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ये इतने ऊंचे-ऊंचे मोबाइल टावर आखिर काम कैसे करते हैं?

ऑटो-रिक्शा और ट्रेन के आसान से उदाहरण से समझिए पूरा गणित.

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मोबाइल फोन टावर. (गैटी)
किसान आंदोलन के बीच पंजाब से रिलायंस के मोबाइल टावर तोड़ने की खबर सामने आई. इसकी शिकायत लेकर रिलायंस हाईकोर्ट पहुंच गई. इससे पहले इस मामले में कोर्ट का फैसला आए, हमारी क्यूरियोसिटी आ गई. कि आखिर ये मोबाइल टावर काम कैसे करते हैं? इनमें क्या-क्या लगा होता है?
फोन में नेटवर्क वहीं आता है, जहां आसपास टावर लगे होते हैं. इन्हीं टावरों की मदद से सारे फोन एक दूसरे से कनेक्ट होते हैं. लेकिन ये पूरा सिस्टम कैसे काम करता है, आज आसान भाषा में हम यही समझेंगे. क्यों ज़रूरी है सेल फोन टावर? चाहे हमारी फोन कॉल हो या मैसेज हो या इंटरनेट हो, इन सब में सारा खेल सिग्नल का है. आप जब फोन पर किसी से बात करते हैं, तो आपकी आवाज़ एक सिग्नल में तब्दील हो जाती है. फिर ये सिग्नल आपके फोन से दोस्त के फोन में जाता है, वहां दोबारा आवाज़ में कन्वर्ट होता है. और इस तरह आप एक दूसरे से बात कर पाते हैं.
पहाड़ों पर लगे मोबाइल टावर की रेंज उसके भूगोल से भी प्रभावित होती है. (गैटी)
पहाड़ों पर लगे मोबाइल टावर की रेंज उसके भूगोल से भी प्रभावित होती है. (गैटी)


अब बात ये है कि आपके फोन से दोस्त के फोन तक सिग्नल पहुंचाया कैसे जाए? एक सिंपल तरीका है कि उसे इलेक्ट्रिकल सिग्नल बनाकर बिजली के तार से भेज दिया जाए. पहले यही होता था. लेकिन ये तार वाले फोन एक जगह पेड़ बनकर टिके रहते हैं. फिर लोगों को लगा कि ऐसे कब तक तार से बंधे रहेंगे. यहां से दुनिया वायरलैस कम्युनिकेशन की तरफ जा निकली. माने तार की जगह हवा से ये सिग्नल आने-जाने लगे.
हवा से सिग्नल भेजने का माध्यम बनी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स. विद्युतचुंबकीय तरंगें. लेकिन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगें तो कई प्रकार की होती हैं. आप आंख से जो रोशनी देखते हैं, वो भी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंग है. तो सिग्नल को हवा से भेजने के लिए खास तरह की इलेक्ट्रोमैग्निक तरंगों का इस्तेमाल किया जाता है, इन्हें रेडियो फ्रीक्वेंसी सिग्नल कहते हैं. लेकिन रेडियो फ्रीक्वेंसी सिग्नल को लंबी दूरी तक भेजना चुनौती भरा काम है.
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पृथ्वी के वायुमंडल में ये रेडियो सिग्नल आगे बढ़ते हुए कमज़ोर पड़ने लगते हैं. और तमाम तरह की इमारतें, पहाड़ और बाकी चीज़ें इनके रास्ते में रूकावट पैदा करती हैं. ये सब न भी हो तो पृथ्वी गोल है. ये तरंगें गोल घूमते हुए हर जगह नहीं जा सकतीं. तो आपकी आवाज़ वाले सिग्नल को आपके दोस्त तक पहुंचाने के लिए टावरों की मदद लेनी पड़ती है.
ये टेक्नोलॉजी कहने को तो वायरलेस है लेकिन ये पूरा तंत्र वायर के दम पर ही चल रही है. हर टावर एक दूसरे से फाइबर केबल्स के ज़रिए जुड़े होते हैं. ये केबल ज़मीन के नीचे बिछाई जाती हैं. हर सिग्नल ज़्यादातर दूरी इन्हीं फाइबर केबल्स में तय करता है.
यूं समझिए कि इलैक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगें आटो-रिक्शा हैं, जो सिग्नल को थोड़ी दूर तक ही ले जा सकते हैं. और फाइबर केबल है रेलवे लाइन. जिसे लंबी दूरी के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इस हिसाब से आपके नज़दीक वाला टावर रेल्वे-स्टेशन है. सभी सिग्नल रेडियो तरंगों यानी ऑटो-रिक्शा में बैठकर टावर तक आते हैं. यहां से ये ट्रेन में बैठकर अगले स्टेशन तक जाते हैं. फिर उस स्टेशन से ये दोबारा रेडियो तरंगों वाला ऑटो-रिक्शा पकड़कर किसी दूसरे मोबाइल में जाते हैं.
फोन पर बात करते हुए आदमी. (विकिमीडिया)
फोन पर बात करते हुए आदमी. (विकिमीडिया)

मान लीजिए किसी ने दिल्ली से कानपुर फोन लगाया. सबसे पहले तो रेडियो सिग्नल हवा से होते आपके नज़दीकी टावर में जाएगा. यहां इस सिग्नल को कन्वर्ट किया जाएगा ताकि इसे फाइबर केबल्स से आगे भेजा सके. यहां से ज़मीन के नीचे बिछे तारों से होते हुए ये सिग्नल कानपुर पहुंचेगा. वहां ये आपके दोस्त के सबसे नज़दीक वाले टावर तक जाएगा. इस टावर में ये दोबारा रेडियो सिग्नल में कन्वर्ट होगा. फिर ये टावर हवा से इस रेडियो सिग्नल को आपके दोस्त के फोन पर पहुंचा देगा. और ऐसा दोनों साइड से होगा. ये सब इतनी फास्ट स्पीड से होता है कि हमें एक-दूसरे की आवाज़ तुरंत-तुरंत सुनाई देती है.
टावर में क्या-क्या लगा होता है? इस पूरे नेटवर्क में टावर का सबसे अहम काम ये है कि वो अपने आसपास के सभी मोबाइल फोन से रेडियो सिग्नल भेज सके और रिसीव कर सके. इसके लिए टावर के ऊपर ऐंटीना लगाए जाते हैं. आपने टावर के ऊपर ढोल-बाजे से मिलती जुलती एक चीज़ देखी होगी. ये दरअसल ऐंटीना होते हैं जो सिग्नल लेने-देने का काम करते हैं. एक और दिखाई देने वाला ऐंटीना लंबे डंडे के आकार का भी होता है. इनके अलावा टावरों में दूसरे प्रकार के ऐन्टीना भी लगाए जाते हैं.
इस बाजे पर परदा इसलिए लगाते हैं कि पक्षी घोंसला न बनाएं. (गैटी)
इस बाजे पर परदा इसलिए लगाते हैं कि पक्षी घोंसला न बनाएं. (गैटी)


ऐंटीना को ऊंचाई पर स्थापित करने के लिए ही टावर को इतनी हाईट दी जाती है. ऐंटीना जितनी ऊंचाई पर होगा, वो उतना ज़्यादा एरिया कवर कर पाएगा. आमतौर पर टावर की ऊंचाई 20 से 200 मीटर के बीच होती है.
टावर में जो दूसरे उपकरण लगे होते हैं, वो सिग्नल को कन्वर्ट करने, उसकी शक्ति बढ़ाने और ऐंटीना की सहायता के लिए लगाए जाते हैं. इन सभी उपकरणों को चलने के लिए ऊर्जा चाहिए होती है. उसके लिए नीचे एक पावर सोर्स होता है.
आपने देखा होगा कि तारों का एक बंडल ऊपर से ज़मीन की तरफ आता है. ऐंटीना से कैच होने के बाद सिग्नल इन्हीं तारों से होता हुआ नीचे जाता है. फिर अंडरग्राउंड तारों से होते हुए वो सिग्नल दूसरे टावर तक का रास्ता तय करता है. किसी दूसरे टावर से आया सिग्नल इनके ज़रिए ऊपर आता है. फिर ऐंटीना इसे हर दिशा में फेंकते हैं. ताकि इसे अपनी मंज़िल तक पहुंचाया जा सके.
हर टावर एक षटकोण की आकृति वाला एरिया कवर करता है, इसे सेल कहते हैं. (विकिमीडिया)
हर टावर एक षटकोण की आकृति वाला एरिया कवर करता है, इसे सेल कहते हैं. (विकिमीडिया)


मोबाइल टावर को सेल टावर भी कहते हैं. क्योंकि एक टावर जो इलाका कवर करता है उसे सेल कहा जाता है. सेल क्यों? क्योंकि इसका आकार हेग्सागन यानी षटकोण की तरह होता है. ऐसा ही आकार इंसानों के शरीर में मौजूद सेल्स का भी होता है. इस वजह से इन्हें सेल्स कहा जाता है. इसी के चलते टावर को सेल टावर और फोन को सेल फोन भी कहा जाता है.
जैसे-जैसे कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी ने प्रगति की है, इन टावरों का स्वरूप भी बदला है. 5G टेक्नोलॉजी के लिए एक इलाके में छोटे-छोटे और बहुत सारे टावर लगाने होंगे. ये टावर आज के लंबे टावरों जैसे नहीं होंगे. इन्हें किसी बिल्डिंग या खंबे के ऊपर आसानी से लगाया जा सकेगा.


वीडियो - 5G टेक्नोलॉजी आसान भाषा में समझिए

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