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क्या मनुस्मृति इतनी खराब किताब है कि इसे जला देना चाहिए?

भीमराव आंबेडकर ने तो यही कहा है.

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बाबाभीमराव आंबेडकर ने मनुस्मृति को दलितों को खिलाफ लिखी गई एक किताब करार दिया. उन्होंने इसे जलाकर इसका विरोध किया. (सांकेतिक तस्वीर)
डॉ. भीमराव आंबेडकर अपनी किताब 'फ़िलॉसफ़ी ऑफ हिंदूइज़्म' में लिखते हैं,
"मनु ने चार वर्ण व्यवस्था की वकालत की थी. मनु ने इन चार वर्णों को अलग-अलग रखने के बारे में बताकर जाति व्यवस्था की नींव रखी. हालांकि, ये नहीं कहा जा सकता है कि मनु ने जाति व्यवस्था की रचना की है. लेकिन उन्होंने इस व्यवस्था के बीज ज़रूर बोए थे."
इसके बाद वह पल आया जो इतिहास में दलितों चेतना आंदोलन में मील के पत्थर के तौर पर दर्ज है. 25 दिसम्बर 1927 को डॉ. भीमराव आंबेडकर ने महाड नाम के छोटे से तटीय कस्बे में पहली बार मनुस्मृति की प्रति को जलाया. तब से यह वर्ण व्यवस्था का विरोध करने का प्रतीक बन गया. हर साल महाराष्ट्र के कई इलाकों में दलित चेतना के तौर पर 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन का कार्यक्रम होता है.
अब तकरीबन 90 साल आगे आते हैं. साल 2017, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक इंद्रेश कुमार ने जयपुर में एक कार्यक्रम में शामिल होकर मनु और मनुस्मृति की प्रशंसा की. उन्होंने कहा,
मनु न केवल जातिप्रथा के विरोधी थे, बल्कि विषमता की भी मुखालिफत करते थे. अतीत के इतिहासकारों ने जनता के सामने ‘दबाव के तहत’ मनु की ‘गलत छवि’ पेश की है. मनु सामाजिक सद्भाव और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में दुनिया के पहले न्यायविद थे.
आखिर ऐसा क्या है मनुस्मृति नाम की इस किताब में, जो बरसों के बाद भी इसे चर्चा में बनाए रखती है. आइए जानते हैं इस किताब के बारे में और कोशिश करते हैं इसके विरोध और समर्थन के कारणों को समझने की. आखिर मनुस्मृति आई कहां से? वैसे तो अमूमन इसे आदि पुरुष मनु की लिखी एक किताब माना जाता है, लेकिन आधुनिक जानकार इस पर अलग-अलग राय रखते हैं. वह इस किताब को दूसरी से तीसरी शताब्दी या ईसा पूर्व कुछ शताब्दियों का मानते हैं. मशहूर माइथोलॉजिस्ट देवदत्त पट्टनायक मानते हैं कि यह किताब तकरीबन 1800 साल पहले आस्तित्व में आई. वह कहते हैं कि यह वह वक्त था, जब वैदिक हिंदूज्म मंदिर आधारित पौराणिक हिंदुज्म में तब्दील हो रहा था. उनके अनुसार मनुस्मृति को लोग 'मनु की संहिता' समझते हैं, जो गलत है. यह असल में 'मनु का विचार' हैं. बहुत से लोगों को लगता है कि मनुस्मृति एक कानून की किताब है. जिस तरह मुस्लिमों की शरिया या कैथलिक ईसाइयों का चर्च डॉग्मा होता है. इसे लोग भारत के संविधान जैसा भी मान लेते हैं, लेकिन असल में ऐसा है नहीं.
इतिहासकार नराहर कुरुंदकर अपनी किताब Manusmriti: Contemporary Thoughts में इस किताब के फॉरमेट और कंटेंट के बारे में समझाते हुए लिखते हैं कि,
"स्मृति का मतलब धर्मशास्त्र होता है. ऐसे में मनु द्वारा लिखा गया धार्मिक लेख मनुस्मृति कहा जाता है. मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं, जिनमें 2684 श्लोक हैं. कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964 है. इस किताब की रचना ईसा के जन्म से दो-तीन सौ सालों पहले शुरू हुई थी."
