा है. बस मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के आवास के सामने पहुंची लेकिन रुकी नहीं. इसके बाद राजभवन भी गुजर गया. बस जाकर रुकी अहमदाबाद हवाई अड्डे पर. योजना के मुताबिक इन लोगों को तीन बजे दोपहर को ही निकल जाना था. कई लोगों को गुजरात छोड़ने के लिए मानना पड़ा. इसमें काफी वक़्त जाया हो गया. हवाई अड्डे पहुंचने के बाद जहाज भाड़े पर लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. इसमें भी एक दिक्कत थी. जहाज के टायर में खराबी थी और इसे दुरुस्त करने में काफी समय लगने वाला था. वहीं जिस जगह को इन लोगों ने मंजिल के तौर पर चुना था वहां रात को जहाज उतारने की कोई व्यवस्था नहीं थी. इस दल के मुखिया ने दिल्ली में बैठे उड्डयन मंत्री से बात की. रात में लैंडिंग के लिए गैस लाइट्स की व्यवस्था कर दी गई. आखिरकार हवाई अड्डे पहुंचने के करीब दो घंटे बाद वो अपनी मंजिल की तरफ बढ़ चुके थे. इस दल का मुखिया पीछे रुक गया था ताकि पूरे विवाद का कुछ हल निकाला जा सके.


अटल बिहारी वाजपेयी की समझाइश के बाद केशुभाई ने अपना इस्तीफ़ा दे दिया
अटल बिहारी वाजपेयी की समझाइश के बाद केशुभाई ने अपना इस्तीफ़ा दे दिया

इसके अगले दिन दो अलग-अलग जगहों से दो लोग एक ही जगह के लिए उड़ान भर रहे थे. इस जगह का नाम था अहमदाबाद. ये लोग थे राजस्थान के मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत और अटल बिहारी वाजपेयी. उन्होंने सुबह के अखबारों में गुजरात के 47 बीजेपी विधायकों के खजुराहो चले जाने के बारे में पढ़ा था. हालांकि उन्हें इसकी खबर पहले ही लग चुकी थी. बीजेपी हाईकमान की तरफ से दो और लोग इन बागी विधायकों को मनाने के लिए भेजे गए थे. कुशाभाऊ ठाकरे जोकि उस समय पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हुआ करते थे और उमा भारती जोकि खजुराहो से लोकसभा सदस्य थीं. ये दोनों लोग विधायकों से मिलने खजुराहो पहुंचे हुए थे. इधर अटल बिहारी वाजपेयी और भैरोसिंह शेखावत अहमदाबाद में शंकर सिंह वाघेला को मनाने में लगे हुए थे. दो दिन तक समझाइश के बाद शंकर सिंह वाघेला की तीन मांगें मान ली गईं-

1. उनके समर्थक विधायकों में से कम से कम छह को मंत्रिमंडल में शामिल किया जाए. 2. केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री पद से हटाया जाए. 3. नरेंद्र मोदी को सूबे की सियासत से हटाकर केंद्र में ले जाया जाए.

केशुभाई की योजना पलट चुकी थी. उनकी विदाई तय कर दी गई थी. नरेंद्र मोदी को केंद्र की सियासत में लाया गया और उन्हें हिमाचल और हरियाणा का प्रभार सौंपा गया. सुरेश मेहता के नेतृत्व में बनी नई सरकार में शंकर सिंह वाघेला के कहने पर खजुराहो गए 47 में छह विधायकों को मंत्री पद दिया गया. इन विधायकों के लिए बीजेपी संगठन में नया शब्द प्रचलन में आया, 'खजुरिया'. जो लोग इस तख्तापलट के वक्त केशुभाई के समर्थन में खड़े रहे, उनके जी हजूरी करने पर तंज कसते हुए उन्हें 'हजूरिया' कहकर बुलाया जाने लगा. जो लोग किसी खेमे में नहीं थे उन्हें 'मजूरिया' यानी मजदूर की श्रेणी में रख दिया गया.


केशुभाई पटेल और शंकर सिंह वाघेला. बीच में फंसे हुए हैं सुरेश मेहता.
केशुभाई पटेल और शंकर सिंह वाघेला. बीच में फंसे हुए हैं सुरेश मेहता.

