The Lallantop

80 साल में कितने बदले कॉन्डम के ऐड: निरोध कुमार से फ्लेवर प्रधान तक

विश्व एड्स दिवस पर विशेष.

Advertisement
post-main-image
फोटो - thelallantop
90 के दशक में हिंदी सिनेमा के एक सदाबहार गाने पर अघोषित कर्फ्यू लग गया था. टीवी पर ये गाना आता तो लोग रजाई से निकल कर भी चैनल बदल देते थे. कहीं ऐसा न हो बच्चा कह बैठे, “पापा, डीलक्स निरोध वाला गाना आ गया.”
तब की हिचक से आज के 'हूकअप' तक, समाज काफी बदल गया है और ये बदलाव कॉन्डम के विज्ञापनों में भी नजर आता है. आइए, विश्व एड्स दिवस पर  ये फर्क तौलते हैं.
कॉन्डम की बिक्री हिंदुस्तान में 1930 से शुरू हुई और उस ज़माने में इसके विज्ञापन अंग्रेज़ी में छपते थे. हिंदुस्तान में रहने वाले ब्रिटिशर्स को ये प्रोडक्ट ‘बर्थ प्रोटेक्टर’ के नाम से बेचा जाता था. लेकिन तब तक हिंदुस्तानियों ने इसकी जरूरत नहीं समझी थी.
First condom AD
इसके 38 साल बाद! पूरे 38 साल बाद, 1968 में पहली बार बड़े स्तर पर भारतीयों के लिए इसकी जरूरत समझी गई. सरकार ने जापान, कोरिया और अमेरिका से 40 करोड़ कॉन्डम (प्रति व्यक्ति एक) की पहली खेप मंगवाई. IIM  के तत्कालीन लौंडों ने प्लानिंग की और नाम मिला ‘निरोध’ और कीमत थी 5 पैसे. एरनाकुलम के तब के डीएम एस कृष्ण कुमार ने इस कैम्पेन को इतनी ज़ोर-शोर चलाया कि लोगों ने उनका नाम ही ‘निरोध कुमार’ रख दिया.
परिवार नियोजन के कैम्पेन में निरोध का खूब प्रचार हुआ. मगर बड़ा मोड़ 80 के दशक में आया जब देश में HIV और TV  दोनो एक साथ आए. देश की युवा पीढ़ी की निरोध मांगने में होने वाली हिचकिचाहट को तोड़ने के लिए 'अनुभव' (1986) जैसी फिल्में भी बनीं जिसमें शेखर सुमन और दुकानदार दिनेश हिंगू की बातचीत बड़ी रोचक है. इस पूरे डायलॉग में दो बातें ध्यान देने वाली हैं, पहली शेखर सुमन का ये स्पष्टीकरण देना कि उनकी शादी होने वाली है जिसके चलते वो निरोध खरीद रहे हैं. दूसरा इसके बाद दिनेश हिंगू के हाव-भाव और जवाब से इस बात की तस्दीक कि गैर शादीशुदा हीरो अभी तक ‘अनुभवहीन ' ही है.
जब फिल्म के गानों और चिकनाई युक्त रबर का टुकड़ा जैस रूपक इस्तेमाल करके इशारों-इशारों में बात की जा रही थी. तब एक विज्ञापन ने इस तेज़ी से आबादी बढ़ाते संस्कारी देश की भवें तान दीं. 'पूजा बेदी' और 'मार्क रॉबिन्सन' के कामसूत्र ऐड उसके बोल्ड पिक्चराइज़ेशन के अलावा एक और बात के लिए याद रखना चाहिए. ‘आस्क फॉर KS,’ पहली बार कॉन्डम या निरोध पीछे छूट गया और ब्रांड आगे आगया. इस कैम्पेन के बाद से हम निरोध युग से उठ कर कोहिनूर, ज़रूर और मैनफोर्स काल में आगए.
https://www.youtube.com/watch?v=DNKOAknHaqM
21वीं शताब्दी में प्रवेश के साथ दो और बदलाव हुए. पहला, बस स्टॉप से छिपाकर रंगीन तस्वीरों वाली किताबों की ज़िम्मेदारी गूगल उठाने लगा. कॉन्डम के पैकेट पर तस्वीर देख कर मूड बनाने वाले लोगों को अब कुछ एक्स्ट्रा चाहिए था. बलवीर पाशा को एड्स होगा क्या? जैसे कैम्पेन धीरे-धीरे पीछे जाने लगे और 'चारपाई चरमराने' वाले ऐड सनसनी मचाने लगे. फ्लेवर और प्लेज़र की बाते होने लगीं.
https://www.youtube.com/watch?v=jT9qncGmgbs
आज की तारीख में जब भारत का शहरी युवा EMI, करियर और स्पेस के कारण शादी और बच्चों को अपनी लिस्ट में नीचे कर चुका है तो इन विज्ञापनों में फैमिली प्लानिंग और HIV से बचने की बातें लगभग गायब हो चुकी हैं. पान और बैंगन फ्लेवर की बात होने लगी हैं. इनमें लड़कियां अब पुरुषों को सलाह देने की जगह अपनी फैंटेसी की बात करती हैं.
लेकिन कॉन्डम और उस पर बात करना अब भी हमारे यहां टैबू है. सुरक्षा का ये जरूरी आविष्कार अब भी छिपकर मांगा और दिया जाता है. बहरहाल, आपअपनी सुरक्षा का ख्याल रखिए क्योंकि सावधानी ही बचाव है.
https://www.youtube.com/watch?v=afheIMhB8l0

Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement