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मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले संत रविदास का मंदिर टूटने पर बवाल क्यों?

जैसे-जैसे आप अतिवादी होते हैं, वैसे-वैसे तर्क आपका साथ छोड़ता है.

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इतिहास में पहली बार दलित समुदाय के लोग अपने 'राम' को गढ़ रहे थे.

बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ।

ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफुन खता न तरसु जुवालु।

अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई।

काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो आही।

आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर।

तिउ तिउ सैल करहिजिउ भावै, महरम महल न को अटकावै।

कह ‘रविदास’ खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीतु हमारा।

मन चंगा तो कठौती में गंगा

14वीं सदी के जिन संत रविदास के नाम पर दलित समुदाय के लोग सड़कों पर उतरे हैं, उनसे पहली मुठभेड़ एक मुहावरे के तौर पर हुई थी. 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'. इस मुहावरे के पीछे की एक कहानी है लोक परम्परा में बेहद प्रचलित. कहा जाता है कि एक ब्राह्मण सुबह-सुबह गंगा स्नान के लिए जा रहा था. उस समय संत रविदास अपनी झोपड़ी के बाहर बैठे जूता बना रहे थे. उन्होंने उस ब्राह्मण को गंगा में चढ़ाने के लिए एक सिक्का दिया. ब्राह्मण ने जब वो सिक्का गंगा में बहाया तो गंगा ने हाथ निकालकर उस सिक्के को ग्रहण किया और बदले में एक सुंदर सा सोने का कंगन उस ब्राह्मण को दिया. कहा कि इसे रविदास को दे देना.

कंगन बहुत खूबसूरत था. लिहाजा ब्राह्मण ने वो कंगन रविदास को देने की बजाए राजा को भेंट कर दिया. राजा ने कंगन दे दिया रानी को. रानी को ब्राह्मण का दिया यह कंगन बहुत पसंद आया. उन्होंने ब्राह्मण से कहा कि इसकी जोड़ी का दूसरा कंगन कहां है? मुझे दोनों हाथों में कंगन पहनने हैं. राजा ने दूसरा कंगन लाने के लिए 3 दिन का समय दिया. अब गंगा ने ब्राह्मण को एक ही कंगन दिया था तो दूसरा कंगन लाता कहां से. आखिर हारकर वो संत रविदास के पास पहुंचा और सारी कहानी बताई. संत रविदास ने उसकी परेशनी सुनकर अपनी कठौती आगे की. उसमें देखते हुए उन्होंने गंगा से आग्रह किया कि वो ब्राह्मण के मदद करे. चमत्कारिक तौर पर एक उस कठौती में से गंगा ने अपना हाथ निकाला और वैसा ही दूसरा कंगन संत रविदास को थमा दिया. यहीं से कहावत शुरू हुई, मन चंगा तो कठौती में गंगा. यह मिथक संत रविदास को चमत्कारिक रूप में स्थापित करने के लिए गढ़ा गया था. और यह सिर्फ रविदास के साथ नहीं हुआ.
Sant Ravidas

14वीं सदी में भक्ति आन्दोलन के खड़े होने के अपने ऐतिहासिक कारण थे. 1388 में फ़िरोज़ शाह तुगलक की मृत्यु के बाद से ही दिल्ली सल्तनत भयंकर अस्थिरता देख रही थी. 1388 से 1450ई. तक में दिल्ली सल्तनत में 10 सुल्तान आए और गए. बलवों और अशांति के बीच भक्ति आंदोलन की दूसरी लहर गंगा के मैदानी इलाकों और देहातों में पहुंची. यहां जाति व्यवस्था के सबसे निचले सिरे ने इसे हाथों-हाथ लिया. यह वो वर्ग था जिसके लिए भगवान् तक पहुंच प्रतिबंधित थी. मंदिर में इनका घुसना वर्जित था. 13वीं सदी की शुरुआत में इस्लाम भारत की मुख्य राजनीतिक ताकत के तौर पर उभरा. बुनियादी तौर पर इस्लाम में छुआछूत नहीं थी. हर आदमी मस्जिद में एक साथ नमाज़ पढ़ सकता था. लेकिन मस्जिद से बाहर बराबरी के सारे दावे हवा हो जाते. इस तरह पैगम्बर की बराबरी का दावा भी भारत में दलितों में लिए छलावा ही साबित हुआ. भक्ति आंदोलन ने दलित वर्ग में नई चेतना खड़ी की. इतिहास में पहली बार था कि दलित जातियों में पैदा हुए लोग अपने 'राम' को गढ़ रहे थे. मंदिरों पर ब्राह्मणों का कब्जा था. ऐसे में इस राम का निर्गुण होना लाजमी था.
निर्गुण भक्ति धारा के उभार की कई वजहें गिनाई जा सकती हैं. आप उसकी दार्शनिक जड़े अद्वैत दर्शन में खोज सकते हैं और सूफियों में भी. लेकिन इस भक्ति धारा के उरूज के सामाजिक पहलू को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध ने 'निर्गुण राम' के ढांचे को गढ़ने में बड़ी भूमिका निभाई. कबीर जाति से जुलाहे थे, रविदास जाटव थे, धन्ना भगत जाट और सेन नाई. ये लोग उत्तर भारत के अलग-अलग इलाकों में निर्गुण भक्तिधारा के प्रचार में लगे हुए थे. इन लोगों ने जाति व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा छेड़ दिया. धार्मिक एकता का संदेश दिया.
किसी भी आंदोलन को समझने में एक चूक अक्सर हो जाती है. विश्लेषण के दौरन इतिहासबोध को किनारे रख दिया जाता है. किसी भी दौर में रैडिकल होने की अपनी सीमा होती है. भक्ति आंदोलन के साथ भी ऐसा ही था. जाति व्यवस्था के खिलाफ होने के बावजूद यह आंदोलन अपने मूल रूप में आध्यात्मिक था. शायद उस समय तक 'ईश्वर' नाम की सत्ता को ठीक वैसे ही जैसे अंबेडकर ने नागपुर की दीक्षाभूमि पर हिंदू धर्म छोड़ा था, धर्म नहीं. वो हिंदू से बौद्ध हो गए. यही वजह थी कि किसी दौर में क्रांतिकारी दिखाई देने वाले कबीर और रविदास बाद के दौर में मठ बन गए. आज पंजाब के दोआबा से लेकर हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रविदास के धार्मिक पंथ हैं. उनके अनुयायी खुद को 'रविदासिया' कह कर बुलाते हैं.
संत रविदास मंदिर मामले में पंजाब तक प्रदर्शन हुए
संत रविदास मंदिर मामले में पंजाब तक प्रदर्शन हुए