यह केशुभाई पटेल की बतौर मुख्यमंत्री पहली पारी का अवसान था लेकिन एक पारी अभी और बाकी थी. उन्होंने अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत शून्य से शुरू की थी. वो इससे बड़े उतार-चढ़ाव देख चुके थे. जूनागढ़ के विस्वादर तालुके में 24 जुलाई 1928 को पैदा हुए केशुभाई पटेल महज 7वीं कक्षा तक पढ़ पाए थे. उन्होंने जो कुछ भी सीखा सड़कों पर चप्पल घिसकर सीखा था. 1945 में आरएसएस से जुड़े और उसके प्रचारक बन गए. 1960 में जनसंघ की स्थापना के साथ उनकी राजनीतिक पारी की शुरुआत हुई. गुजरात में बीजेपी और संघ से जुड़े लोग बताते हैं कि 'केशुबापा' 30 से ज्यादा बार पूरे गुजरात का चक्कर लगा चुके हैं. एक दौर में वो और शंकर सिंह वाघेला संघ और जनसंघ के संगठन को मजबूत बनाने के लिए गांव-गांव भटका करते थे. वाघेला अब उनसे छिटक चुके थे लेकिन घुमक्कड़ी के दौरान जो सबक उन्होंने हासिल किए थे वो उनके साथ थे.

रहिमन चुप हो बैठिए

सुरेश मेहता भी ज्यादा दिन तक सरकार चला नहीं पाए. उसके बाद शंकर सिंह वाघेला और दिलीप पारेख का भी वही हाल हुआ. आखिरकार आया 1998 का विधानसभा चुनाव. केशुभाई पटेल के सामने पार्टी के भीतर कोई चुनौती सामने नहीं रही. इतनी अस्थिरता के बाद शंकर सिंह वाघेला की सत्ता में वापसी की कोई उम्मीद नहीं थी. एक बार फिर से बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को धो दिया. शंकर सिंह वाघेला इस बार कांग्रेस के खेमे में थे. बीजेपी ने इस चुनाव में 182 में से 117 सीटों पर अपना परचम लहराया. वहीं कांग्रेस 60 सीटों पर सिमट गई. 4 मार्च 1998 को केशुभाई ने दूसरी बार सूबे के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली.


दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद केशुभाई पटेल
दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद केशुभाई पटेल

मुसीबत भरा कार्यकाल

केशुभाई पटेल का यह कार्यकाल मुसीबत बनकर आया था. कार्यकाल संभालने के तीन महीने बाद बाद ही परीक्षा की घड़ी आ गई. एक जून 1998 को गुजरात का सबसे बड़े व्यापारिक बंदरगाह कांडला भयंकर तूफ़ान की चपेट में आ गया. करीब 10,000 लोग इस तूफ़ान की वजह से मारे गए. इनमें से ज्यादातर नमक की खदानों में काम करने वाले मजदूर थे. मौसम विभाग इस तूफ़ान को भांप पाने में पूरी तरह से नाकाम रहा था, जिसकी वजह से इसने बड़े पैमाने पर विनाश किया.

कांडला के तूफ़ान से केशुभाई का प्रशासन निकल पाता तभी दूसरी आफत उनके इंतजार में खड़ी थी. 1999 और 2000 में लगातार दो साल सौराष्ट्र और कच्छ में भयंकर सूखा पड़ा. सूबे के सारे बांध सूख गए. गांव के गांव खाली हो गए. बड़े पैमाने पर पशु मारे गए. उस समय यह सूखा राष्ट्रीय मीडिया में छाया रहा. 26 जनवरी 2001 की सुबह 8.46 मिनट पर भुज जिले में 7.7 तीव्रता वाला भूकंप आया. इसने कच्छ के पूरे इलाके को तहस-नहस करके रख दिया. चार लाख के करीब घर जमींदोज हुए. 20,000 से ज्यादा लोग मारे गए. 1,67,000 लोग घायल हुए.


2001 का भुज भूकंप
2001 का भुज भूकंप

केशुभाई पटेल कुदरत द्वारा पैदा की गई समस्या से जूझ ही रहे थे कि संगठन में उनके खिलाफ एक बार फिर से बगावत खड़ी हो गई. 2000 के साल में साबरमती विधानसभा सीट पर उप-चुनाव हुए. कांग्रेस के टिकट पर पूर्व उप-मुख्यमंत्री नरहरी अमीन चुनाव लड़ रहे थे. 1998 में वो इसी सीट से चुनाव हारे थे. सामने थे बीजेपी के बाबूभाई पटेल. इस बार बाबूभाई चुनाव हार गए. एक पटेल मुख्यमंत्री के रहते हुए बीजेपी के पटेल प्रत्याशी की कांग्रेस के पटेल प्रत्याशी से हार ने केशुभाई की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर दिए. यह सीट गांधी नगर विधानसभा के दायरे में आती थी. उस समय यहां से लालकृष्ण आडवाणी सांसद हुआ करते थे. वो केंद्र में गृहमंत्री थे. इसलिए इस हार के मायने बड़े थे. इसके अलावा पूरा जोर लगाने के बावजूद बीजेपी को साबरकांठा लोकसभा सीट के उप-चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था. कहानी यहीं खत्म नहीं हुई. इसी साल हुए पंचायत चुनाव में भी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद हाईकमान ने केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा सौंप देने के लिए कहा. छह अक्टूबर के रोज केशुभाई पटेल मुख्यमंत्री की कुर्सी से विदा हुए.

नए मुख्यमंत्री नरेंद्र ने बाहर आकर मीडिया से कहा-

"सूबे की असल कमान केशुभाई के हाथ में ही है. वो ही बीजेपी का रथ हांकने वाले सारथी हैं. मुझे उनकी सहायता के लिए गियर की तरह उनके पास लगा दिया गया है."

बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बनने के बाद जिस विनम्रता का प्रदर्शन कर रहे थे वो महज़ लोक मर्यादा के चलते था. असल कहानी काफी उलझी हुई थी. लगातार होने वाली हार के चलते केशुभाई को संघ की तरफ से बराबर निर्देश मिल रहे थे कि उन्हें जल्द ही मंत्रिमंडल में बदलाव करना चहिए. केशुभाई इसे गैर-जरूरी कहकर टालते रहे. असल में केशुभाई के विकल्प की खोज छह महीने पहले ही शुरू हो गई थी. आरएसएस उनके काम से खुश नहीं था. विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं के साथ भी केशुभाई के रिश्ते तनावपूर्ण थे. उपचुनाव में मिली हार से यह तय हो गया कि केशुभाई पटेल अब ज्यादा दिन के मेहमान नहीं है. नरेंद्र मोदी उस समय बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव थे और दिल्ली में डेरा जमाए हुए थे. यहां वो अक्सर आरएसएस के हेडक्वॉटर 'केशव कुञ्ज' में देखे जाते. संघ के पदाधिकारियों के साथ उनके अच्छे संबंध उनके काम आए. मोदी की राह में एक ही दिक्कत थी. गुजरात आरएसएस के नेता उनके नाम पर सहमत नहीं थे. वो मोदी के काम करने के तानाशाही तरीके को पसंद नहीं करते थे. इसलिए गुजरात आरएसएस की तरफ से लगातार उनके खिलाफ मोर्चेबंदी होती रही. इसमें सबसे अहम किरदार अदा किया सुनील जोशी ने. वो उस समय गुजरात बीजेपी के महासचिव थे और संघ के कोटे से इस पद पर आए थे.


केशुभाई राजनीति से सन्यास लेने की धमकी दे चुके थे
केशुभाई राजनीति से संन्यास लेने की धमकी दे चुके थे

