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कहानी डेनिम जींस की जिसकी वजह से रेप की सजा खत्म हो गई थी

Steve Jobs से लेकर Martin Luther King तक, क्रांति से लेकर गुलामी तक; डेनिम के कपड़े ने सब देखा.

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जींस को आधार मानकर एक रेप के केस में फैसला दिया गया था (फोटो-गेट्टी)

जींस की जेब के भीतर एक छोटी सी ‘बउआ पॉकेट’ क्यों होता है? आई-पॉड नैनो के लॉन्च के वक्त स्टीव जॉब्स ने भी यही चिरकालीन सवाल पूछा. कुछ लोग बताते हैं कि ये बउआ पॉकेट सिक्के रखने के लिए होती है. कुछ कहते हैं चाभी रखने के लिए. स्टीव जॉब्स ने इस सवाल का फायदा उठाया आई-पॉड की मार्केटिंग के लिए. बता डाला कि ये पॉकेट असल में आई-पॉड नैनो रखने के लिए बनाई गई थी. पर ये तो मार्केटिंग गिमिक था. इससे इतर सवाल तो मौजूं ही रहा.

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पॉकेट में आईपॉड रखते स्टीव जॉब्स (PHOTO- X/@mizedub)

ऐसे ही कई रोचक सवाल और किस्से जुड़े हैं इस कपड़े से, जिसकी जड़ें समाज में बहुत गहरी हैं. जिसे कभी स्कूलों में बैन कर दिया गया. जिसकी वजह से रेप का एक आरोपी सजा से बचा. जो विरोध का पर्याय भी बना. जिसे पहनकर लोगों ने बर्लिन की दीवार तोड़ी. स्टीव जॉब्स से लेकर मार्टिन लूथर किंग तक, क्रांति से लेकर गुलामी तक; इस कपड़े ने सब देखा. 

आइकॉनिक ब्लू डेनिम जींस

 शायद ही कोई ऐसा कपड़ा होगा, जिसका इतिहास समाज के हर तबके को इस तरह छूता हो, जिस तरह ब्लू डेनिम जींस ने छुआ है. शायद ही कोई ऐसा कपड़ा होगा, जिसे लेकर कहा जाता हो,

“यह दुनिया के सबसे पुराने कपड़ों में से है. फिर भी हमेशा जवान है.”

अब तक बची हुई, दुनिया की सबसे पुरानी जींस साल 1857 के आस-पास में बनी थी. डेढ़ सौ साल की जवान जींस. पर जींस का इतिहास इससे भी पुराना है. इसके तार भारत, पेरिस, इंग्लैंड और अमेरिका से होते हुए सोवियत संघ के Iron Curtain तक जुड़े हैं. तो समझते हैं कि जींस का इतिहास और इसका भारत से क्या नाता है? आंदोलनों में इसका क्या योगदान रहा है? रेप के मामले में कैसे इसे ‘गवाह’ बनाया गया? और आखिर में वही सवाल, इसमें छोटी सी जेब या बउआ पॉकेट क्यों होता है?

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सोवियत संघ का Iron Curtain  (PHOTO- Wikimedia Commons)
ब्लू डेनिम जींस

डेनिम आमतौर पर मोटे, मजबूत और कैनवास की तरह के कपड़े का बना होता है. आज की जींस जैसे एक कपड़े के तार, भारत से भी जुड़े हैं जिसे नाम दिया गया, डंग्री फैब्रिक. ये नाम मुंबई के डोंगरी से मिलता जुलता है,  क्योंकि इसकी उत्पत्ति वहीं से हुई बताई जाती है. हालांकि नक्शे में किसी एक सटीक जगह से डेनिम को जोड़ना आसान नहीं. इनके नामों में भी बड़ा कन्फ्यूजन है. कई बार डंग्री को डेनिम भी कह दिया जाता है. यह भी कहना मुश्किल है कि डंग्री, डेनिम से पहले आया या बाद में. पर कुछ बुनियादी फर्क हैं. मसलन डाई करने का तरीका, कपड़े की बुनाई वगैरह. 

