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जब धर्मवीर भारती ने असगर वजाहत की कहानी छापने से मना कर दिया था

जन्मदिन विशेषः लोगों ने कहा कि 'जिस लाहौर...' असगर वजाहत के साथ-साथ हबीब तनवीर को भी ले डूबेगा.

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असगर वजाहत. उनके नाटक ''जिस लाहौर...'' ने कई पीढ़ियों का लाहौर से परिचय कराया. (फोटोः नाटक डॉट कॉम)

'जिस लाहौर नहीं देख्या...' उनका प्रसिद्ध नाटक है. उसने सफलता के झंडे गाड़े. लेकिन असग़र वजाहत ने शायद ही कभी खुद इसकी चर्चा की हो. फैज़ शताब्दी वर्ष के दौरान यह लाहौर की उनकी पहली यात्रा थी. इस छोटी लेकिन एक बेहद आत्मीय यात्रा के दौरान वे कराची और मुल्तान भी गए. ताकि वे पकिस्तान को और भी करीब से समझ सकें. उन्होंने भारत में खूब यात्राएं की हैं और अपने अनुभवों को लेखन में उतारा है. हाल ही में वे ईरान और मध्य एशिया की यात्रा पर थे. उनके रेखाचित्र संग्रह का अंग्रेज़ी अनुवाद 'लाइज : हाफ टोल्ड' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है. कराची में एक होटल के कमरे में चाय की चुस्कियों के बीच वजाहत ने अपने जीवन और साहित्य पर खुलकर बातें कीं. यहां उनके साथ हुई बातचीत कुछ अंश प्रस्तुत हैं-

# जीवन के किस मोड़ पर आपने कहानियां लिखनी शुरू कीं? और इसके पीछे कौन सी प्रेरणा थी?

मैं जब भी इस बारे में सोचता हूं मुझे लगता है कि मैं अपने अनुभवों को साझा करना चाहता था. हम अपने चारों और जो भी देखते हैं, जो महसूस करते हैं उसे बांटना चाहता था. सिर्फ़ अनुभवों को ही नहीं बल्कि उस नज़रिए को भी स्पष्ट करना चाहता था जिस नज़रिए से हम अपने आसपास की चीजों को देखा करते हैं. वर्षों पहले घटी एक छोटी सी घटना ने मुझे अपनी पहली कहानी के लिए प्रेरित किया था. अब तो मुझे वो कहानी याद भी नहीं. मैंने वह उर्दू में लिखी थी. उस समय मैं अलीगढ़ में था और वह कहानी छात्रों के प्रकाशन में छपी थी. किसी ने मुझे इसे हिंदी में लिखने की सलाह दी. असल में लिखने की शुरुआत मैंने उर्दू में की थी लेकिन तब अलीगढ़ में उर्दू के वरिष्ठ और स्थापित लेखकों का वर्चस्व था. जबकि हिंदी का क्षेत्र खुला था. स्कूल के दिनों में मैंने हिन्दी पढ़ी थी इसलिए हिंदी में लिखना मेरे लिए आसान भी था.


'जिस लाहौर...' का मंचन दुनिया भर में हर उस जगह होता है जहां हिंदुस्तानी समझी जाती है. (यूट्यूब स्क्रीनग्रैब)
'जिस लाहौर...' का मंचन दुनिया भर में हर उस जगह होता है जहां हिंदुस्तानी समझी जाती है. (यूट्यूब स्क्रीनग्रैब)

# बहुत पहले आपकी कहानी 'केक' पढ़ी थी. वो मुझे अब भी याद है. इसमें आपकी सहानुभूति उन लोगों के साथ दिखाई पड़ती है जो जीवन में कुछ बड़ा नहीं कर पाए. ये कहानी आपने कैसे लिखी और साहित्यिक हलकों में इसे कैसे लिया गया?

यह मेरी शुरुआती कहानियों में से एक है. ये उन सबके लिए है जो सपने देखते हैं लेकिन जब उनके सपने टूटते हैं तो वे हारते नहीं बल्कि एक बार फिर से सपने देखते हैं. सन 1960 के बाद का महानगरीय जीवन बहुत जटिल था. अगर ये लोग 50 साल पहले पैदा हुए होते तो शायद उनका जीवन बहुत सरल रहा होता. लेकिन इस दौर में जीने वाले हमेशा एक भ्रम की स्थिति में जीते हैं. उनका अतीत उन्हें वर्तमान में पूरी तरह जीने नहीं देता. जिससे हमेशा एक संघर्ष और द्वंद्व की स्थिति बनी रहती है.

