
सत्य व्यास. इन्होंने घर पे कहा कि स्कूल में मैथ्स नहीं है इसलिए बायोलॉजी ले ली. लेकिन भूल गए कि इनके पिता जी इनके स्कूल के प्रिंसिपल के ख़ास दोस्त हैं. गणित से इनकी नहीं बनती थी. लेकिन कीबोर्ड से खूब यारी है. साथ ही ऐसे किस्सों से जिसे सुन हम एक बहुत अच्छे समय में पहुंच जायें. क्रिकेट और सिनेमा पर बातें करते अघाते नहीं हैं. अबकी बार, एक नया किरदार. सत्य व्यास के हवाले से.
नवेन्दु जी कहा करते थे कि प्रेम की धमक केदारनाथ साहब की तरह होनी चाहिए. पहचाने सब, जाने कोई ना. अब चूंकि नवेन्दु जी कहते थे तो अकाट्य था. प्रेम वाली बात रख ली गयी और केदारनाथ साहब को जाने दिया गया.
केदारनाथ कौन? केदारनाथ सहगल. हिन्दी फिल्म उद्योग का वह चरित्र अभिनेता जिसने पांच सौ से ज्यादा ही फिल्में कीं, मगर उसके बारे में जानकारी बस इतनी कि वह 2013 में मर गया. याद दिलाने की कोशिश करूं तो बस एक ही दृश्य जेहन में आता है. फिल्म शोले के प्रसिद्ध पानी की टंकी वाले दृश्य में नीचे खड़ा वो ग्रामीण जो अपने साथी से कहता है कि 'अंग्रेज़ लोग जब मरने जाते है तो उसे ही सुसाइड कहते हैं.' यदि अब भी आप केदारनाथ सहगल को पहचानने में असमर्थ हैं तो भी बुरा न मनाइए. यह आपकी गलती नहीं है. केदारनाथ जी जाने और पहचाने जाने से ज्यादा देखे जाने वाले कलाकार रहे. ये हैं केदारनाथ सहगल. 500 से भी ज्यादा फिल्मों में ब्लिंक एंड मिस किरदार निभाने वाला कलाकार.

केदारनाथ सहगल ने अपने फिल्मी सफ़र की शुरुआत पृथ्वी राजकपूर अभिनीत 1941 की फिल्म ‘सिकंदर’ से की थी. कलाकारों की सूची में केदार जी का नाम न होने का सिलसिला जो चला वो कई दशकों तक बदस्तूर जारी रहा. जीवनपर्यंत केदार जी झलक भर का किरदार निभाते रहे.
'अब इन्हें दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है.'
'यह शरीफों का मुहल्ला है.'
'हैंड्स अप! पुलिस ने तुम्हें चारों तरफ से घेर लिया है.'
'आप अदालत की तौहीन कर रहे हैं.'
'ये तो पुलिस केस है.'
'हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं.' इन जैसे संवादों को कालजयी बनाने के पीछे केदार जी की बड़ी भूमिका रही है. बाज़ दफा वही इन संवादों के पीछे खड़े किरदार होते थे.
70 एवं 80 के दशक की फिल्मों का तो यह आलम था कि केदारनाथ सहगल हर दूसरी फिल्म का हिस्सा होते थे. शोले, जंजीर, डॉन सहित लगभग पांच सौ फिल्में करने वाले केदार साहब की कद काठी ऐसी थी कि वह पचास साला किसी भी किरदार मे फिट बैठते थे. जेलर, डॉक्टर, वकील, जज, पड़ोसी, ग्रामीण व्यवसायी, होटल मैनेजर, क्लब मालिक, इंस्पेक्टर इत्यादि शायद ही ऐसा कोई किरदार हो जो 60 साल के अपने फिल्मी सफर में केदार साहब से अछूता रहा गया हो. इनकी भूमिकायें इतनी चोटी होती थीं कि दर्शक इन्हे नोटिस तो करता था पर याद नहीं रख पाता था. सह कलाकारों कि शायद यही नियती मायानगरी ने तय की है. 90 के दशक में जब टीवी का दौर आया तो केदार जी ने व्योमकेश बख्शी सरीखे धारावाहिकों में भी काम किया. कुछ फिल्मों के अलावा अगले दशक में केदार जी कैमरे से दूर होते चले गए. स्वास्थ्य कारण भी प्रमुख रहा. वर्ष 2013 में केदार सहगल उर्फ सहगल साहब उर्फ केदार नाथ साहब का निधन हो गया. उनके निधन के दिन उन्हें मुंबई ने याद किया. उससे पहले नहीं. वैसे भी याद रखने के लिहाज से मुंबई काफी संकरी जगह है. दिक्कत फिर भी कोई नहीं है. क्योंकि केदार सहगल जैसे कलाकार फिल्म प्रेमियों के जेहन में रहने के लिए होते हैं.