मनुस्मृति की सामान्य रूपरेखा कुछ ऐसी है
# पहले अध्याय में प्रकृति के निर्माण, चार युगों, चार वर्णों, उनके पेशों, ब्राह्मणों की महानता जैसे विषय शामिल हैं.
# दूसरा अध्याय ब्रह्मचर्य और अपने मालिक की सेवा पर आधारित है.
# तीसरे अध्याय में शादियों की किस्मों, विवाहों के रीति रिवाजों और श्राद्ध यानी पूर्वज़ों को याद करने का वर्णन है.
# चौधे अध्याय में गृहस्थ धर्म के कर्तव्य, खाने या न खाने के नियमों और 21 तरह के नरकों का ज़िक्र है.
# पांचवे अध्याय में महिलाओं के कर्तव्यों, शुद्धता और अशुद्धता आदि का ज़िक्र है.
# छठे अध्याय में एक संत को कैसा होना चाहिए, इसके बारे में बताया गया है.
# सातवें अध्याय में एक राजा के कर्तव्यों का ज़िक्र है.
# आठवां अध्याय अपराध, न्याय, वचन और राजनीतिक मामलों आदि पर बात करता है.
# नौवें अध्याय में पैतृक संपत्ति, महिला-पुरुष के संबंध का वर्णन है.
# दसवें अध्याय में वर्णों के मिश्रण, मतलब अगर एक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण में शादी करे तो क्या होगा, ये बताया गया है.
# ग्यारहवें अध्याय में पापकर्म की व्याख्या है.
# बारहवें अध्याय में तीन गुणों और वेदों की प्रशंसा है.
मनुस्मृति में कई जगह पर अधिकार, अपराध, बयान और न्याय के बारे में बात की गई है. इन्हें आईपीसी और सीआरपीसी की तरह लिखा गया है.
Manusmriti Origin
मनुस्मृति के काल को लेकर अलग-अलग तरह के दावे किए जाते हैं. कोई इसे कुछ एक-डेढ हजार साल पुरानी बताता है, तो कोई इसे ईसा पूर्व की.
तो क्या वाकई में यह किताब शूद्र विरोधी है? देवदत्त पट्टनायक इसे एक ऐसा ग्रंथ कहते हैं जो ब्राह्मणों ने उच्च जातियों के लिए लिखा है. खासतौर पर राजा के लिए. इसमें उनके बारे में ही अच्छी और व्यवस्था की बातें लिखी गई हैं. यह धर्म-शास्त्र का हिस्सा है. देवदत्त कहते हैं कि
वेद जो कि श्रुति कहे जाते हैं और काल से परे एक पवित्र रहस्योद्घाटन माने जाते हैं, उससे अलग मनुस्मृति मात्र किसी मनुष्य की स्मृति (जमा की हुई) है. यह काल (समय), स्थान (जगह) और पात्र (हिस्सा लेने वाले) के हिसाब से बदल भी सकती है. मनुस्मृति कभी भी हिंदुओं का सिद्धांत या कानून नहीं थी, यह बस ब्राह्मणों के लिए एक संहिता मात्र है. मनुस्मृति वह नहीं है, जिसका इस पर आरोप लगता रहा है. यह बस अपने वक्त के चलन को एकत्र करके लिखी गई एक किताब है. इस किताब को लोग शायद अब तक भूल भी गए होते या यह सिर्फ कुछ लाइब्रेरियों की शोभा बढ़ा रही होती. ये तो अंग्रेज थे, जिन्होंने इस किताब को पुनर्जीवित किया, जिससे वह अपनी कालोनियों पर राज कर सकें.
लेखक और चिंतक उदयन वाजपेई कहते हैं कि मनु स्मृति को एक परम पुस्तक की तरह नहीं देखना चाहिए. उनके हिसाब से भले ही शूद्रों के बारे में कही गई बातों को अक्षरशः लेना सही नहीं है. यह मात्र एक विचार भर हैं. इसे परम सत्य की तरह चलन में नहीं लिया जाता था. वह कहते हैं,
जिस वक्त मनुस्मृति को लोग पढ़ रहे थे, तब इसके साथ दूसरी सैकड़ों स्मृतियां चलन में थीं. इनमें याज्ञवल्क्य स्मृति, अत्रि स्मृति, विष्णु स्मृति, हारीत स्मृति, औशनस स्मृति, गौतम स्मृति, वशिष्ठ स्मृति जैसी तमाम स्मृतियां शामिल हैं. लोग इन्हें भी पढ़ते थे. यह सोचना कि सिर्फ मनुस्मृति के जरिए ही सबकुछ होता था, ऐसा सोचना पूरी तरह से गलत है. एक सोचने वाली बात यह भी है कि आखिर क्यों विलियम जोनेस ने 1794 में मनुस्मृति को ही ट्रांस्लेशन के लिए चुना. और अंग्रेजों ने एक महान ग्रंथ के तौर पर इसका प्रचार भी करवाया. वह जानते थे कि इस किताब के प्रचार से ही वह समाज को बांट कर अपना काम आसान कर सकते हैं. उन्होंने जातियों, वर्णों और धर्म का घालमेल किया और समाज को बांटा. जैसे दुनियाभर के बाकी धर्म सिर्फ किताबों के हिसाब से नहीं चलते, वैसे ही हिंदू धर्म को सिर्फ मनुस्मृति से जोड़ कर देखना उसे संकीर्णता से देखना होगा.
