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"शुक्ला को कहना, शेर ने शिकार करना ..." , आतंकी ने धमकी दी, फिर एक्शन में आई 'राष्ट्रीय राइफल्स'

राज्य पुलिस, पैरामिलिट्री, सेना आदि के लिए आतंकवाद से निपटना मुश्किल हो रहा था. इसलिए एक नई फ़ोर्स का गठन हुआ और इसे नाम दिया गया Rashtriya Rifles. कहा जाता है कि RR कभी आतंकियों पर रहम नहीं करती.

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आतंकी राष्ट्रीय राइफल्स के नाम से ही खौफ खाते हैं (PHOTO-X)

'ये डॉक्टर कलाम जैसे व्यक्ति को नहीं मानते, ये किसको मानते हैं, ज़ाकिर नाइक, इशरत जहां, याकूब मेमन, बुरहान वानी. इसी कि वजह से सारी प्रॉब्लम है.' ये शब्द हैं भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद डॉ सुधांशु त्रिवेदी के. डॉ सुधांशु त्रिवेदी राज्यसभा के सत्र के दौरान कांग्रेस पार्टी पर हमला कर रहे थे. राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप, शब्दों के हमले कोई नई बात नहीं है, खासकर सदन में. पर इसी दौरान डॉ सुधांशु त्रिवेदी ने एक नाम लिया, बुरहान वानी. वो नाम जो 2016 में हर अख़बार, हर न्यूज़ चैनल में एक कीवर्ड बना हुआ था. बुरहान  हिज़बुल मुजाहिदीन का एक आतंकवादी था. न सिर्फ आतंकवादी बल्कि वो आतंकियों का यूथ आइकन और भारत के लिए खतरा बनता जा रहा था. नए लड़कों का ब्रेनवॉश कर उन्हें आतंकवाद की तरफ मोड़ने में उसका अहम रोल था. पर कश्मीर घाटी में मौजूद एक फौजी दस्ते को भी ये बात पता थी. जाल बिछाया गया और बुरहान एक एनकाउंटर में मारा गया. जिस फ़ोर्स ने बुरहान वानी को मारने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उसका नाम है 'राष्ट्रीय राइफल्स'. इस फ़ोर्स को आतंकियों का काल कहा जाता है. क्या है ये फ़ोर्स, क्या है इसका इतिहास और कैसे काम करती है राष्ट्रीय राइफल्स, समझते हैं.

आतंक का दौर

90 का दशक. धरती पर स्वर्ग समझे जाने वाले कश्मीर की जमीन पर बारूद बोया जा चुका था. घटनाएं सिलसिलेवार तरीके से हुईं. पहले चुनाव हुए, धांधली के आरोप लगे. उधर सीमा पार से पाकिस्तान ने आतंकियों को स्पॉन्सर करना शुरू कर दिया. महज दो साल में आतंकियों के हौसले इस कदर बढ़ गए कि केन्द्रीय गृह मंत्री की बेटी किडनैप हो गई. अंत में कश्मीरी पंडितों को उनके घर से निकाल दिया गया. एक पूरा समाज घाटी से बेदखल कर दिया गया. कुल मिलाकर 1990 तक हालात ऐसे बन चुके थे कि सरकार को डर लगने लगा था कि कहीं घाटी कंट्रोल से बाहर न चली जाए. इंडियन आर्मी, BSF और और जम्मू कश्मीर पुलिस मिलकर हालत पर नियंत्रण बनाने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन आतंकवाद और चरमपंथ का गठजोड़ रोके न रुक रहा था.