डेरा सचखंड बलां 15वीं सदी के अंत में पंजाब में भक्ति आंदोलन की दो धाराएं थीं. पहली गुरु नानक देव की. दूसरी गुरु रविदास की. माना जाता है कि अपने जीवनकाल में संत रविदास ने तीन दफा पंजाब का दौरा किया. सिखों के चौथे गुरु रामदास के समय दलितों में ख़ास तौर पर जाटव समुदाय का एक बड़ा हिस्सा सिख धारा से जुड़ा. इन्हें बाद के दौर में रामदासिया सिखों के नाम से जाना गया. इन सिखों में कुछ ऐसे थे जो पहले से संत रविदास की परम्परा से जुड़े हुए थे. सिख धर्म से जुड़ने के बावजूद इन लोगों ने संत रविदास की परम्परा को छोड़ा नहीं. सिख धर्म में कुल 10 गुरु हैं और 11वां गुरु है गुरु ग्रन्थ साहिब. गुरु ग्रन्थ साहिब बुनियादी तौर पर भक्ति आंदोलन के अलग-अलग संतों की बानी का संकलन है. कबीर, रविदास के पद इस ग्रन्थ में है. संत रविदास के कुल 41 पद गुरु ग्रन्थ साहिब में हैं.
19वीं सदी के आखिरी दौर में भटिंडा के गिल पट्टी के रहने वाले एक सन्यासी जालंधर के बलां गांव में पहुंचे. कहते हैं कि संत रविदास अपने पंजाब प्रवास के दौरान इस गांव में रुके थे. यहां आकर भटिंडा के इस सन्यासी ने एक सूखे पीपल के नीचे आसन लगा लिया. किवदंती है कि बाबाजी ने गांव वालों के आग्रह पर पीपल के इस सूखे पेड़ को फिर से हरा कर दिया. यहीं से उन्हें नया नाम मिला, 'संत पीपल दास'. यह बाबाजी खुद दलित बिरादरी से थे और रविदास की परम्परा से जुड़े हुए थे. बलां गांव में उन्होंने अपना आश्रम बनाया जिसे पंजाब डेरा नाम से पुकारा जाता है. यह डेरा सचखंड फिलहाल रविदासिया समुदाय का सबसे बड़ा धार्मिक केंद्र है.
रविदासिया संप्रदाय और अलग दलित पहचान
पंजाब में दलितों के तीन बड़े धड़े हैं. पहला धड़ा है रामदासिया सिख. ये लोग सिख धर्म से जुड़ने से पहले जाटव बिरादरी के सदस्य थे. दूसरा धड़ा है रविदासिया सिखों का. रविदासिया सिख दस गुरुओं के अलावा संत रविदास को भी अपना गुरु मानते हैं. तीसरा बड़ा धड़ा है मजहबी सिखों का. ये लोग सिख धर्म से जुड़ने से पहले मैला ढोने वाली चुहड़ा बिरादरी से आते थे. यह तीनों धड़े मिलकर एक तिहाई पंजाब को आबाद करते हैं. लेकिन जमीनों पर मिल्कियत के मामले में इनकी हिस्सेदारी महज 7 फीसदी पर सिमटी हुई है, जिसमें कि खेती के अलावा आबादी की जमीन भी शामिल है. सिख धर्म वर्ण व्यवस्था में भरोसा नहीं करता है. लेकिन यह एक आदर्शवादी स्थिति थी. हिंदू धर्म का छुआछूत सिखों में भी संक्रमण की तरह फ़ैल गया. नतीजा यह हुआ कि रामदासिया और मजहबी सिखों के लिए अलग गुरूद्वारे बना दिए गए. जहां ऐसा नहीं था वहां इन दलित सिखों के लिए अलग लंगर की व्यवस्था कर दी गई. सिर पर पगड़ी लगाए हुए दलित फिर से उसी शोषण का शिकार होते रहे.
डेरा सचखंड ने रविदासिया सिखों को अलग पहचान देनी शुरू की. पहले विश्वयुद्ध के बाद जब सिखों ने पंजाब से बाहर फैलना शुरू किया तो रविदासिया सिख भी बड़ी तादाद में विदेश जाने लगे. इसकी दो वजह थी. पहली भूमिहीन रविदासिया सिखों के पास पंजाब में जट्ट सिखों के खेतों में खपने के अलावा रोजगार के कोई ख़ास विकल्प नहीं थे. दूसरा, शुरूआती दौर में विदेशों में बड़े कठिन हालातों में जिंदगी बितानी पड़ती थी. इस वजह से जट्ट सिखों ने पंजाब छोड़ना मुनासिब नहीं समझा. दुनिया के कई इलाकों में रेल की पटरियां इन्ही रविदासिया सिखों की मेहनत का नतीजा थीं. लेकिन मुकम्मल रोजगार ने रविदासिया बिरादरी की स्थिति बदलनी शुरू की. ख़ास तौर पर पंजाब के दोआबा इलाके के रविदासिया सिख आर्थिक तौर पर काफी मजबूत हो गए. इसने रविदासिया पहचान को उभरने में काफी मदद की.
अकाली सिखों के साथ रविदासिया बिरादरी की असहमति के मूल में संत रविदास ही हैं. अकाली सिख अपने दस गुरुओं के अलावा सिर्फ गुरु ग्रन्थ साहिब को अपना गुरु मानते हैं. जबकि रविदासिया सिख संत रविदास को भी अपना गुरु मानते हैं. इस असहमति ने दोनों समुदायों के बीच तनातनी का माहौल पैदा कर दिया. 2009 की मई में ऑस्ट्रिया के विएना में रामदासिया सिखों के एक धार्मिक कार्यक्रम में अकाली सिखों ने हमला बोल दिया. इस हमले में रामदासिया समुदाय के एक सन्यासी संत रामानंद को जान गंवानी पड़ी. इसका सबसे तीखा रिएक्शन हुआ पंजाब में. दोआबा के इलाके में दंगे भड़क गए. इसके बाद रविदासियों ने खुद को सिखों से पूरी तरह से अलग कर लिया. 30 जनवरी 2010 को संत रविदास के जन्मदिवस के दिन डेरा सचखंड कलां ने रविदासिया समुदाय को अलग पंथ की जगह अलग धर्म घोषित कर दिया. 'अमृत वाणी गुरु रविदास की' को अपने मूल धर्मग्रन्थ के तौर अपनाया गया. अकाली निशान को छोड़कर नया निशान बनाया गया. सत श्री अकाल की जगह जय गुरुदेव को अपना अभिवादन तय किया.  इस तरह डेरा सचखंड कलां के शुरुआत के तक़रीबन 100 साल बाद रविदासिया एक अलग धर्म के तौर पर खड़ा था.
तुगलकाबाद स्थित संत रविदास का मंदिर जिसे तोड़े जाने पर बवाल शुरू हुआ.
तुगलकाबाद स्थित संत रविदास का मंदिर जिसे तोड़े जाने पर बवाल शुरू हुआ.

मंदिर वहीं बनाएंगे

"लोग कहते हैं, आप अदालत का फैसला क्यों नहीं मानते? अदालत क्या इस बात का फैसला करेगी कि यहां राम का जन्म हुआ था या नहीं हुआ था? आपसे तो इतना सा आग्रह है कि आप रास्ते में मत आओ. क्योंकि यह रथ जनता का रथ है. जिसने यह फैसला किया है कि 30 अक्टूबर को अयोध्या में पहुंचकर कारसेवा करेंगे और मंदिर वहीं बनाएंगे."

-लाल कृष्ण आडवाणी (राम रथ यात्रा के दौरान दिया भाषण)

21 अगस्त2019. दिल्ली के तुगलकाबाद में संत रविदास मंदिर का तोड़ने के विरोध में पंजाब, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से आए बड़ी संख्या में दलित दिल्ली की सड़कों पर थे. यहां राम मंदिर आंदोलन का यह नारा फिर से गूंज रहा था. मंदिर का पूरा मामला जानने के लिए यहां क्लिक करें.
इस अजीब-ओ-गरीब समानता ने कई लोगों को चकराकर रख दिया. सवाल खड़ा होता है कि इस पूरे आंदोलन को देखा कैसे जाए?
राम मंदिर आंदोलन के साथ समानता को नजायज ठहराते हुए कई दलित कार्यकर्ताओं ने तर्क दिया कि अगर राम लोगों की आस्था का विषय हैं तो संत रविदास भी दलितों की आस्था का विषय हैं. ऐसे में इस आंदोलन को गलत कैसे ठहराया जा सकता है? दूसरा तर्क है कि राम मंदिर आंदोलन के मूल में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरत का भाव था. लेकिन यह आंदोलन किसी समुदाय के खिलाफ नहीं बल्कि सरकार और कोर्ट के खिलाफ है.
भीम आर्मी ने मामले में प्रदर्शन किया, जिसके हिंसक हो जाने की खबरें भी आईं.
भीम आर्मी ने मामले में प्रदर्शन किया, जिसके हिंसक हो जाने की खबरें भी आईं.

यह बात भी ठीक है कि यह आंदोलन किसी समुदाय के प्रति नफरत नहीं फैलता. लेकिन इस आंदोलन का मूल आधार क्या है? आंदोलन का मूल तर्क आस्था है. अगर धार्मिक आस्था के आधार पर सारी चीजें तय होने लग जाए तो इस देश और संविधान का पुर्जा-पुर्जा बिखरने में कितना ही वक़्त लगेगा. इस पूरे आंदोलन की दूसरी दिक्कत यह है कि 1960 से ही अम्बेडकरी आंदोलन की पहचान एक तार्किक विचारधारा की रही है. तार्किकता राजनीतिक चेतना पैदा करती है. अतिवाद राजनीतिक भीड़ पैदा करता है. यह आवारा भीड़ है और इसके अपने खतरे हैं. हालांकि मंच से ऐसा कुछ नहीं कहा गया लेकिन इस आंदोलन में भाग में लेने वाले बहुत सारे लोगों के वीडियो सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं. इन वीडियो में दूसरे समुदायों के खिलाफ खूब जहर उगला है. अतिवाद के यही खतरे हैं. तर्क आपका साथ छोड़ देते हैं.


वीडियो: क्या है संत रविदास मंदिर का पूरा मामला, जिस तोड़ने के बाद भीम आर्मी और मायावती भी कूद पड़े हैं?