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एक कुत्ते के नाम से जानी जाती है पाकिस्तान बॉर्डर पर बनी सेना की ये चौकी

अगली बार जब सेना पर प्यार आए, तो इस जैक नाम के कुत्ते को भी थैंक्यू कहिएगा. मन ही मन.

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जैक पाकिस्तान से सटी नियंत्रण रेखा के पास बनी सेना की सबसे आखिरी चौकी पर ड्यूटी करता है. पिछले पांच सालों से. हर दिन करीब 50 किलोमीटर तक गश्ती करता है. न केवल सीमा की, बल्कि जवानों की भी हिफाजत करता है.
सीमा पर तैनात जवानों की बहुत बातें होती हैं. लेकिन एक सैनिक ऐसा भी है, जिसकी बहादुरी के बारे में शायद आपने पहले कभी न सुना हो. जैक. देश के सबसे बहादुर सिपाहियों में से एक. जैक इंसान नहीं है. कुत्ता है. चौपाया सैनिक. मगर वो इस मुल्क के लिए कई ऐसी चीजें करता है, जो कोई इंसान नहीं कर सकता है. ऐसी मुश्किल परिस्थितियों में, जहां जाना सबके बस की बात नहीं. शायद इसीलिए सेना की इस चौकी को अब कोई उसके असली नाम से नहीं पुकारता. आसपास की चौकियों के जवान इसे 'जैक पोस्ट' कहकर पुकारते हैं. यहां तक कि खुद सेनावाले भी इस चौकी को 'जैक पोस्ट' ही कहकर बुलाते हैं.
बस इस चौकी पर नहीं, बल्कि आसपास की सारी चौकियों के लोग जैक को जानते हैं.
बस इस चौकी पर नहीं, बल्कि आसपास की सारी चौकियों के लोग जैक को जानते हैं.

आगे-आगे जैक चलता है, पीछे सेना की गाड़ियां चलती हैं जैक भारत-पाकिस्तान सीमा से लगी नियंत्रण रेखा के पास ड्यूटी करता है. सीमा के पास जो सबसे आखिरी चौकी है, वहां पर. जैक के अलावा इस चौकी पर सेना के करीब 30 जवान भी तैनात हैं. दिन हो कि रात, सर्दी हो कि बरसात, जैक हरदम ड्यूटी पर तैनात रहता है. नियंत्रण रेखा के पास हमारे सैनिक रोजाना गश्त करते हैं. आतंकियों और घुसपैठियों पर नजर रखने के लिए. जैक इस टोली का परमानेंट मेंबर है. जब सेना का काफिला बॉर्डर के नजदीकी इलाकों में गश्ती के लिए जाता है, तब जैक उनकी गाड़ियों के आगे चलता है. उनकी हिफाजत करते हुए. कोई खतरा तो नहीं, कोई बारूदी सुरंग तो नहीं, ये सब देखते-सूंघते हुए. जवान कहीं आराम करने रुकते हैं, तो जैक के भरोसे. कि उसकी चौकस निगाहें किसी भी खतरे को समय रहते भांप लेंगी. और बचा लेंगी. इन जवानों के लिए जैक उनका दोस्त है. सहकर्मी है. मददगार है. सेवियर है.
पुलिस और सेना में कुत्तों को लेने की बड़ी पुरानी परंपरा रही है. ये परंपरा जरूरत से पैदा हुई. अपनी सूंघने की शक्ति और छोटी से छोटी आहट से खतरे को भांपने की ताकत उन्हें इतना खास बनाती है.
पुलिस और सेना में कुत्तों को लेने की बड़ी पुरानी परंपरा रही है. ये परंपरा जरूरत से पैदा हुई. अपनी सूंघने की शक्ति और छोटी से छोटी आहट से खतरे को भांपने की ताकत के कारण वो बहुत काम आते हैं.

...तो जैक जैसे आर्मी के कुत्तों के लिए भी थैंक्यु फील कीजिएगा करीब पांच साल पहले इसी पोस्ट पर पैदा हुआ था वो. इतने ही साल उसे सेना के लिए काम करते हुए हो गए. ये जिस पोस्ट की हम बात कर रहे हैं, वो साल के करीब चार महीने तक बर्फ से ढका रहता है. ऐसे मौसम में जवानों के लिए जैक से बड़ा कोई और मददगार नहीं. सर्दी के मौसम में बर्फ का फायदा उठाकर आतंकवादी घुसपैठ की खूब कोशिश करते हैं. सबसे ज्यादा घुसपैठ की कोशिशें इसी मौसम में होती हैं. ऐसे में जैक सेना के लिए बहुत मददगार साबित होता है. बर्फ के नीचे छुपे रास्तों को खोज निकालने का काम हो कि घुसपैठियों की बनाई सुरंगों को खोजने का काम, जैक हर ताले की चाभी है. जैक की एक कहानी भी सुनाते हैं यहां के जवान. कि एक बार किसी और पोस्ट पर तैनात एक अफसर ने जैक को अपने साथ ले जाने की कोशिश की. जबरन ले भी गए. जिस पोस्ट पर उसे ले गए, वो करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर था. जैक रात के रात वहां से दौड़कर भाग आया. सेना की कई यूनिट्स के पास ऐसे बहादुर कुत्ते होते हैं. उनकी जरूरत पड़ती है. कुत्ते जो कर सकते हैं, वो हम-आप नहीं कर सकते. जिन हरकतों को हमारी नंगी आंखें नहीं देख पातीं, उन्हें कुत्ते सूंघ लेते हैं. अगली बार जब सेना पर बहुत प्यार आए, तो थोड़ी सी मुहब्बत जैक जैसे कुत्तों के नाम भी खर्च कर लीजिएगा. वो जो कर रहे हैं, हमारे-आपके लिए ही तो कर रहे हैं.


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