Mufti Mohammad Sayeed's daughter Rubaiya Sayeed may have  emboldened IC 814 hijackers
तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद और आतंकियों के चंगुल से रिहा होने के बाद रूबिया सईद (PHOTO-X)

फिर 1990 में सरकार ने एक फैसला किया. प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार मंडल कमीशन और OBC आरक्षण लागू करने के लिए चर्चा में रही. लेकिन इन्हीं वीपी सिंह के कार्यकाल में गठन हुआ एक ऐसी फ़ोर्स का, जो खास तौर पर आतंकियों का सफाया करने, उनके इनफार्मेशन से लेकर लॉजिस्टिक्स के नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिए बनाई गई थी. इस फ़ोर्स का नाम था - राष्ट्रीय राइफल्स. एक फौज नाम जिसे सुनते ही क्या बुरहान, क्या समीर टाइगर, सबके हाथ पांव फूलने लगते थे. क्योंकि राष्ट्रीय राइफल्स कभी रहम नहीं करती. इसके जवान चाहे खाना खा रहे हों या सो रहे हों, उनकी बंदूक और एक एक्स्ट्रा मैगज़ीन हमेशा लोडेड रहती है. 

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राष्ट्रीय राइफल्स के जवान हमेशा तैयार रहते हैं (PHOTO-X)
बैकग्राउंड 

कहा जाता है कि अगर बैकग्राउंड की घटनाएं न होती तो राष्ट्रीय राइफल्स या RR की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. घाटी में लॉ एंड आर्डर के लिए वहां की पुलिस, BSF और पैरामिलिट्री बल ही पर्याप्त थे. साल 1988 की बात है. इस्लामाबाद में एक टॉप सीक्रेट मीटिंग चल रही थी. अपनी बुलंद आवाज़ में  पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल ज़िया-उल-हक़ फ़रमाते हैं,

“जेंटलमेन, शक-ओ-सुबाह की कोई गुंजाइश नहीं है. हमारा एक और सिर्फ़ एक मिशन है, कश्मीर की आज़ादी. हमारे मुस्लिम कश्मीरी भाइयों को अब और अधिक समय तक भारत के साथ रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती है. कश्मीरियों में कुछ हुनर हैं, जिनका हम फायदा उठा सकते हैं. पहला, उनकी शातिर बुद्धि; दूसरा, दबाव सह सकने की उनकी क्षमता, और तीसरी, उनकी राजनीतिक जागरूकता. हमें बस उन्हें साधन मुहैया कराने की ज़रूरत है.”

ज़िया ने तब इस ऑपरेशन को नाम दिया था, ऑपरेशन टुपैक. इसका उद्देश्य था कश्मीर में भारत विरोधी भावनाएं भड़काना. 1988 अगस्त में ज़िया की एक प्लेन क्रैश में मृत्यु हो गई. लेकिन ऑपरेशन टुपैक जारी रहा. जिसका पहला असर तो ज़िया की मौत पर ही दिखा. तब कश्मीर में जुलूस निकले, नारे चले जिनमें कहा गया, ‘तमाशा नहीं, ये मातम है.’

आतंकियों की रिहाई के बाद श्रीनगर की सड़कों पर नारे लगाते लोग
आतंकियों की रिहाई के बाद श्रीनगर की सड़कों पर नारे लगाते लोग (फोटो सोर्स -ट्विटर)

ऑपरेशन टुपैक की शुरुआत के पीछे एक खास वजह थी. दरअसल 1987 में जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए थे जिसमें धांधली के आरोप लगे. जनता में इस बात का गुस्सा था. लिहाजा मौके का फायदा उठाते हुए पाकिस्तान स्पॉन्सर्ड आतंकियों ने कश्मीर में गतिविधियां तेज कर दी. दिसंबर 1989 में गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद को अगवा कर लिया गया. उन्हें छुड़ाने के लिए सरकार को 5 अलगाववादी नेताओं को रिहा करना पड़ा. इससे अलगाववादियों और कट्टरपंथियों के मंसूबे और मजबूत हो गए. उन्हें लगा कि अब कश्मीर में भारत सरकार का कंट्रोल नहीं रह गया है. लिहाज़ा उन्होंने भारत और भारत समर्थित आवाज़ों को निशाना बनाना शुरू कर दिया. इस कड़ी में सबसे पहला और आसान निशाना बने कश्मीरी पंडित. 4 जनवरी 1990 को उर्दू अखबार आफताब में हिज्बुल मुजाहिदीन ने छपवाया कि सारे पंडित कश्मीर की घाटी छोड़ दें. अखबार अल-सफा ने भी इसी चीज को दोबारा छापा. कश्मीर में उस समय लाउड स्पीकर से कहा जा रहा था, 

'घड़ी का समय आधा घंटा पीछे कर लो'.

