वहां सरकार ये तय करती है कि आप कितने बच्चे पैदा करेंगे. इसे व्यक्ति की निजी ज़िंदगी पर अतिक्रमण की तरह भी देखा जा सकता है. एक समय सरकार को लगा कि जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है. इसलिए, एक बच्चे की लिमिट लागू कर दो. जब इकोनॉमी पर आंच आए तो लिमिट बढ़ा दो. और, तब तक बढ़ाते रहो, जब तक कि मनमाफ़िक नतीजा ना मिल जाए. कुल मिलाकर, बात पैसे पर आकर अटक जाती है.
इस मुद्दे पर बड़ी बहस हो सकती है कि क्या सरकार को बच्चों की पैदाइश पर नियंत्रण रखना चाहिए? इसके पक्ष और विपक्ष में तमाम तर्क पेश किए जा सकते हैं. लेकिन ये चर्चा फिर कभी.
आज हमारा फ़ोकस चीन पर रहेगा. चीन की वन-चाइल्ड पॉलिसी क्या थी? कैसे ये नीति चीन के लोगों के लिए अभिशाप बन गई? इसका सबसे ज़्यादा नुकसान किसे उठाना पड़ा? और, आज हम इसकी चर्चा क्यों कर रहे हैं? सब विस्तार से बताएंगे.
पहले इतिहास की बात कर लेते हैं
साल 1949. अक्टूबर महीने का पहला दिन था. बीजिंग के तियानमेन स्क़्वायर में लाखों लोग इकट्ठा थे. उसी भीड़ के सामने खड़े होकर माओ त्से-तुंग ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की स्थापना का ऐलान किया. आधुनिक चीन की नींव पड़ चुकी थी. सत्ता की चाबी कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में आई. ठीक-ठीक कहें तो माओ के चंगुल में. पार्टी में उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं होता था.
माओ का मानना था कि जितने ज़्यादा लोग होंगे, हमारी ताक़त उतनी ज़्यादा बढ़ेगी. जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी ज़्यादा हिस्सेदारी. माओ के दिमाग में कुछ और प्लान भी चल रहे थे. जैसे, चीन से सटे इलाकों पर कब्ज़ा करना. इसके लिए बड़ी संख्या में सैनिक चाहिए. खेतों और फ़ैक्ट्रियों में उत्पादन बढ़ाना. इसके लिए कामगारों की कमी नहीं पड़नी चाहिए.

पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के संस्थापक माओ त्से-तुंग. (तस्वीर: एएफपी)
1949 से पहले कई दशकों तक चीन में अशांति थी. सिविल वॉर, विश्व युद्ध और महामारी के चलते लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मर रहे थे. स्थायी सरकार आने के बाद लोगों को इनसे निजात मिली. चीन में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हुईं. लोगों को बढ़िया इलाज मिला. इससे जीवन-प्रत्याशा भी बढ़ी.
माओ को ये भरोसा था कि चीन की जनसंख्या चाहे कितनी भी बढ़ जाए, उसके लिए संसाधनों की कमी नहीं पड़ेगी. उसने कहा था, ‘दुनिया में इंसान से ज़्यादा क़ीमती चीज़ कुछ भी नहीं.’
हालांकि, माओ का ये कथन मानवीय हित से नहीं जुड़ा था. वो ये मानता था कि जितने ज़्यादा लोग होंगे, प्रोडक्शन उतना ज़्यादा होगा. इसलिए, जनसंख्या बढ़ने से फायदा ही फायदा होगा. इसलिए, उसने जनसंख्या नियंत्रण पर रोक लगा दी. गर्भनिरोधक दवाओं का आयात बंद कर दिया. कई जगहों पर सरकार ने अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोपेगैंडा भी फैलाया.
फिर आया साल 1958
इस साल माओ के पहले एक्सपेरिमेंट की एंट्री हुई. द ग्रेट लीप फ़ॉवर्ड. किसानों की ज़मीनों को नेशनलाइज़ कर दिया गया. किसानों को फसल उपजाने का क़ोटा मिला. उसी के आधार पर सरकार उन्हें खाना देती थी. किसान अपने ही खेतों में मज़दूर बनकर रह गए. सरकार को बस नतीजे से मतलब था. स्थानीय अधिकारी क़ोटा पूरा करने के लिए बीज तक उठाकर ले जाते थे. रही-सही कसर मौसम ने पूरी कर दी. पूरे देश में भयानक अकाल पड़ा. इसके कारण चीन में चार से पांच करोड़ लोगों की मौत हुई.
खेतों के साथ-साथ फ़ैक्ट्रियों में भी काम चल रहा था. शहरों में तेज रफ़्तार से स्टील बनाने पर जोर दिया जा रहा था. जब मज़दूरों की कमी पड़ी, किसानों को खेतों से उठाकर फ़ैक्ट्रियों में भर्ती किया गया. उन्हें इस काम के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था. नतीजा ये हुआ कि माओ का औद्यौगीकरण का प्लान भी चौपट हो गया.
इस नाकामी को लेकर माओ की आलोचना होने लगी. कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर भी विरोध के स्वर उठे. कहा गया कि संख्या से अधिक ज़रूरी चीज है, विशेषज्ञता.

द ग्रेट लीप फ़ॉवर्ड से चीन के किसान अपने ही खेत में मज़दूर बनकर रह गए. (तस्वीर: एएफपी)
उधर, जनसंख्या अपनी रफ़्तार से बढ़ रही थी. लेकिन ग्रेट लीप फ़ॉवर्ड की नाकामी ने संसाधनों की भारी किल्लत पैदा कर दी थी. सरकार को लगा कि अब नहीं हो पाएगा. 1970 में चीन में फ़ैमिली प्लानिंग की बात शुरू हुई. लोगों को दो बच्चों की लिमिट रखने के लिए प्रोत्साहित किया गया. शुरुआती सालों में इसका असर भी देखने को मिला. चूंकि ये स्वैच्छिक था. इसलिए ये प्लान काम नहीं आया.
1976 में माओ की मौत हो गई. उसके बाद के शासकों ने माओ की नीतियों को खारिज करना शुरू कर दिया था. चीन की खराब आर्थिक स्थिति के लिए माओ को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा था. चीन की पॉलिटिक्स में बहुत बड़ा टर्न आ रहा था.
माओ के कार्यकाल में चीन की पॉपुलेशन 54 करोड़ से बढ़कर 94 करोड़ तक पहुंच गई थी. ऐसे में जनसंख्या नीति में बदलाव तय था. वही हुआ भी. 1978 में सरकार ने एक प्रस्ताव पास किया. इसके तहत अधिकतम एक बच्चा पैदा करने की बात मनवाने के लिए कैंपेन लॉन्च किया गया.
अगले साल वन-चाइल्ड पॉलिसी को लागू कर दिया गया. इसे बढ़ावा देने के लिए कई प्रांतों ने अपने यहां अलग-अलग तरह के प्रयोग भी किए. सिचुआन प्रांत में ऐसे कपल्स को अधिक राशन दिया जाता था, जिन्होंने एक से अधिक बच्चा पैदा न करने की शपथ ली हो. 1979 के साल में, जिनके पास एक बच्चा था, वैसे कपल्स को ‘सर्टिफ़िकेट ऑफ़ ऑनर’ दिया गया. ताकि वे और बच्चे पैदा न करें. सरकार का इरादा ये था कि जनसंख्या को कंट्रोल किया जाए ताकि संसाधनों की कमी न हो.
यहां तक तो सब ठीक लग रहा था. लेकिन 1982 में चीन ने इसे अपने संविधान में शामिल कर लिया. इसमें कहा गया कि बर्थ कंट्रोल हर चीनी नागरिक का कर्तव्य है. इसके बाद सरकारी मशीनरी आक्रामक होकर अपने मिशन में जुट गई. इसका खामियाजा ये हुआ कि सही मकसद से बनाई गई नीति चीनी जनता के लिए अभिशाप बन गई.

चीन ने 1982 में वन-चाइल्ड पॉलिसी को अपने संविधान में शामिल कर लिया था. (तस्वीर: एपी)
कैसे? समझते हैं. > चीन के समाज में लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है. यहां मान्यता है कि लड़की पराया धन है. शादी के बाद वो दूसरे घर चली जाएगी. इसलिए बुढ़ापे में देखभाल के लिए लड़के ही काम आएंगे. वन-चाइल्ड पॉलिसी से क्या हुआ? जिन कपल्स को पहली संतान लड़की होती थी, वे या तो उसे मार देते या कहीं दूर छोड़ आते थे. उनका इरादा ये होता था कि सरकार को इसकी जानकारी हाथ न लगे. ऐसे कपल्स तब तक लड़कियों को अपने से दूर करते रहे, जब तक कि उन्हें लड़का नहीं हो गया. उन बच्चियों का क्या हुआ, उनके माता-पिता को कभी मालूम नहीं चल सका. कई बच्चियों को देह व्यापार में धकेल दिया गया. इसके अलावा, चीन के सेक्स रेशियो में भी भयानक असमानता आई.
> अगर किसी कपल के एक से अधिक बच्चे हुए और ये बात सरकारी अधिकारियों को पता चलती तो वे पूरे दल-बल के साथ धावा बोलते थे. इसके लिए ज़ुर्माने की व्यवस्था थी. लाखों में. जो समर्थ थे, वे तो ज़ुर्माना देकर बच्चों को बचा लेते थे. जो ग़रीब थे, उनके पास कोई चारा नहीं होता था. अधिकारी ऐसे बच्चों को अपने साथ ले जाते थे. एक से अधिक बच्चे पैदा करने पर नौकरी छीन ली जाती थी. कई मामलों में जेल भी भेज दिया जाता था. जबरन गर्भपता और नसबंदी की व्यवस्था तो आम थी. एक अनुमान के मुताबिक, चीन में वन चाइल्ड पॉलिसी लागू रहने के दौरान लगभग 30 करोड़ गर्भपात कराए गए.
> जुड़वां बच्चे पैदा करने पर सरकार ने कोई नियम नहीं लगाया था. इसलिए, लोग दवाओं या ऑपरेशन के जरिए एक साथ कई बच्चे पैदा कराने की कोशिश करते थे. इसका सीधा भार महिलाओं पर पड़ता था. महिलाओं के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर किसी का ध्यान नहीं था. ये उनके लिए बेहद ख़तरनाक साबित हुआ. आंकड़ों में भी इस बिंदु को गोल कर दिया गया.
> वन-चाइल्ड पॉलिसी की आड़ में उइग़र मुस्लिमों की मान्यताओं को खत्म करने की कोशिश भी की गई. चीन सरकार पर आरोप लगते हैं कि उइग़रों के नरसंहार की साज़िश रचने का आरोप लगता रहा है.

चीन में उइग़र मुस्लिम सबसे अधिक सताए गए समुदायों में से एक है. (तस्वीर: एएफपी)
इस पॉलिसी ने चीन की कई पीढ़ियों को कभी न भूलनेवाला दर्द दिया है. इसके छींटे आज भी उभर कर सामने आते रहते हैं.
क्या वन-चाइल्ड पॉलिसी से सिर्फ़ नुकसान ही हुआ?
नहीं. कई मायनों में फायदा भी हुआ. चीन अपने यहां जनसंख्या विस्फ़ोट को काबू करने में कामयाब हुआ. लोगों को अधिक संसाधन उपलब्ध हुए. सरकार को नीतियां बनाने में आसानी हुई. इसी वजह से चीन विकास की राह पर आगे बढ़ पाया. लेकिन इसके पीछे जो क़ीमत वहां के लोगों ने चुकाई, क्या वो जायज थी? क्या उसका कोई हल निकाला जा सकता था? विकास और मानवीय अधिकारों में से किसे चुना जाना चाहिए? ये सब सवाल तो बने रहेंगे.
आज हम आपको ये सब क्यों सुना रहे हैं? दरअसल, चीन ने अपनी चाइल्ड पॉलिसी में बड़ा बदलाव किया है. उसने टू-चाइल्ड पॉलिसी को खत्म कर दिया. अब वहां कपल अधिकतम तीन बच्चे पैदा कर सकेंगे. पोलितब्यूरो की बैठक में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी प्रस्ताव को हरी झंडी दिखा दी है.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग. (तस्वीर: एपी)
चीन को ये कदम क्यों उठाना पड़ा?
चीन में बूढ़े लोगों की आबादी लगातार बढ़ रही है. अनुमान है कि 2050 तक एक-तिहाई लोग लेबर फ़ोर्स से बाहर हो जाएंगे. यानी वे प्रोडक्शन नहीं कर पाएंगे. सरकारी इन्सेंटिव पर उनकी निर्भरता बढ़ जाएगी. चीन दुनिया का मैन्युफ़ैक्चरिंग हब बन चुका है. अगर युवाओं की आबादी घटी तो इसपर भी बड़ा असर पड़ेगा.
भारत में युवा आबादी अधिक है और चीन में कम. किसी भी देश को आगे बढ़ने के लिए युवाशक्ति की जरूरत होती है. लिहाजा चीन चाहता है कि उसके यहां युवाओं की कोई कमी ना हो.
चीन में अधिकतर लोगों के पास एक संतान है. वहां अब इस सिस्टम को मान्यता मिल चुकी है. 2016 में सरकार ने टू-चाइल्ड पॉलिसी लागू की. ताकि जनसंख्या-वृद्धि की दर को बढ़ाया जा सके. लेकिन इसका कोई खास असर नहीं हुआ. उल्टा वृद्धि-दर में कमी आ गई.
इसकी एक दूसरी वजह भी है. चीन में शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है. शहरी लोग खुले माहौल में जीना पसंद करते हैं. बंदिशों से परे. शहरों में बच्चों की परवरिश महंगी होती जा रही है. इसलिए, चीन की थ्री-चाइल्ड पॉलिसी की सफ़लता पर संदेह बना हुआ है. चीन की मंशा पूरी हो पाती है या नहीं, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा.