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2200 साल पहले से चला आ रहा गणेशोत्सव कैसे खो गया, दोबारा कैसे शुरू हुआ?

गणेश चतुर्थी का उत्सव इतना व्यापक होने के पीछे आजादी के आंदोलन की कहानी है. बाल गंगाधर तिलक की सूझ-बूझ का किस्सा है.

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महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी के उत्सव को व्यापक सार्वजानिक आयोजन बनाने का श्रेय बाल गंगाधर तिलक को जाता है (फोटो सोर्स- आजतक और विकिमीडिया)

गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र का सबसे बड़ा सामूहिक त्योहार (Maharashtra Ganesh Mahotsav) है. देश के दूसरे हिस्सों में भी भाद्रपद (भादो) महीने की चतुर्थी से लेकर चतुर्दशी तक, पूरे दस दिन गणेश पूजा चलती है. पंडालों-घरों में मूर्ति स्थापना से लेकर गणपति विसर्जन तक. लेकिन जो रौनक महाराष्ट्र में होती है, वो और कहीं नहीं होती. शहर हो या सुदूर गांवों के इलाके, पूरा सूबा गणेश चतुर्थी के आयोजन में लगा है. ये सब देखकर आप कतई अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि कोई दो सौ साल पहले ये त्योहार देश तो क्या, महाराष्ट्र में भी इतना प्रचलित नहीं था. 

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आज महाराष्ट्र में गणेशोत्सव की व्यापकता के पीछे आजादी के आंदोलन की कहानी है. बाल गंगाधर तिलक की सूझ-बूझ का किस्सा है. 

गणेश चतुर्थी का इतिहास

अलग-अलग कालखंड में भारत पर शासन करने वाले कई राजवंश, गणेश चतुर्थी मनाते थे. महाराष्ट्र में सातवाहन, राष्ट्रकूट और चालुक्य वंश के शासकों के दौर में गणेशोत्सव की प्रथा थी. सातवाहन साम्राज्य, मौर्य वंश के बाद उभरा था. 200 ईसा पूर्व से दूसरी सदी (ईसा के बाद) तक दक्षिण भारत के बीच के इलाकों पर सातवाहन वंश का शासन था. कहा जाता है कि सातवाहन वंश के राजाओं के वक़्त गणेशपूजा शुरू हुई थी. पेशवाओं का दौर आया तो गणेश पूजा का चलन बढ़ा. पुणे में गणपति की स्थापना जीजाबाई ने की थी. शिवाजी भी गणेश के उपासक थे. लेकिन पेशवाओं के बाद, यानी 19वीं सदी के आखिरी कुछ दशकों में गणेश चतुर्थी का पर्व घरों के अंदर सिमट गया था.

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इसी दौर में आजादी की लड़ाई लड़ रहे कुछ स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय नेताओं ने गणेश चतुर्थी को सामाजिक एकजुटता का माध्यम बनाने की कोशिश की. वे सफल भी हुए. इन्हीं नेताओं में बड़ा नाम है- बाल गंगाधर तिलक का, जिन्हें 'लोकमान्य' की उपाधि दी गई.

गणेश चतुर्थी और आजादी की लड़ाई

साल 1893. तिलक चाहते थे कि गणेश महोत्सव, धार्मिक कर्मकांड तक न सीमित रहे, बल्कि इसे आजादी की लड़ाई के लिए समाज को संगठित करने के उद्देश्य से भी मनाया जाए. वो चाहते थे कि पेशवाओं के घर से निकलकर गणेश की प्रतिमाएं सार्वजनिक मंचों तक आएं. लेकिन एक अड़चन थी. इसी साल मुंबई और पुणे में दंगे हुए थे. कोई धार्मिक आयोजन होता तो फिर दंगे भड़कने की आशंका थी. 

एक साल पहले, माने 1892 में अंग्रेज एक नियम भी ला चुके थे- एंटी-पब्लिक असेम्बली लेजिस्लेशन. इस नियम के तहत अंग्रेज सरकार ने सार्वजनिक जगहों पर पब्लिक मीटिंग्स पर पाबंदी लगा रखी थी. कांग्रेस के नेताओं के दो धड़े थे. नरम दल और गरम दल. दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले, मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, बदरुद्दीन तैयबजी और सुब्रमन्यन अय्यर जैसे कांग्रेस के उदारवादी नेता सार्वजनिक आयोजनों के पक्ष में नहीं थे. ताकि दंगे जैसे स्थितियां न बनें.

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लेकिन गरम दल ने नेता, सांस्कृतिक चेतना जगाने और लोगों को एकजुट करने के तर्क के साथ, ऐसे आयोजनों के पक्ष में थे. तिलक का साथ लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, अरबिंदो घोष, राजनारायण बोस और अश्विनीकुमार दत्त जैसे नेताओं ने दिया. इन सबके सहयोग से साल 1893 में तिलक ने गणेश महोत्सव करवाने वाली सबसे पहली मंडली शुरू की. इसका नाम था- ‘केशवी नाइक चाल सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल’. 

इसके बाद अगले साल यानी 1894 में सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू हुआ. तिलक ने गणेश की एक बड़ी प्रतिमा स्थापित की. भारी तादाद में लोगों ने इस उत्सव में हिस्सा लिया. राम-रावण कथा वाचन हुआ. चतुर्थी के कार्यक्रम के दिनों में अंग्रेजों के खिलाफ भाषण दिए जाते. लोगों में देशभक्ति के भाव जगाने की कोशिश की जाती. अंग्रेजों के खिलाफ जनमत बढ़ाने के प्रयास होते. धार्मिक कार्यक्रम को सामाजिक सरोकार के काम लाने का तिलक का ये प्रयास सफल हुआ. हर साल गणेश चतुर्थी मनाई जाने लगी. तिलक ने काशी में भी गणेश चतुर्थी का उत्सव मनाना शुरू किया.

साल 1948 में गणेश महोत्सव (फोटो सोर्स- विकिमीडिया)

फिर साल 1905 में बंगाल विभाजन के बाद लोगों का अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा और बढ़ा. शहर में गणेश चतुर्थी के उत्सव के आयोजन के लिए जगह-जगह मंच बनाए जाने लगे. स्वदेशी आंदोलन शुरू हो चुका था. भीड़ अब खुलेआम आजादी के नारे बुलंद करने लगी थी. 

आगे चलकर देश आज़ाद हुआ और गणेशोत्सव का आयोजन हर साल चतुर्थी पर होता रहा. और वक्त के साथ ये महाराष्ट्र के साथ-साथ देश के दूसरे हिस्सों में भी मशहूर होता गया.

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