एक जापान है, जो फ़िल्मों और सुनी सुनाई बातों के ज़रिए हम तक पहुंचता है. मसलन, जापानी बहुत मेहनती लोग होते हैं. 14-14 घंटे काम करते हैं. वहां के बच्चे ख़ूब पढ़ते हैं. अनुशासित लोग होते हैं. शांतिप्रिय होते हैं और तरक्की में बेजोड़ भी. और, अमूमन पर्सेप्शन और हक़ीक़त में फ़र्क़ आ जाता है. लेकिन जापान के केस में ऐसा नहीं है. इकोनॉमी को ही देख लें. दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जापान. दुनिया में सबसे ज़्यादा लाइफ़ एक्सपेक्टेंसी, सबसे कम हत्या दर, ताक़तवर पासपोर्ट और दुनिया का सबसे अच्छा हाई-स्पीड रेल नेटवर्क. किसी भी विकास के सूचक के हिसाब से जापान बहुत आगे है, लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि PM फुमियो किशिदा ने कह दिया कि देश के लिए अभी नहीं तो कभी नहीं की घड़ी आ गई है. अंग्रेज़ी में कहें तो 'now or never'.
जापान में बच्चे नहीं पैदा हो रहे, आबादी बूढ़ी हो रही, भयंकर दिक्कत होने वाली है!
जापान के PM ने आबादी संकट पर कहा, 'अभी नहीं तो कभी नहीं!'

जापान के सामने जनसंख्या बड़ी चुनौती है. भारत की तरह जनसंख्या का बढ़ना चुनौती नहीं है. जापान की कुल आबादी तो साढ़े बारह करोड़ के आस-पास है. कारण है जापान का डेमोग्राफ़िक डिविडेंट. डेमोग्राफ़िक डिविडेंट को एक पंक्ति में समझ लीजिए. आबादी की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती है, उसका जो असर इकॉनोमी पर होता है, उसे कहते हैं डेमोग्राफ़िक डिविडेंट.
जापान में हुआ ये है कि देश में पूंजीवाद को बढ़ावा मिला. ख़ूब तरक्की हुई. ख़ूब शहरीकरण हुआ. स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हुईं. सिविक सेंस बढ़ा. इस वजह से जापान का बर्थ रेट कम हुआ और लोग लंबी उम्र तक जीने लगे. एक औसत जापानी की लाइफ़-एक्सपेक्टेंसी है 84 साल. यानी ज़्यादातर जापानी 84 साल तक तो जीते ही हैं. लेकिन समस्या ये है कि जापान बूढ़ों का देश बनता जा रहा है. जापान के बच्चे, जवान और बूढ़ों की औसत उम्र निकाली जाए तो वो है 48 साल. जापान में 62 से ज़्यादा उम्र के लोगों की आबादी एक-चौथाई है, जो 2050 से बढ़ कर एक-तिहाई होने की आशंका है.
आप ऐसे समझिए कि लोगों की उम्र बढ़ रही है. वो रिटायर हो रहे हैं और उनकी जगह काम करने वालों की संख्या कम है. काम और काम करने वालों का गैप बढ़ गया है. बर्थ रेट कम क्यों है, इसके लिए एक्सपर्ट्स कुछ कारण बताते हैं. जैसे: मंहगाई, शहरों में कम जगह और बच्चों की केयर फ़ेसिलिटीज़ कम हैं. इस वजह से कपल्स बच्चे कम पैदा करते हैं. दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद जापान में दो साल का 'बेबी बूम' आया था. मतलब प्रजनन दर ज़्यादा था, लेकिन फिर मामला पलट गया. बहुत समय तक प्रजनन दर कम रहा और कम होता गया.

कुल जमा बात ये कि 20 साल से कम युवाओं की आबादी केवल 16% है. और, जो युवा बचे हैं, वो अवसरों के लिए शहर जाने लगे हैं और गांव ख़ाली हो गए. ग्रामीण इलाक़ों में आबादी तेज़ी से घटी, जिससे गांवों में टैक्स कलेक्शन कम हो गया हैं. और, आबादी का ऐसा अनियमित बटवारा ही जापान की क्राइसिस है. कहीं कामगार आबादी बहुत ज़्यादा है, कहीं है ही नहीं.
इसीलिए जनवरी की शुरूआत में ख़बर आई थी कि जापान की सरकार अपने नागरिकों को देश की राजधानी टोक्यो को छोड़ने के लिए एक मिलियन येन यानी क़रीब सवा 6 लाख रुपये दे रही है. टोक्यो में भी यही हुआ: आबादी क्षमता से ज़्यादा बढ़ गई. इसलिए सरकार चाहती है कि लोग टोक्यो से विस्थापित होकर विकासशील या कम विकसित शहरों को आबाद करें. ताकि वहां आर्थिक तरक्की हो और बसावट का विकेंद्रीकरण हो. और, इसी सिलसिले में जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा जापान के नीति-नियंताओं के साथ मीटिंग्स कर रहे हैं. जापान टाइम्स की ख़बर के मुताबिक़, फुमियो ने कहा है कि समाज की स्थिरता और अर्थव्यवस्था की मज़बूती के लिए ज़रूरी है कि बच्चों के पालन-पोषण संबंधित नीतियाँ और योजनाएँ बनाई जानी चाहिए.
एक ज़माना था जब रबींद्रनाथ टैगोर जापान से बहुत प्रभावित थे. उन्होंने तीन बार जापान की यात्रा की और उसकी आर्थिक और वैज्ञानिक उपलब्धियों को ख़ूब सराहा. पर अब पिछले कई दशकों से जापान की अर्थव्यवस्था सुस्त हो चली है. ये वहाँ की सरकार और समाज के लिए ख़तरे की घंटी है. इसीलिए वहाँ के प्रधानमंत्री ने कहा – अभी नहीं तो कभी नहीं. यानी जापान को सख़्त पॉलिसी शिफ़्ट की ज़रूरत है.
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