“प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेरे दिल में बसते हैं. मैं उनका हनुमान हूं. अगर जरूरत पड़ी तो मैं अपना सीना चीरकर दिखा दूंगा.” चिराग पासवान ने 16 अगस्त 2020 को ये बयान दिया था. तब चिराग एनडीए का हिस्सा भी नहीं थे. “लेटरल एंट्री आरक्षण के सिद्धांतों के खिलाफ है. किसी भी सरकारी नियुक्ति में आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए. और अगर इसे लागू नहीं किया जाता है तो यह हमारे मेरे लिए चिंता का विषय है.” ये बयान भी चिराग पासवान का ही है. जो उन्होंने 19 अगस्त 2024 को दिया है. अब सवाल उठता है कि जब चिराग एनडीए का हिस्सा नहीं थे तब प्रधानमंत्री के लिए सीना चीरने को तैयार थे. और अब जब मोदी कैबिनेट में मंत्री हैं तो लगातार उनकी सरकार को असहज करने वाले सवाल उठा रहे हैं. आखिर चिराग ऐसा क्यों कर रहे हैं? और चिराग की इस रणनीति के पीछे उनकी मंशा क्या है? ये आगे बताएंगे. पहले उन मुद्दों के बारे में जान लेते हैं. जिन पर चिराग ने बीजेपी से अलग या उनको असहज करने वाला स्टैंड लिया है.
क्या रामविलास पासवान वाली पॉलिटिक्स कर रहे हैं चिराग पासवान?
Chirag Paswan ने पिछले दो महीनों में चार पांच ऐसे स्टैंड लिए हैं जिससे BJP को असहज होना पड़ा है. वक्फ बिल, लेटरल एंट्री, भारत बंद और जातीय गणना के मुद्दे पर चिराग विपक्ष के साथ खड़े दिखे हैं.

25 अगस्त को रांची में एलजेपी (आर) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी. जिसमें चिराग पासवान को एक बार फिर से पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया. इसके बाद मीडिया से बातचीत में उन्होंने जातीय जनगणना की मांग का समर्थन किया. उन्होंने कहा कि कई बार राज्य और केंद्र जाति को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाती हैं. ऐसे में सरकार के पास जाति की जनसंख्या की जानकारी होनी चाहिए. हालांकि उन्होंने जाति जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने का विरोध किया. बता दें कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार जाति जनगणना को लेकर सरकार पर हमलावर हैं. बीजेपी इसका विरोध नहीं करती है, पर समर्थन में सीधे-सीधे बोलने से बचती है.
लेटरल एंट्री का विरोध कियाहाल में जब केंद्र ने यूपीएससी में लेटरल एंट्री के लिए विज्ञापन निकाला तो चिराग पासवान ने इसकी कड़ी मुखालफत की. उन्होंने कहा कि यह आरक्षण के सिद्धांतो के खिलाफ है. और सरकारी पदों पर आरक्षण का प्रावधान जरूरी है. इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. विपक्ष और गठबंधन के सहयोगियों के भारी दबाव के चलते केंद्र सरकार को अपने फैसले से पीछे हटना पड़ा.
वक्फ बोर्ड विधेयक के मसले पर भी चिराग पासवान का रुख सरकार के रुख से जुदा नजर आया. 8 अगस्त को जब यह बिल संसद में पेश हुआ तो विपक्ष ने खूब हंगामा काटा. इसे मुस्लिम विरोधी करार दिया. और बिल में सुधार के लिए उसे सिलेक्ट कमिटी में भेजने की मांग की. चिराग की पार्टी ने इस बिल का खुलकर विरोध नहीं किया. लेकिन बिल को सिलेक्ट कमिटी के पास भेजने के विपक्ष की मांग का समर्थन किया.