कहने का मतलब घड़ियों में पाकिस्तानी टाइम लगा लो. कश्मीर में जब ये सब चल रहा था, उसी समय पंजाब में खालिस्तान आंदोलन की आग भड़की हुई थी. वहां भी राज्य पुलिस, पैरामिलिट्री, सेना आदि के लिए सिचुएशन से निपटना मुश्किल हो रहा था. ऐसे हालात में सरकार ने अंत में एक अलग फ़ोर्स की जरुरत महसूस की. एक ऐसी फ़ोर्स जो विशेषकर आतंकियों का सामना करने के लिए तैयार हो. जिसके पास अपनी आर्टिलरी, सिग्नल्स , मेडिकल कोर और इंफेंट्री यूनिट हो.  तमाम चीजों को ध्यान में रखते हुए अंत में आर्मी चीफ जनरल विश्वनाथ शर्मा के नेतृत्व में एक नई फ़ोर्स का गठन हुआ और इसे नाम दिया गया  राष्ट्रीय राइफल्स.

Kashmir Valley: Militant siege - India Today
घाटी में नारे लगाते आतंकी  (PHOTO-India Today Archives)
शुरुआत 

राष्ट्रीय राइफल्स की पहली यूनिट रेंज करने में लेफ्टिनेंट जनरल PD भार्गव का बड़ा रोल था. कुछ साल पहले जनरल भार्गव ने एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में राष्ट्रीय राइफल्स की शुरुआत के बारे में बताया था. लेफ्टिनेंट जनरल भार्गव बताते हैं,     

“नई फ़ोर्स का कॉन्सेप्ट जनरल Sunith Francis Rodrigues लेकर आए थे. उनका एक ऐसी डेडिकेटेड फोर्स बनाने का प्लान था,  जो सिर्फ काउंटर टेररिज्म ऑपरेशंस को अंजाम दे.  साथ ही इसमें भर्ती होने वाले लोग फौज से रिटायर एक्स सर्विसमैन होते. इसे पैरामिलिट्री फ़ोर्स की तर्ज़ पर तैयार करने का प्लान था, जो गृह मंत्रालय के अंडर में काम करती. ये कम्प्रेहैन्सिव प्लान था लेकिन चंद कारणों के चलते धरातल पर नहीं उतर पाया.”

बकौल लेफ्टिनेंट जनरल भार्गव, जनरल बिपिन चंद्र जोशी ने एक रोज़ उन्हें बुलाकर कहा,  

“स्पीडी, तुम्हारे पास 6 महीने का समय है, तुम्हें बटालियन रेज़ करनी है”.

स्पीडी , जनरल पीडी भार्गव का निकनेम था. जनरल भार्गव बताते हैं कि 6 महीने में बटालियन रेज़ करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी. इंटरव्यू में वो एक जगह कहते हैं, 

“मैं ठहरा सिग्नल्स कोर का बंदा, मैंने तो कभी सिग्नल्स की बटालियन तक रेज़ नहीं की थी.”

जनरल भार्गव ने जब ये बात जनरल जोशी से कही, उन्होंने जवाब दिया,   

“वाट नॉनसेंस यू आर टॉकिंग स्पीडी, यू हैव टू रेज़ द बटालियन.”

फौज का हुकुम, पत्थर की लकीर. जनरल भार्गव ने जिम्मेदारी उठाई और काम में जुट गए. जनरल भार्गव कहते हैं,

“शुरुआत में मुझे लगा कि 6 महीने ये काम तो मुझसे होने से रहा. अब जनरल जोशी मुझे ज़रूर हटा देंगे.” 

लेकिन फिर जनरल जोशी ने उन्हें भरोसा देते हुए बताया कि उनके पास पूरा फ्री हैंड है. जनरल भार्गव ने आर्मी हेडक्वार्टर में सभी सेक्टर कमांडर्स के साथ मीटिंग की. जो बटालियन रेज़ हुई थीं, उनसे पूछा गया कि आपको क्या चाहिए, इस पर एक ऑफिसर ने कहा कि साब हमारे पास तो बर्तन तक नहीं हैं. कुछ हम खुद लेकर आए हैं, कुछ आसपास से मांगे हैं. खैर, सारी मांगों को नोट किया गया. और धीरे-धीरे ही सही, बटालियन की सभी ज़रूरतें पूरी की गईं. जनरल भार्गव राष्ट्रीय राइफल्स की शुरुआत से जुड़े एक दिलचस्प किस्से का ज़िक्र करते हैं. हुआ यूं कि जनरल भार्गव को बटालियन के लिए जीप की जरुरत थी. Lt Gen RIS Kahlon उनके दोस्त हुआ करते थे. जिनका निकनेम था रिस्की.   

जनरल भार्गव ने उनसे जीप देने की रिक्वेस्ट की. जनरल रिस्की ने जवाब दिया, 

“मेरे पास बस एक जीप है, वो भी यूएन की है, वाइट कलर वाली.”

जनरल भार्गव ने इसके बाद कहा कि मैं आपको लिखित में रिक्वेस्ट कर रहा हूं, आप इस जीप को OG यानी ऑलिव ग्रीन कलर पेंट करने की परमिशन दीजिए और मुझे इशू कर दीजिए. मेरे पास आर्मी चीफ का अप्रूवल है. जनरल रिस्की को विश्वास न हुआ. बोले, 

“तुमने समझा क्या है, तुम आर्मी चीफ थोड़ी हो.”

उन्होंने तुरंत जनरल जोशी से बात की और कहा कि स्पीडी ऐसी ऐसी डिमांड कर रहा है और बता रहा है कि आपका अप्रूवल है. जनरल जोशी हंसते हुए कहते हैं, अगर स्पीडी कह रहा है कि उसके पास मेरा अप्रूवल है, मतलब है, उसे जीप इश्यू कर दो . इस तह RR को जीप इश्यू हुई. सिग्नल्स के उपकरण जैसे सैट फोन्स, कम्युनिकेशन डिवाइस के लिए भी ज्यादा दिक्कत नहीं हुई. क्योंकि वे खुद सिग्नल्स कोर के थे. सैनिकों की बात करें तो दो कोर (लगभग 75,000 सैनिक) का पुनर्गठन करके RR का गठन किया गया था.

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कश्मीर स्थित राष्ट्रीय राइफल्स का बेस जिसके बाहर आतंकियों के लिए चुनौती लिखी है (PHOTO-Facebook/Heroes in Uniform)
काम करने का तरीका

गठन के बाद से ही पंजाब और जम्मू-कश्मीर, राष्ट्रीय राइफल्स का मुख्य कार्यक्षेत्र रहा. जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकियों का सफाया और पंजाब में खालिस्तानी आतंकियों से लोहा लेना, ये दो RR के मुख्य काम थे. जब पंजाब में स्थिति सुधरी तो पूरा ध्यान जम्मू-कश्मीर शिफ्ट कर दिया गया. वर्तमान में RR  के ऑपरेशन्स कश्मीर घाटी में ही चलते हैं. वैसे तो घाटी में घुसपैठ करने वाले हर आतंकी को फ़ौज से डर लगता है. पर आतंकी खासतौर पर इस यूनिट से खौफ खाते हैं. वजह, RR के जवान और ऑफिसर्स का अपना खुद का इंफॉर्मेशन नेटवर्क है. इस यूनिट के जवान वैसे तो हर तरह के हथियारों का इस्तेमाल करते हैं पर उनका पसंदीदा हथियार एके 47 है. साथ ही इसके जवान एके 203, कार्ल गुस्ताफ राकेट लॉन्चर, मल्टीपल ग्रेनेड लॉन्चर, नाइट विज़न डिवाइस जैसे उपकरणों से भी लैस रहते हैं. 

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 अलग-अलग हथियारों से लैस राष्ट्रीय राइफल्स के जवान (PHOTO-X)

अलग पहचान देने के लिए राष्ट्रीय राइफल्स को अलग बैज, अलग निशान और अलग झंडा दिया गया है. यूनिट के निशान में इसके जवानों का पसंदीदा हथियार एके 47 है जिसके बीच में अशोक चक्र है. 
इस यूनिट का ध्येय वाक्य है, - दृढ़ता और वीरता. इसमें सेना की हर रेजिमेंट से जवान, ऑफिसर्स आते हैं और 2-3 साल के डेपुटेशन पर अपनी सेवाएं देते हैं. 

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राष्ट्रीय राइफल्स का निशान (PHOTO-X)

राष्ट्रीय राइफल्स से पहले सेना की इंफेंट्री यूनिट्स ही आतंकवाद निरोधी ऑपरेशन्स को अंजाम दिया करती थीं. राष्ट्रीय राइफल्स का स्ट्रक्चर भी कुछ ऐसा है जिसमें 50 प्रतिशत जवान इंफेंट्री के होते हैं. बाकी सेना की अलग अलग रेजिमेंट्स जैसे आर्मर्ड रेजिमेंट, आर्टिलरी, मेडिकल, सिग्नल्स, इंजीनियर्स जैसे अलग-अलग रेजिमेंट्स से आते हैं. वर्तमान में राष्ट्रीय राइफल्स 65 बटालियंस के साथ ऑपरेट करती है. इनके पांच हेडक्वार्टर हैं. 

-रोमियो फ़ोर्स - राजौरी और पूंछ में ऑपरेट करती है. 

-डेल्टा फ़ोर्स के पास डोडा का जिम्मा है.  

-विक्टर फ़ोर्स अनंतनाग, पुलवामा, शोपियां, कुलगाम और बडगाम में सक्रिय रहती है.  

-किलो फ़ोर्स- कुपवाड़ा, बारामुला, श्रीनगर में है.  

-यूनिफार्म फ़ोर्स- जो उधमपुर, बनिहाल और हाल के दिनों में लद्दाख तक ऑपरेट करती है.

इतिहास और स्ट्रक्चर समझने के बाद अब जानते हैं राष्ट्रीय राइफल्स द्वारा किए गए कुछ ऑपरेशन्स की. वैसे तो इस बटालियन की ऑपरेशनल डिटेल्स अधिकतर क्लासिफाइड यानी गुप्त होती हैं. आम लोग शायद ही कभी इनके बारे में जान पाते हैं. पर कुछ ऑपरेशंस ऐसे थे जिनके बारे में जानकारी सामने आई. वैसे तो एक अनुमान है कि राष्ट्रीय राइफल्स ने अब तक 10 हज़ार से ज़्यादा आतंकियों को मार गिराया है. साथ ही कई हज़ार को गिरफ्तार भी किया है. 

पर RR सिर्फ मारने-पकड़ने का काम नहीं करती. घाटी में जिन बच्चों का ब्रेनवॉश कर उन्हें आतंक की ट्रेनिंग के लिए LOC के पार भेजा जाता है, उन्हें वापस लाकर समाज की मुख्यधारा से जोड़ने में भी RR लोगों की मदद करती है. पाकिस्तान के प्रोपेगैंडा से किस तरह खुद को बचाया जाए, इसके लिए RR की यूनिट्स जागरूकता अभियान भी चलाती है. RR के जवान चाहे किसी भी हाल में हों, सो रहे हों, लेटे हों या आराम कर रहे हों, आदेश मिलने पर 3 से 5 मिनट के भीतर वो रवाना हो जाते हैं. RR कुछ बड़े ऑपरेशन्स के बारे में आपको बताते हैं. 

ऑपरेशन सर्प विनाश 

साल 2003 की बात है, मई का महीना था. ख़बर मिली कि हिलकाका के जंगल में 100 के करीब आतंकियों ने शरण ले रखी है. ये इलाका पीर पंजाल की पहाड़ियों में उत्तर पूर्वी ढलान पर पड़ता है. आतंकियों के सफाए के लिए राष्ट्रीय राइफल्स को बुलाया गया. चूंकि आतंकियों की संख्या ज्यादा थी और वे घने जंगलमें शरण लिए हुए थे,  इसलिए पैराशूट रेजिमेंट की स्पेशल फ़ोर्स, गोरखा राइफल्स, और गढ़वाल राइफल्स के जवानों की मदद भी ली गई. ऑपरेशन की शुरुआत करते हुआ पैरा कमांडोज़ सबसे पहले जंगल में दाखिल हुए. उन्होंने 13 आतंकियों को तुरंत मार गिराया. इसके बाद 10 दिनों तक सर्च एंड हंट ऑपरेशन चला. अंत में सारे आतंकी मारे गए.  

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एक ऑपरेशन के दौरान राष्ट्रीय राइफल्स के जवान (PHOTO-X)

आतंकियों के पास से 20 एके 47 राइफल्स, 5 पीका गंस,  2 स्नाइपर राइफल्स, कई ग्रेनेड लॉन्चर, 45 किलो प्लास्टिक एक्सप्लोसिव बरामद हुए. साथ ही कई रेडियो सेट्स और कम्युनिकेशन डिवाइसेस भी जब्त किए गए. इन आतंकियों के पास इतना राशन मिला जिससे की 2 हफ्ते तक 500 लोगों का काम चल सकता था. वापसी में सेना ने 50 से अधिक छुपने की जगह और शेल्टर्स को भी नष्ट किया. इस ऑपरेशन की कामयाबी और महत्त्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके पूरा होने के बाद आर्मी चीफ जनरल एन सी विज खुद इसमें शामिल जवानों से मिलने गए थे.

ऑपरेशन बुरहान वानी

साल 2015 में जब जून का महीना खत्म हो रहा था, तब कश्मीर से फेसबुक पर एक फोटो अपलोड की गई. आप कहेंगे कि फेसबुक पर रोजाना लाखों फोटो अपलोड होती हैं, तो इस फोटो में क्या खास था. खास ये था कि ये फोटो हिजबुल मुजाहिदीन के सरगना बुरहान वानी ने पोस्ट की थी, जिसमें वो अपने 10 साथियों के साथ बैठा था. सबके हाथ में हथियार थे और सबकी देह पर सैनिकों वाली वर्दी. ऐसी तस्वीरों से वानी घाटी के लड़कों को बरगलाने की कोशिश करता था. 

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बुरहान वानी और उसके 10 साथियों की वो तस्वीर, जो उसने 2015 में सोशल मीडिया पर पोस्ट की थी (PHOTO-Social Media)

कश्मीर में नए लड़कों का आतंकी कैम्प जॉइन करना कोई नई बात नहीं थी. पर बुरहान एक खतरनाक इंसान था. यंग लड़का था इसलिए उसे सोशल मीडिया की पावर पता थी. और उसने आतंक फैलाने के लिए इसका इस्तेमाल एक टूल की तरह किया. ये वो दौर था जब भारत में इंटरनेट यूज़र्स बढ़ते जा रहे थे. बुरहान ने सोशल मीडिया पर फोटो, वीडियो पोस्ट करनी शुरू की. उसने एक ग्रुप फोटो पोस्ट की जिसमें वो अपने 10 साथियों के साथ हथियारों के साथ बैठा था. ये सुरक्षाबलों को सीधी चुनौती थी. बुरहान इतना खतरनाक था कि पर सरकार ने उस पर 10 लाख का इनाम रखा था. उसके पिता मुज़फ्फर अहमद वानी स्कूल प्रिंसिपल थे. 

फिर आई 8 जुलाई 2016 की तारीख. इस दिन राष्ट्रीय राइफल्स और J&K पुलिस की SOG टीम ने अनंतनाग के कोकेरनाग इलाके में जॉइंट ऑपरेशन चलाया. एक घर में छिपे वानी ने बचने के लिए ग्रेनेड दागे और गोलियां चलाईं. जवाब में फोर्स ने घर में बम मारे. ऑपरेशन में वानी के साथ उसके दो साथी भी मारे गए थे. एनकाउंटर से एक महीने पहले ही इसने एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें ये सैनिकों और कश्मीरी पंडितों को धमका रहा था. वानी के एनकाउंटर के बाद घाटी काफी समय तक अशांत रही. हालांकि आने वाले सालों में बुरहान के साथ ग्रुप फोटो में दिखने वाले सभी आतंकियों को RR ने मारा गिराया.  

ऑपरेशन समीर टाइगर

ये एक ऐसा ऑपरेशन था जिसमें बात एक आर्मी ऑफिसर और एक टेररिस्ट की पर्सनल लड़ाई तक आ गई थी. बात 2018 की है. अप्रैल का महीना था. जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन के एक टॉप कमांडर समीर टाइगर ने एक वीडियो जारी किया. इस वीडियो में आतंकी समीर एक बंधक को दिखाकर कहता है - 

"शुक्ला को कहना, शेर ने शिकार करना क्या छोड़ा, कुत्तों ने समझा कि जंगल हमारा है." 

ये धमकी थी 44 राष्ट्रीय राइफल्स के मेजर रोहित शुक्ला के लिए. रोहित शुक्ला, एक ऐसा नाम जिससे न सिर्फ कश्मीर घाटी बल्कि LoC के पार भी आतंकी डरते थे. कहावत थी कि अगर मेजर शुक्ला की यूनिट के हत्थे चढ़ गए तो जहन्नुम का टिकट पक्का है. आतंकी समीर टाइगर भी मेजर शुक्ला से वाकिफ था. इसलिए उसने धमकी भेजी. ये सोचकर कि मेजर शुक्ला उसका पीछा छोड़ देंगे. 

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वीरता पुरस्कार शौर्य चक्र से सम्मानित मेजर रोहित शुक्ला और आतंकी समीर (PHOTO-X)

पर मेजर शुक्ला उसे कई दिनों से फॉलो कर रहे थे और 30 अप्रैल 2018 को पुलवामा के एक घर में मेजर शुक्ला की यूनिट 44 आर आर, जम्मू कश्मीर पुलिस और CRPF ने समीर को घेर लिया. इस एनकाउंटर में समीर मारा गया और मेजर शुक्ला को भी सीने में गोली लगी. मेजर शुक्ला ने इस तरह के 50 से अधिक ऑपरेशंस को लीड किया. मार्च 2018 में उन्हें दिल्ली में राष्टपति रामनाथ कोविंद ने देश के तीसरे सबसे बड़े वीरता पुरस्कार शौर्य चक्र से सम्मानित किया था. इसके अलावा उन्हें सेना मेडल से भी सम्मानित किया जा चुका है. 

वीडियो: तारीख: 'मैं जीसस क्राइस्ट हूं' बोलकर मूर्ति पर हथौड़ा चलाने वाला कौन था?