खैर, ये कहानी खूब सराही गई. उसके बाद मेरे लिए इस किस्म की कहानियां लिखने के रास्ते खुल गए. जैसे क्रिकेट में गेंदबाज़ एक निश्चित लाइन और निश्चित गति से गेंद फेंकता है. उसी तरह लोगों ने मुझे लेखन में अपनी यही गति बनाए रखने के लिए प्रेरित किया. मेरी प्रशंसा की. लेकिन एक लेखक के लिए ये जरूरी है कि वह अपने लेखन के प्रति ईमानदार रहे. इसी ईमानदारी के लिए मैं हमेशा खुद से तर्क करता रहा.


असगर वजाहत.
असगर वजाहत.

# अपनी एक पुस्तक की भूमिका में आपने एक संपादक के साथ हुई अपनी बातचीत की चर्चा की थी. उसमें आपने बताया है कि उस संपादक ने आपकी पहली कहानी तो पसंद की लेकिन दूसरी कहानी यह कहते हुए वापस कर दी कि कहानी आज के दौर से असंबद्ध है. तब आपने जवाब में कहा कि मैं संबद्धता के लिए कहानियां नहीं लिखता. असल में ये बातचीत किस सन्दर्भ में थी और आप ऐसी कहानियां लिखने से क्यों बचते रहे?

ये संपादक और कोई नहीं, हिंदी के प्रसिद्ध लेखक धर्मवीर भारती थे. वे धर्मयुग के सम्पादक थे. उस समय पीड़ा, संत्रास, भावुकता और रिश्तों के टूटने जैसे विषय पर कहानियां लिखी जाती थीं. मेरी कहानी उस व्यक्ति की कहानी थी जिसने अपने घर के आंगन में एक दीवार बनाकर घर के आधे हिस्से को बेच दिया था. लेकिन पति-पत्नी का मन अब भी नींबू के उस पौधे में अटका था, जो अब दीवार के दूसरी तरफ था. आगे मैंने जो कहानियां लिखीं वो सामाजिक यथार्थ की कहानियां थीं. अलग-अलग विषयों पर लिखा. मेरी कहानियों में पारंपरिक पात्र या नायक नहीं होते. यह पूरा समय और समाज ही मेरी कहानियों का नायक है.

# आपने नाटक भी लिखे. थियेटर का अनुभव कैसा रहा?

हिंदी का रंगमंच बहुत विकसित नहीं है. मेरे अधिकांश नाटकों के मंचन नहीं हुए हैं. 'जिस लाहौर नई देख्या’ मैंने 1989-90 के आसपास लिखा था. लिखने के बाद मैंने दिल्ली के जाने-माने निर्देशकों को नाटक पढ़ने के लिए आमंत्रित किया. लेकिन तब कोई तैयार नहीं हुआ.


जिस लाहौर को लेकर लोगों में डर था कि वो एक फ्लॉप शो रहेगा.
जिस लाहौर को लेकर लोगों में डर था कि वो एक फ्लॉप शो रहेगा.

प्रसिद्ध निर्देशक हबीब तनवीर ने इसे श्रीराम सेंटर के लिए चुना. इसकी असफलता को लेकर जैसे सब आश्वस्त थे. यहां तक कहा जा रहा था कि ये नाटक लेखक के साथ-साथ तनवीर को भी ले डूबेगा. ये नाटक यथार्थवादी नाटक था जबकि हबीब तनवीर अपने लोक रुझानों के लिए जाने जाते हैं. जब नाटक का मंचन हुआ तब से आप देख रहे हैं कि ये कितना सफल रहा है. आयोजकों ने मुझे बताया कि उस प्रायोजित शो ने इतनी कमाई की कि रिपर्टरी के सारे खर्च वसूल हो गए.




असगर वजाहत का ये इंटरव्यू 20 मार्च, 2011 के डॉन.कॉम में प्रकाशित हुआ था. जिसका शीर्षक था 'इन कंवर्शेसन विद असगर वजाहत'. इंटरव्यू लिया था आसिफ़ फार्रुख़ी ने. फार्रुख़ी पेशे से डॉक्टर हैं. ह्यूमन राइट ऐक्टिविस्ट हैं. कराची में रहते हैं. अंग्रेज़ी के इस इंटरव्यू का हिंदी अनुवाद संवेद पत्रिका के असगर वजाहत विशेषांक (2013) में प्रकाशित हुआ था. अनुवाद किया है शिप्रा किरण ने.    

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