एससी एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर और वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में देश भर के कई संगठनों ने भारत बंद आहुत किया था. जिसे कई दलित संगठनों और कुछ राजनीतिक दलों (बसपा) का समर्थन हासिल था. चिराग पासवान ने भी इस बंद का समर्थन किया था. चिराग ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करते हुए कहा कि जब तक समाज में अनुसूचित जाति और जनजातियों के खिलाफ छुआछूत जैसी प्रथा है. तब तक एससी/ एसटी आरक्षण में सब कैटेगराइजेशन और क्रीमीलेयर जैसे प्रावधान नहीं होने चाहिए.
सियासी गलियारों में कयासों का दौर शुरूलोकसभा चुनाव 2024 और उससे पहले खुद को मोदी का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान के बदले तेवर ने सियासी गलियारों में नयी चर्चाओं को हवा दे दी है. बिहार की राजनीति को लंबे समय से कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार बताते हैं,
इन घटनाओं का एनालिसिस करें तो ऐसा लग रहा है कि चिराग पासवान प्रेशर पॉलिटिक्स कर रहे हैं. 2015 का विधानसभा चुनाव चिराग पासवान एनडीए के साथ लड़े थे. मौजूदा परिस्थितियां अलग हैं. अभी का जो राजनीतिक समीकरण है उसमें एनडीए में कई पार्टियां है. जेडीयू, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी और जीतन राम मांझी की पार्टी. 2015 में जब समझौता हुआ तब जेडीयू इस गठबंधन में नहीं थी. और एक चीज तो तय है कि जेडीयू और बीजेपी इस एलांयस के सबसे बड़े पार्टनर होंगे. उस स्थिति में जेडीयू और बीजेपी दोनों की सीटें कम होंगी लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान चिराग पासवान की पार्टी को होने की संभावना है. क्योंकि उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी के लिए भी सीटों का एडजस्टमेंट करना होगा. मुमकिन है कि चिराग अभी से ही विधानसभा की सीटों को लेकर बारगेन की बिसात बिछा रहे हैं. क्योंकि उनकी पार्टी 36 से 40 सीट की मांग कर चुकी है. लेकिन इतनी सीट चिराग को इस बार देना संभव नहीं दिखता.
चिराग पासवान लगातार मोदी सरकार के फैसलों पर सवाल उठा रहे हैं. वे वक्फ बिल, लेटरल आरक्षण, भारत बंद और जातीय गणना के मुद्दे पर विपक्ष के स्टैंड के साथ खड़े दिखे. इस पर अंदरखाने बीजेपी में क्या चल रहा है? इस बारे में इंडिया टुडे से जुड़े हिमांशु मिश्रा बताते हैं,
बीजेपी को एक चीज पता है कि उनको अभी अलायंस पार्टनर्स की जरूरत है, जिस तरह के नंबर्स उनको लोकसभा चुनाव में आए हैं. बीजेपी को लगता है कि चिराग के पास भले ही पांच एमपी हों लेकिन वो बिहार की राजनीति को अच्छे से जानते समझते हैं. 2025 में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. और इसी को ध्यान में रखते हुए चिराग पासवान टाइम टू टाइम बीजेपी को ये एहसास दिलाते रहते हैं कि ना सिर्फ केंद्र में बल्कि बिहार में भी बीजेपी को चिराग पासवान की जरूरत पड़ेगी. चिराग पासवान दबाव की राजनीति को बहुत अच्छे से जानते समझते हैं. उनके पिताजी रामविलास पासवान भी इसी तरह की दबाव की राजनीति किया करते थे. समय के साथ कैसे राजनीति में चला जा सकता है ये चिराग पासवान ने रामविलास पासवान से बखूबी सीखा है.

इसके अलावा एससी एसटी आरक्षण के वर्गीकरण और जाति जनगणना पर चिराग पासवान के स्टैंड को लेकर मनोज कुमार का मानना है,
सीएम फेस के तौर पर स्थापित होने की चाहये मुद्दे अभी उनकी जरूरत हैं. बिहार में दलित राजनीति पर अभी पूरी तरह से NDA का कब्जा है. दलितों में जीतन राम मांझी इनके साथ है जो तीन प्रतिशत वोट ब्लॉक के लीडर हैं. पांच प्रतिशत वोट ब्लॉक के लीडर चिराग पासवान इनके साथ हैं. बाकी जो छोटी छोटी जातियां हैं उनके चेहरे जैसे कि अशोक चौधरी और श्याम रजक भी इस खेमे में ही हैं. और इंडिया गठबंधन में उस तरह की दलित लीडरशिप नहीं है. तो महागठबंधन आक्रमक तरीके से आरक्षण और जाति जनगणना के मुद्दे को उठाता है. इस वजह से इन लोगों को डर है कि हमारा जो वोट बैंक है वो आरक्षण के मुद्दे पर विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की ओर डायवर्ट न हो जाए. इन मुद्दों पर पावर बैलेंस बनाए रखने के लिए हो सकता है कि बीजेपी और चिराग की कोई अंडरस्टैंडिंग रही हो कि आप इन मुद्दों के साथ खड़े हों. और चिराग की पहचान एक दलित लीडर के तौर पर है तो उनको अपनी राजनीति भी करनी है. अगर दलितों के मुद्दों पर ही वो दलित संगठनों का साथ नहीं देंगे तो फिर उनकी नाराजगी होगी.
बिहार से जो पॉलिटिकल सर्वे हो रहे है या फिर ग्राउंड रिपोर्ट आ रहे है उनके मुताबिक सीएम नीतीश कुमार की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है. बिहार के पॉलिटिकल कॉरिडोर में एक चर्चा है कि चिराग बिहार के सत्ता समीकरण को लेकर बहुत सहज नहीं हैं और वो खुद को सीएम की रेस में लाना चाहते हैं. चर्चा ये भी है कि चिराग, प्रशांत किशोर के साथ जा सकते हैं तो कुछ का दावा ये भी है कि तेजस्वी यादव वाला विकल्प भी खुला है. हालांकि ये अभी शुरुआती और हल्की चर्चा है. बिहार की राजनीतिक नब्ज समझने वाले एक्सपर्ट्स की मानें तो चिराग के तेजस्वी के साथ जाने की संभावना कम है. क्योंकि वहां तो खुद तेजस्वी सीएम फेस हैं. लेकिन आने वाले वक्त में प्रशांत किशोर के साथ किसी पॉलिटिकल अंडरस्टैंडिंग से इनकार नहीं किया जा सकता है. प्रशांत किशोर अपनी पदयात्रा में कमोबेश उन्हीं मुद्दों को उठा रहे हैं जो चिराग पासवान ने लोकसभा चुनाव के पहले बिहार फर्स्ट और बिहारी फर्स्ट के जरिए उठाए थे. इस लिहाज से ये चर्चा है कि क्या ये दोनों दलितों और सवर्णों का गठजोड़ बना कर बिहार के पुराने राजनीतिक समीकरण को फिर से जिंदा कर सकते हैं. जिसके दम पर लालू यादव से पहले कांग्रेस बिहार की सत्ता पर काबिज रही थी. हालांकि ये खबरें अभी राजनीतिक गपशप और कयासबाजी तक ही सीमित हैं. और प्रशांत किशोर साफ कर चुके हैं कि उनकी पार्टी बिहार की 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.
बीजेपी का पशुपति पारस दांव27 अगस्त को राष्ट्रीय लोकजनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री पशुपति कुमार पारस ने अमित शाह से मुलाकात की. राजनीति में टाइमिंग और मैसेजिंग का बड़ा महत्व होता है. चिराग पासवान के कई मुद्दों पर एनडीए से अलग स्टैंड लिए जाने को देखते हुए इस मुलाकात के कई मायने निकाले जा रहे हैं. मनोज कुमार बताते हैं,
चिराग के बदले सियासी व्यवहार की वजह से ही पशुपति पारस एक्टिव हो गए हैं. गृहमंत्री से उनकी मुलाकात यूं ही नहीं हुई है. इस मीटिंग में पशुपति पारस को भरोसे में लिया गया है. तभी जीतन राम मांझी का बयान आया है कि पारस NDA का हिस्सा हैं. यहां समझने वाली बात ये है कि चिराग अपने चाचा को एनडीए का हिस्सा नहीं मानते हैं. पारस ने अपनी पार्टी की यूनिट को यूं ही भंग नहीं किया है. बीजेपी नेतृत्व से मुलाकात के बाद पारस का एक्टिव होना उनकी वापसी का संकेत हो सकता है. बीजेपी जानती है कि पारस के पास कैडर और वोटर नहीं हैं. लेकिन चिराग को काबू करने का अस्त्र शस्त्र पारस ही हैं. बीजेपी ने उनको इसीलिए एक्टिव किया है.

अमित शाह से मुलाकात के बाद पशुपति पारस ने एक इंटरव्यू में बताया कि गृह मंत्री ने उनको आश्वस्त किया है कि विधानसभा चुनाव में लोकसभा चुनाव वाली स्थिति दोहराई नहीं जाएगी. वे इस बार एनडीेए के साथ विधानसभा चुनाव लड़ेंगे. इस मुलाकात को लेकर हिमांशु मिश्रा बताते हैं,
राजनीति में कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है. और भारतीय जनता पार्टी इस बात को जानती है. चिराग भी जानते हैं. आप याद कीजिए किस तरह 2021 में लोजपा के 6 में से 5 सांसद पशुपति पारस के साथ आए. और एक अलग दल बनाया. और उस दल का नेतृत्व पशुपति पारस ने किया. और उनको केंद्र सरकार में मंत्री भी बनाया गया. और तब चिराग पासवान ने कहा कि किन लोगों ने उनके दल को तोड़ा है वो जानते हैं. वे खुलकर एनडीए का विरोध भी करते रहे कई मंचों से. ये चिराग पासवान भी जानते हैं. और बीजेपी भी जानती है कि चिराग अगर दाएं-बाएं होंगे तो उनके लिए पशुपति पारस फिर से सहारा बन सकते हैं.
चिराग पासवान से जब मोदी सरकार के फैसलों पर असहमति जताने के बारे में सवाल पूछे गए तो उन्होंने कहा कि कोई असहमति नहीं है. चिराग ने आगे बताया,
जिन विषयों का आपलोग जिक्र कर रहे हैं उन पर सहमति से ही फैसला लिया गया है. आप शायद लेटरल एंट्री का जिक्र कर रहे हैं. उसमें ये सहमति बनी और मैं धन्यवाद दूंगा अपने प्रधानमंत्री को कि उन्होंने अनुसूचित जाति और जनजाति से आने वाले लोगों की भावना का सम्मान किया. यही कारण है कि प्रधानमंत्री इतने लोकप्रिय हैं. क्योंकि वो सबकी सुनते हैं.
भले ही चिराग पासवान ने मोदी सरकार से अलग या उनको असहज करने वाले स्टैंड लिए हैं. और इसकी अलग-अलग ढंग से इसकी व्याख्या भी हो रही है. मगर चिराग अभी एनडीए छोड़ेंगे ऐसे संकेत तो नहीं मिले हैं. और इस बीच चिराग की मुलाकात गृह मंत्री अमित शाह से भी हुई है.
लेकिन एक बात तो तय है कि उन्होंने अपनी रणनीति में बदलाव किया है. और वो असहमति की राजनीति के फायदे समझ चुके हैं. यानी गठबंधन में जिसके साथ हो उससे थोड़ी असहमति दिखाते रहो. एनडीए के उनके एक और सहयोगी नीतीश कुमार इस दांव का इस्तेमाल करते रहे हैं. और चिराग के पिता रामविलास पासवान को तो इस फन में महारत हासिल थी. तभी बिहार में इस बात की चर्चा है कि चिराग पासवान ने रामविलास पासवान की राजनीति को फिर से जिंदा कर दिया है.
वीडियो: सोशल लिस्ट : लेटरल एंट्री पर राहुल गांधी और चिराग पासवान के के समर्थक क्यों खुश?