दूसरी तरफ डेनिम नाम के पीछे की कहानी, सात हजार किलोमीटर दूर शुरू होती है. एक धड़ा कहता है कि डेनिम- फ्रेंच के ‘सर्ज दा नेमिस’ से आया है. जिसका मतलब होता है फ्रांस के नेमिस कस्बे से ताल्लुक रखने वाला सर्जे कपड़ा. इस नाम की उत्पत्ति पर भी सवाल उठाए जाते हैं. एक्सपर्ट्स कहते हैं कि यह नाम इंग्लैंड में 17वीं सदी से जाना जाता रहा है. इसलिए शायद यह कपड़ा यहीं बनता हो ना कि फ्रांस में.

जगह के अलावा ‘सर्ज दा नेमिस’ के साथ इस मामले में एक और मसला है. दरअसल ये कपड़ा रेशम और ऊन के धागों से बनाया जाता था. जबकि डेनिम हमेशा कॉटन से बनता है. मामला बस नेमिस तक नहीं रहा. एक ‘जीन’ नाम का कपड़ा भी हुआ करता था जो कॉटन, लिनेन और ऊन को मिलाकर बनाया जाता था. इसकी जड़ें इटली से जुड़ी थीं. जीन एक तरह का कपड़ा था और डेनिम भी एक तरह का कपड़ा. कुल मिलाकर कहें तो आज का डेनिम कहां से आया, ये पहले किस तरह का कपड़ा था? इस बारे में सटीक जानकारी नहीं मिलती है. या तो ये फ्रांस से निकला, या फिर अंग्रेज व्यापारियों ने इसे खुद का नाम दे दिया. पर जैसा उदय भाई वेलकम मूवी में कहते हैं ‘ये राज भी उन्हीं के साथ चला गया.’

18वीं सदी आते-आते जीन का कपड़ा पूरी तरह कॉटन से बनाया जाने लगा. इससे मर्दों के कपड़े बनाए जाते. ये खास था क्योंकि कई धुलाइयों के बाद भी ये टिकाऊ रहता था. इसके चलते इसकी पॉपुलैरिटी भी बढ़ी. दूसरी तरफ डेनिम भी अपनी पहचान बना रहा था. यह जीन से ज्यादा टिकाऊ, पर महंगा भी था. हालांकि एक बुनियादी फर्क के साथ दोनों कमोबेश एक जैसे ही थे. डेनिम की बुनाई में एक धागा रंगीन और एक धागा सफेद होता था. वहीं जीन में दोनों एक ही रंग के होते थे.

इसके बाद अलटांटिक पार करके, ये कपड़ा अमेरिका पहुंचा. साल 1789 में स्थानीय रोड आइलैंड अखबार में डेनिम शब्द का शुरुआती जिक्र मिलता है. साल 1792 में आई किताब, The Weavers Draft Book and Clothiers Assistant में डेनिम बुनने की टेक्निकल बातों का भी जिक्र है. बहरहाल सवाल ये है कि ऐसा मोटा कपड़ा पहनता कौन था?

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The Weavers Draft Book and Clothiers Assistant किताब (PHOTO-Amazon)
ब्लू कॉलर, ब्लू जींस

शुरुआती दौर में डेनिम काम काजी लोगों, यानी ब्लू कॉलर वर्कर्स का कपड़ा था. वजह, ये आरामदायक भी था और चलता भी ज्यादा था. इसकी एक उपयोगिता ‘गोल्ड रश’ में भी देखने मिली. हजारों लोग, अमेरिका के कैलिफोर्निया में सोने की तलाश में पहुंच रहे थे. पहाड़ों में चढ़ने और धूल मिट्टी की रगड़ में आम कॉटन या ऊन के कपड़े जल्दी फट जाते थे. फिर लिवाई स्ट्राउस और जैकब डेविस नाम के लोगों ने एक काम किया. डेनिम के कपड़े से ऐसे पैंट बनाए, जो ज्यादा टिकाऊ थे. डेनिम कपड़ा मोटा था इसलिए काम करने में आसानी भी रहती थी. 

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लेवाई स्ट्राउस (PHOTO-Wikimedia Commons)

कुछ और प्रयोग भी इस पोशाक में किए गए. दरअसल पैंट जहां से ज्यादा फटते थे. वहां उन्होंने कॉपर रिवेट लगाए या कहें तांबे की कील जैसी चीजें. इनकी छाप आज के जींस में भी देखने मिलती हैं. जेबों में दिखने वाली छोटी-छोटी बटन जैसी चीजें रिवटेड जींस का ही अवशेष हैं. इसके नीले रंग के पीछे की कहानी भी कम रोचक नहीं है. कामकाजी लोगों के लिए बना ये कपड़ा अक्सर नीला होता था क्योंकि गहरा रंग गंदा कम जान पड़ता था. इसकी एक और वजह नीला सोना भी था. 

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जींस में लगे  कॉपर रिवेट (PHOTO-Wikimedia Commons)
नीला सोना

भारत में एक दौर ऐसा भी था. जब अंग्रेजी हुकूमत, किसानों को अनाज की जगह नील उगाने पर मजबूर करती थी. फिर इसे औने-पौने दामों पर खरीदकर, यूरोपीय बाजारों में ऊंची कीमतों पर बेच देती थी. साल 1810 तक ब्रिटेन में 95 फीसद नील भारत से बेजी जाती थी. नील का रंग तो नीला था. पर ये भारतीय किसानों के खून-पसीने से बनी थी. एक वक्त पर ये खास रंग यूरोप में लग्जरी था क्योंकि हरे रंग की पत्तियों से नीला रंग निकालना आसान नहीं था. इसके लिए सालों की कला और मेहनत लगती थी. 

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नील की डाई (PHOTO-Bala Natrajan/Al Jazeera)

इसी क्रम में भारतीय किसानों का खूब शोषण भी हुआ. बंगाल के किसानों ने नील की क्रांति भी की. बिहार के चंपारण में महात्मा गांधी के पहले आंदोलन के केंद्र में भी नील के किसान थे. नील पर ब्रिटेन का अधिकार बाकी देशों के लिए भी दिक्कत थी. ऐसे में नील का अल्टरनेटिव खोजने की जुगत भी लगाई जाने लगी. जर्मन कैमिस्ट एडॉल्फ वॉन बॉयेर ने सिंथेटिक केमिकल डाई बनाने की सोची. साल 1865 से वो इस जुगत में लग गए. आखिर कुछ 18 साल बाद उन्हें सफलता मिल ही गई. इसके बाद सस्ता नीला रंग बाजार में उपलब्ध था. इसी क्रम में डेनिम का स्वाभाविक रंग भी नीला बन गया. काम काजी लोगों के लिए, ये रंग स्टाइल से ज्यादा जरूरत रहा. पर ये जरूरत, एक वक्त में फैशन में भी बदली.

रेबेल विदाउट अ कॉज 

नीली डेनिम पैंट्स यानी जींस लोगों के जेहन तक दस्तक दे चुके थे. अमेरिकी काऊ बॉयज़, खदानों में काम करने वाले, ट्रेनों के ट्रैक बनाने वाले, सोना खोजने वाले. सभी की पहली पसंद बन गया ये कपड़ा. फिर 1950 के दशक में हॉलीवुड फिल्मों में भी ये कपड़ा दिखा. 1953 में ‘The Godfather’ फिल्म वाले मर्लेन ब्रैंडो की एक फिल्म आई, ‘द वाइल्ड वन’. इसमें वो बैड बॉय जॉनी के किरदार में थे. लिवाइस 501 जींस और लेदर जैकेट में. बीबीसी में छपे एक लेख के मुताबिक, 

“साल 1953 में 15 साल के लड़के मार्लेन ब्रैंडो बनना चाहते थे. हॉलीवुड के कॉस्ट्यूम डिजाइनर बैड बॉयज़ को डेनिम पहना देते थे.”

आगे साल 1955 में Rebel Without a cause नाम की फिल्म आई. उल्टा कबीर सिंह, क्योंकि वो कहता था - I am not a rebel without a cause, sir. खैर 1955 में आई फिल्म का किरदार James Dean ने निभाया और फैशन में अपनी छाप छोड़ी. इन दोनों फिल्मों के किरदार डेनिम जींस पहनते थे. ये बागी किस्म के थे जिसकी वजह से युवाओं में इन्हें पहनने का चस्का बढ़ा. दूसरे विश्व युद्ध से लौटे सैनिक भी मोटर साइकिलों में डेनिम पहनकर घूमते थे. विश्व युद्ध की वजह से ही जींस यूरोप और जापान तक भी पहुंचे थे क्योंकि ज्यादातर अमेरिकी सैनिक वर्किंग क्लास से थे. जो घर की याद और सिंबल के तौर पर गर्व से विदेशी धरती पर जींस पहनते थे. लेकिन इनकी बागी छवि इतनी बढ़ी कि एक वक्त में जींस अमेरिकी स्कूलों में बैन किए जाने लगे. थिएटर्स और रेस्टोरेंट्स के निशाने पर भी जींस आ गई. इसके चलते डेनिम कंपनी, लिवाइस ने एक कैंपेन भी चलाया- राइट फार स्कूल. राइट माने सही, राइट माने हक. इश्तिहारों में स्कूल के लड़कों को ब्लू जींस पहने और किताब लिए दिखाया गया.

