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झोलाछाप डॉक्टरों की वजह से मरते लोग उन्हीं के पास ना जाएं तो और क्या करें?

एक फेसबुक पोस्ट ने भारत की मरती स्वास्थ्य सेवाओं की तरफ ध्यान खींचा है.

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सांकेतिक तस्वीर. (साभार- Unsplash.com)

कहानी दरवाज़े के पीछे की…

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हमारे गांवों में घरों की पुताई यूं ही नहीं होती. इसके पीछे कोई न कोई खास वजह जरूर होती है. डूंगरपुर के लांबा पातड़ा गांव में इस घर की दीवार और चौखट का रंग देख कर हमें लगा कि इसे हाल-फिलहाल में ही पुतवाया गया था. और इसके पीछे खास वजह थी घर के इकलौते लड़के की शादी. 30 अप्रैल को खूब धूमधाम से शादी हुई. सब अच्छे से निपट गया. शादी के करीब महीने भर बाद जब हम इस घर पहुंचे तो दीवारों के रंग तो वैसे ही चटख थे लेकिन लोगों का चेहरा उतरा हुआ था. माहौल बिल्कुल बदला हुआ सा लग रहा था. 

परिवार से बातचीत करने पर पता चला कि शादी के 8-9 दिन बाद पिताजी की तबीयत खराब हुई. परिवार ने गांव में ही 'डॉक्टर' से इलाज करवाया. अखबारी भाषा में जिसे झोलाछाप कहा जाता है. उसकी दवा से कोई राहत न मिली. हालत सुधरने की बजाय और बिगड़ने लगी. 10 मई की रात उन्हें डूंगरपुर के एक सरकारी हॉस्पिटल में ले जाया गया. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. उन्हें बचाया न जा सका. परिवार का मानना है कि अगर गांव में झोलाछाप डॉक्टर के पास जाने की बजाय पहले ही सरकारी अस्पताल ले जाते तो शायद जान बच जाती.

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शायद जान बच जाती, शायद. इस एक शब्द में परिवार कितनी उम्मीद खोजता है, लेकिन इसमें भरा है अफसोस. जिंदगी भर का अफसोस. जिंदगी भर परिवार को ये 'अफसोस' कचोटता रहेगा. 

लेकिन परिवार के पास कोई और विकल्प भी तो नहीं था. डूंगरपुर के इसी गांव में क्यों, देश के लगभग सभी गांवों के पास कोई विकल्प नहीं होता. सिवाय झोलाछाप डॉक्टरों के. अब अगर कोई बीमार हो जाता है तो मजबूरी में लोगों को एक ऐसे इंसान से इलाज कराना पड़ता है जिसके पास कोई डिग्री नहीं होती. कहीं कोई मेडिकल स्टोर में काम करते-करते डॉक्टर बन जाता है तो कहीं कोई कंपाउंडर से डॉक्टर बन जाता है. 

अगर मरीज को इससे आराम नहीं मिलता तो फिर लोग किसी महंत या तांत्रिक (भोपा) के पास जाते हैं, झाड़ फूंक कराने. जब हालत ज़्यादा खराब हो जाती है तो हॉस्पिटल की ओर भागते हैं.

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हर बजट में, हर सरकार में गांव-गांव स्वास्थ्य केंद्र बनाने की बातें तो होती हैं लेकिन बनते कहां हैं? 

जहां बने भी हैं, कहीं भैंस बांधी जा रही है तो कहीं गोबर सुखाया जा रहा है. करोड़ों रुपए डकार कर बिल्डिंग खड़ी कर दी तो दवा नहीं है, डॉक्टर नहीं है, ताला बंद है. अरे संसाधनों की बर्बादी करना तो कोई हमसे सीखे.

ऐसा नहीं है कि सरकार या किसी सरकारी पद पर बैठे की भी व्यक्ति को ये सब पता नहीं है. सब पता है. सब कुछ जानते बूझते हुए भी वे 'सब चंगा सी' का राग अलाप रहे हैं. उनके लिए 'सब चंगा सी' हो भी सकता है लेकिन हमारे आपके लिए नहीं है.

(ये लेख हमारे साथी जैरी के एक फेसबुक पोस्ट से लिया गया है.)

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