इधर केशुभाई पटेल इस्तीफ़ा देने को तैयार नहीं थे. केशुभाई बीजेपी के लिए पटेल वोट बैंक की कुंजी थे. पार्टी चाहती थी कि तख्तापलट शांति से निपट जाए. इस काम की जिम्मेदारी सौंपी गई जना कृष्णमूर्ति, कुशाभाऊ और मदन लाल खुराना को. केशुभाई ने हाईकमान से कहा कि वो विधायक दल के हर सदस्य को दिल्ली बुलाकर उनकी वफादारी पूछ सकते हैं. केशुभाई पटेल ने अपनी तरफ से आधा दर्जन विधायक दिल्ली भेजे. इन विधायकों ने पहले तो केशुभाई के समर्थन की बात कहीं लेकिन जब हाईकमान के दवाब में नरेंद्र मोदी को अपना नेता स्वीकार कर लिया. इसके बाद केशुभाई पटेल ने अपना आखिरी दांव चला. उन्होंने धमकी दी कि अगर उनका इस्तीफ़ा लिया गया तो वो सियासत से संन्यास ले लेंगे. बीजेपी हर हाल में केशुभाई को अपने साथ रखना चाहती थी.

आखिरकार मदन लाल खुराना पूरे गतिरोध को शांत करने लिए अहमदाबाद भेजे गए. मदन लाल खुराना ने 'केशुबापा' को आश्वासन दिया कि मोदी उनके खिलाफ बदले की भावना से काम नहीं करेंगे, न ही वो उनके रास्ते में आड़े आएंगे. उन्हें समझाया गया कि अगर वो शांति से इस्तीफ़ा दे देते हैं तो इसमें उनकी और पार्टी दोनों की इज्ज़त बनी रहेगी. केशुभाई को समझ में आ गया था कि बाज़ी उनके हाथ से निकल गई है. हाथ में जो रह गया है वो है कलम और सादा पन्ना, जिस पर उन्हें इस्तीफ़ा लिखकर देना है.


मुख्यमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी को कमल भेंट करते केशुभाई
मुख्यमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी को कमल भेंट करते केशुभाई

2012 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए 2014 की उम्मीदवारी के लिए पहला पड़ाव था. वो जोर-शोर से प्रचार में जुटे हुए थे. इस बीच केशुभाई एक बार फिर अखबारों की सुर्खियों में आए. चार अगस्त 2012 को चुनाव से कुछ महीने पहले उन्होंने बीजेपी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया. हालांकि यह एक गैर-जरूरी रस्म थी. 2007 में ही वो खुलकर मोदी के विरोध में उतर चुके थे. उस समय उन्होंने पटेल बिरादरी को परिवर्तन के लिए वोट देने की अपील की थी. हालांकि इस अपील का कोई ख़ास असर दिखा नहीं था. उन्होंने नई पार्टी की घोषणा की. नाम रखा गया, 'गुजरात परिवर्तन पार्टी'. इस तरह 2012 के चुनाव में वो तीनों आदमी आमने-सामने थे जिन्होंने राजनीति का ककहरा एक साथ पढ़ा था. केशुभाई पटेल, शंकर सिंह वाघेला और नरेंद्र मोदी. हालांकि यह मुकाबला कहीं से त्रिकोणीय नहीं था. केशुभाई पटेल की पार्टी महज़ दो सीट पर जीत हासिल कर पाई. इसमें से एक सीट जूनागढ़ की विस्वादर थी, जहां केशुभाई 1995 के बाद चुनाव नहीं हारे थे. 2014 में उन्होंने अपनी पार्टी का विलय बीजेपी में कर दिया और अपनी विधानसभा सीट से इस्तीफ़ा दे दिया.

2014 में हुए उप-चुनाव में उनके बेटे भरत पटेल इस सीट से बीजेपी की टिकट पर चुनाव लड़े और हार गए. केशुभाई पटेल ने व्यक्तिगत जीवन में काफी तकलीफों का सामना किया. 2006 में उनकी पत्नी लीलाबेन जिम में लगी आग की चपेट में आ गईं जिसकी वजह से उनका इंतकाल हो गया. 2017 के सितंबर में उनके 60 साल के बेटे प्रवीण की हार्ट अटैक की वजह से मौत हो गई थी.

केशुभाई ने अस्पताल में ली अंतिम सांस

29 अक्टूबर 2020, गुरुवार को केशुभाई पटेल का निधन हो गया. कुछ वक्त पहले केशुभाई पटेल कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे, हालांकि उन्होंने कोरोना को हरा दिया था. कोरोना को मात देने के बाद भी उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही थी. गुरुवार सुबह सांस लेने में तकलीफ के बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहां उन्होंने अंतिम सांस ली.




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