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लिवाइस का राइट फार स्कूल पोस्टर (PHOTO- LEVI'S)

कोशिश ये थी कि जींस पहनने वाले एंग्री यंग मैन के अलावा पढ़ाकू भी हो सकते हैं. बहरहाल वक्त के साथ जींस के साथ जुड़ी बैड बॉयज़ की इमेज बदली, इन्हें समाज में स्वीकार्यता मिली. टेक फाउंडर स्टीव जॉब्स, जेफ बेजोस से लेकर स्टैनफर्ड के न्यूरॉलजी प्रोफेसर रॉबर्ट सप्लॉस्की भी नीली जींस में नजर आए. आखिर समाज ने इन्हें अपना ही लिया. पर जींस का एक रिश्ता महिलाओं के चरित्र से जरूर जोड़ा गया.

रेप का गवाह जींस

साल 2008 में इटली के सुप्रीम कोर्ट ने एक विवादित फैसला दिया. मामला एक 16 साल की लड़की के यौन शोषण से जुड़ा था. दरअसल 12 जुलाई 1992 को 16 साल की एक छात्रा ने पुलिस में मामला दर्ज करवाया. बताया कि 45 साल के ड्राइविंग इंस्ट्रक्ट्रर ने उसका यौन शोषण किया है. ड्राइविंग सिखाते वक्त वह उसे सुनसान सड़क पर ले गया और फिर बलात्कार किया. मामला निचली अदालतों में चला. सभी गुनाहों का दोषी पाते हुए ड्राइविंग इंस्ट्रक्ट्रर को दो साल की सजा भी दी गई. इसके खिलाफ आरोपी ने इटली के सुप्रीम कोर्ट में अपील की. 

मामला कोर्ट में पहुंचा और आरोपी ड्राइविंग इंस्ट्रक्टर ने अपना पक्ष रखा. कहा कि उसके और स्टूडेंट के बीच यौन संबंध रहे हैं जैसा कि उसने बताया, पर सहमति के साथ. इस क्रम में उसने एक विवादित तर्क रखा. कहा कि उस वक्त लड़की ने स्किनी जींस पहन रखा था जो कि काफी टाइट थी. इसी वजह से बिना सहमति के यौन संबंध बनाना मुमकिन नहीं था जब तक लड़की की मर्जी ना रही हो. 
 

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स्किनी जींस (PHOTO-Pexels)

इस पर कोर्ट का फैसला भी आया. डिसीजन नंबर 1636/99 में इटली की सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 

“पहनने वाले की सहमति के बिना टाइट जींस को थोड़ा भी उतारना असंभव सा है.” 

इसी आधार पर कोर्ट ने मामले में लड़की की सहमति की बात को माना और आरोपी को रिहा कर दिया. इस विवादित तर्क और फैसले के बाद जगह-जगह पर प्रोटेस्ट भी हुए. इसे जींस डिफेंस नाम दिया गया. रोम की संसद के बाहर पांच महिला सांसद हाथ में कागज लिए खड़ी हुईं. कागज पर लिखा था, बलात्कार की गवाही देता जींस

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रोम की संसद के बाहर महिला सांसद (PHOTO-Getty)

तानाशाह मुसोलिनी की पोती और सांसद एलेसैंड्रा मुसोलीनी ने कहा, 

“यह फैसला महिलाओं के सम्मान को ठेस पहुंचाता है.”

आगे ये मामला काफी बड़ा हुआ. आम जनता से लेकर, महिला जजों ने फैसले के पीछे की मानसिकता पर कड़े सवाल उठाए. कई प्रोटेस्ट हुए जींस से जुड़ा एक प्रोटेस्ट और भी था जो एक दूसरे हक की बात करता था.