महाराष्ट्र के एक दलित लेखक और चिंतक ने सरकारी पद पर होने की वजह से नाम ने छापने की शर्त पर बताया कि
कुछ लोग मनुस्मृति को टाइमपास किताब की तरह खारिज करने की कोशिश करते हैं. यह पूरी तरह से गलत है. मनुस्मृति एक गंभीर ग्रंथ है और इसे सिर्फ यह कह कर नहीं नकारा जा सकता कि यह कुछ लोगों की मानसिकता तक ही सीमित थी. असल में यह ताकतवर वर्ग की चेतना का हिस्सा है. वह इसे निचली जातियों को कुचलने के एक टूल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. यह काम पहले भी होता रहा है और आज भी हो रहा है. हमें मनुस्मृति औऱ मनु के विचार से लगातार लड़ना पड़ रहा है. बरसों से लड़ने के बाद भी अभी बहुत कम असर पड़ा है. महाराष्ट्र, जहां संत तुकाराम से शुरू होकर ज्योतिबा फुले से होती हुई यह परंपरा बाबासाहेब आंबेडकर तक पहुंची है, वहां दलित चेतना का विकास दिखता है. हर बरस मनुस्मृति दहन के कार्यक्रम होते हैं. अब आप उत्तर भारत को देखिए, यहां किसी की हिम्मत है, जो मनुस्मृति दहन कर सके. ये चेतना का फर्क है. किताब को नकारने से सुधार नहीं होगा, हमें इससे लड़ना पड़ेगा.
क्या यह किताब महिला विरोधी है? मनुस्मृति का विरोध महिला विरोधी ग्रंथ के तौर पर भी देखा जाता है. मनुस्मृति में महिलाओं के रहन-सहन को लेकर भी कई तरह के बंधन और तरीके बताए गए हैं. कहा गया है कि किसी अनजान जगह पर वह किसी पुरुष के साथ ही जाएं. पुरुषों के साथ व्यवहार को लेकर भी उन्हें कई तरह की ताकीद दी गई है. इस पर दिल्ली यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर और लेखक भरत गुप्त कहते हैं कि
मनुस्मृति में महिलाओं के बारे में बहुत ज्यादा डिटेल जानकारी नहीं दी गई है. महिलाओं के सामान्य धर्म के बारे में ही मनुस्मृति बताती है. यह महिलाओं को लेकर सिर्फ एक व्यवस्था के बारे में बात करती है. स्त्री धर्म को लेकर सिर्फ मोटी-मोटी बातें ही हमें यहां पढ़ने को मिलती हैं.
ऑल इंडिया प्रोगेसिव वुमन एसोसिएशन की सेक्रटरी कविता कृष्णन का मानना इससे अलग है. वह कहती हैं कि
मेरे हिसाब से वह महिलावादी नहीं हो सकता जो मनुस्मृति के खिलाफ नहीं लड़ रहा. और कोई भी तब तक मनुस्मृति के खिलाफ नहीं लड़ सकता, जब तक कि वह घनघोर महिलावादी और महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए पूरी तरह समर्पित न हो. मेरे हिसाब से मनुस्मृति में महिलाओं के बारे में हर वो बात कही गई है, जो आपत्तिजनक है. मनुस्मृति हमें महिलाओं को, बेटियों, पत्नियों, माताओं के रूप में, एक खास तरह का व्यवहार करने के लिए कहती है. इस व्यवहार को पिता, पति और पुत्र के जरिए नियंत्रित किया जाना चाहिए. वास्तव में, मनु हमें इस नियंत्रण को दमन और उत्पीड़न के बजाय "श्रद्धा" और "संरक्षण" के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. यह सबसे बड़ी समस्या है.
मनुस्मृति पर विवाद लंबे वक्त से चल रहा है. इस विवाद के साथ ही मनुवाद और मनु पर भी विवाद जारी है. जिस तरह लोग मनुस्मृति को दलित दमन का एक प्रतीक बता कर उनका विरोध करते हैं वैसे ही कुछ लोग इसे हिंदू समाज को एक व्यवस्था देने वाली किताब भी बताते रहे हैं. इस बहस का एक पहलू राजस्थान हाईकोर्ट परिसर में 1989 लगाई गई मनु की वह मूर्ति भी है जो हाथ में मनुस्मृति लिए बुलंदी से खड़ी है. इसे हटवाने के लिए दलित संगठनों से लेकर राजनीतिक दल कोशिशें कर चुके हैं. लेकिन ये टस से मस नहीं हुई. अमेरिका से लेकर दुनिया भर में जब शोषण के निशानों को मिटाने की कोशिशें जोरों पर हैं. ऐसे में भारतीय संविधान के आधार पर न्याय देने के एक मंदिर यानी हाईकोर्ट में लगी हिंदू धर्मशास्त्र के रचयिता की ये मूर्ति और मूर्ति के हाथ में दिखती मनुस्मृति अब भी बहुत से लोगों को खटकती है.