नीली जींस वाला इतवार

50 के दशक में अमेरिका में नागरिक हकों की बात चली. इसमें केंद्र में अश्वेत अमेरिकी थे. नाम दिया गया सिविल राइट्स मूवमेंट. इसी आंदोलन के दौरान नेता मार्टिन लूथर किंग ने अपना चर्चित भाषण दिया था. जिसे टाइम ने दुनिया के 10 सबसे महान भाषणों की लिस्ट में रखा. भाषण - I Have A Dream,  मेरा एक सपना है. एक दिन मेरे चार बच्चे, उनकी त्वचा के रंग से नहीं बल्कि चरित्र से जाने जाएंगे. मेरा एक सपना है. यही मार्टिन लूथर किंग एक वक्त नीली जींस में भी नजर आए. हालांकि आज नीली जींस को अश्वेत अमेरिकियों के हक से जोड़कर नहीं देखा जाता. पर उस दौर में तमाम लोगों के लिए ये विरोध जताने के तरीका था. 

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स्पीच देते मर्टिन लूथर किंग (PHOTO-Wikimedia Commons)

नीला डेनिम ना सिर्फ वर्किंग क्लास लोगों की यूनिफार्म थी, बल्कि गुलामी के दौर में अश्वेत अमेरिकियों की पोशाक भी थी. ये ब्लू कॉलर वर्कर्स के बीच के भाइचारे का प्रतीक था. ये जेंडर इक्वालिटी को भी बताता था क्योंकि मर्द-औरत दोनों ही एक जैसी जींस पहन सकते थे.

दूसरी तरफ साल 2006 में बेलारूस में राष्ट्रपति चुनावों से जुड़ा एक प्रोटेस्ट चल रहा था. तभी पुलिस ने लोगों के हाथों से झंडे जब्त कर लिए. जिसके बाद एक प्रदर्शनकारी ने लकड़ी में डेनिम कपड़ा फंसाया. और झंडा बना डाला. फिर उदय हुआ जींस रेवोल्यूशन का. युवा आर्गेनाइजेशन जुब्र ने लोगों से अपील की, कि वो सड़कों में जींस पहने उतरें.

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जींस रेवोल्युशन  (PHOTO-Wikipedia)
डेनिम और आयरन कर्टन

कोल्ड वार यानी शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में भी जींस की मांग बढ़ने लगी. यहां इनकी स्मगलिंग करके लोग फायदा भी कमाने लगे. फिर उदय हुआ, जींस जेनरेशन का. लोग अपने रिश्तेदारों से ब्लू जींस के जोड़े मंगवाते थे. दरअसल एक वक्त में आयरन कर्टन, यानी सोवियत राज्य में जींस बैन कर दिए गए. पर नवंबर 1989 में एक रोज कुछ बीस लाख लोग एक दीवार के पास इकट्ठा हुए और उसे तोड़ना शुरू कर दिया. ये दीवार बर्लिन की थी. 

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बर्लिन की दीवार पर लोग (PHOTO-Getty))

इन लोगों में तमाम युवा भी थे जिन्होंने वेस्ट का पहनावा, जींस पहन रखा था. जिसे पूंजीवाद की निशानी माना जाता था. पर दीवार पर बैठे तमाम जवान लोगों ने बर्लिन वॉल को तोड़कर रख दिया. अब बात उस सवाल की, जो हमने शुरुआत में पूछा था. जींस में छोटी जेब क्यों होती है?

छोटी जेब 

ना म्युजिक प्लेयर, ना सिक्के, ना ही टॉफी. छोटी जेब की कहानी. घड़ियों से जुड़ी है. जिसके लिए कभी जां निसार अख़्तर साहब ने कभी कहा था. 

इंक़िलाबो की घड़ी है
हर नहीं, हां से बड़ी है

एक वक्त पे वक्त देखने वाली घड़ी भी थोड़ा बड़ी थी. कलाई में फिट नहीं होती थी. कुछ पॉकेट वाचेज रखने में भी दिक्कत होती थी. आज चाहे छोटी जेब को जैसे भी इस्तेमाल में लिया जाए, या ना लिया जाए. पर 1873 में जब इसे डिजाइन किया गया था तब इसका मकसद था कि कामकाजी लोग अपनी घड़ियों को सुरक्षित रख सकें. 

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पॉकेट में जींस (PHOTO-Pexels)

वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर
आदत इस की भी आदमी सी है

और बदलते वक्त के साथ इंसानों की आदतें बदली. छोटी जेब गुजरे वक्त की निशानी बन कर रह गई.

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