#1. डेविड धवन ftii में ओम पुरी के पहले रूममेट थे, लेकिन बोला कि तुम अपना कमरा बदल लो
ओम पुरी ने इंडिया के इस लैजेंड एक्टर को जानलेवा हमले में बचाया था!
जन्मदिन के मौके पर पढ़िए ओम पुरी के जीवन के वो 5 किस्से जो आपने नहीं पढ़े होंगे.

1973 में ओम पुरी ने दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से अभिनय में अपनी पढ़ाई पूरी कर ली थी. फिर वे वहां नाट्य मंडली में काम करने लगे. कुछ ही समय बाद उन्होंने पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया के एक्टिंग कोर्स (1974-76) में दाखिला लिया. एनएसडी के उनके साथी नसीरुद्दीन शाह यहां साल भर पहले से पढ़ रहे थे. एफटीआईआई में ओम पुरी के पहले रूममेट डेविड धवन थे. डेविड जहां मस्ती-मजाक और हंसी-ठिठोली करने वाले आदमी थे, वहीं ओम पुरी गंभीर मिजाज के थे. ओम ने पूरी जिंदगी ठोकरें खाईं. सिर पर अपनी छत नहीं थी. रोजी-रोटी का ठिकाना नहीं रहा. ऐसे संघर्षों के बाद वे कैजुअल नहीं हो सकते थे. लेकिन उनके बैकग्राउंड से परिचित न होने के कारण डेविड असहज हो गए कि इतने रूखे आदमी के साथ कैसे रहेंगे?
और उन्होंने ओम से कहा कि वे अपना कमरा बदल लें. बाद में ओम एक्टिंग कोर्स के अन्य छात्र प्रदीप वर्मा के साथ रहने लगे.
डेविड धवन को हालांकि बाद में अपनी नासमझी का अहसास हुआ होगा. बाद में दोनों में ठीक-ठाक परिचय भी हो गया. डेविड के डायरेक्शन वाली फिल्मों में ओम ने काम किया. ख़ुद डेविड ने कहा है कि "मैंने एक एक्टर के तौर पर ओम को तब परखा जब हमने नब्बे के दशक में 'कुंवारा', 'दुल्हन हम ले जाएंगे' जैसी फिल्मों में साथ काम किया. उस वक्त से हम बहुत आगे आ चुके हैं जब मुझे लगा करता था कि ओम हंसमुख नहीं हैं."
#2. नसीरुद्दीन शाह पर हुआ था ख़ूनी हमला ओम नहीं होते तो नसीर जिंदा न बचते

ओम पुरी और नसीर.
ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह की दोस्ती एनएसडी के वक्त से थी जहां उन्होंने 1970 से 1973 तक चार साल एक्टिंग की पढ़ाई की. उसके बाद एफटीआईआई, पुणे में भी दोनों साथ पढ़े. फिर 1976 में जब ओम बंबई शिफ्ट हुए तो उन्होंने नसीर के साथ एक विज्ञापन फिल्म में भी काम किया जिसे डायरेक्ट किया था गोविंद निहलानी ने. इसमें दोनों ने कारखाने में काम करने वाले मजदूरों का रोल किया था. उसके बाद श्याम बेनेगल जब अपनी फिल्म 'भूमिका' डायरेक्ट कर रहे थे जब ऐसा वाकया हुआ जिसने इन दोनों की दोस्ती पक्की कर दी.
फिल्म के सेट के पास एक ढाबे में दोनों डिनर करने पहुंचे थे. वे बैठे थे कि ओम ने देखा एनएसडी और एफटीआईआई में उनके साथ पढ़ा नसीर का बहुत ही जिगरी दोस्त राजेंद्र जसपाल तेजी से आ रहा है. वो आया और उसने नसीर की पीठ पर किसी चीज से मारा. जब जसपाल ने अपना हाथ उठाया तो ओम ने देखा कि उसके हाथ में चाकू है. इससे पहले कि जसपाल फिर से वार कर पाता ओम पुरी ने उसकी बांह पकड़ ली. जसपाल को काबू कर पाना ओम के बस का नहीं था फिर भी उन्होंने संघर्ष किया जब तक कोई मदद के लिए न आ जाए. इतने में ख़ून से सन चुके नसीरुद्दीन शाह बाहर की ओर भागे. फिर पुलिस आई और जसपाल को ले गई.
#3. रिक्शावाले के भेष में आए ओम को देख चायवाला बोला, 'बेचारे की क्या हालत हो गई, अच्छा एक्टर होता था!'

फिल्म सिटी ऑफ जॉय में अपने किरदार में ओम पुरी.
फ्रेंच-ब्रिटिश डायरेक्टर रोलैंड जॉफ की 1992 में रिलीज हुई फिल्म 'सिटी ऑफ जॉय' के लिए ओम पुरी को हॉलीवुड एक्टर पैट्रिक स्वैज़ के साथ लीड रोल में लिया गया था. इसमें उन्हें हसारी पाल नाम के ऐसे ग्रामीण का रोल करना था जो पत्नी और तीन बच्चों के साथ रोजगार तलाश करने कलकत्ता आता है और वहां रिक्शा चलाने लगता है. ओम हर फिल्म में रोल की तैयारी शूटिंग से काफी पहले से ही करने लगते थे. इस फिल्म के लिए उन्होंने दो रिक्शा वालों से रिक्शा खींचना सीखा. ज्यादातर रिक्शा वाले नंगे पैर ही दौड़ते थे. ओम रोज सुबह निकलते और रिक्शा चलाते.
एक दिन सुबह-सुबह वे रिक्शा चलाने के बाद चाय पीने सड़क किनारे बनी टी-स्टॉल पर रुके. वहां दो बुजुर्ग लोग बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे. ओम को देख एक ने दूसरे से कहा, "अरे, ये रिक्शा वाला तुमको ओम पुरी जैसा नहीं दिखता है?" इस पर दूसरे वाले ने भी सहमति में सिर हिलाया. जब ओम ने अपनी चाय खत्म की तो उनसे कहा कि वे ही ओम पुरी हैं. उन्होंने ओम को देखा और उन्हें अब भी यकीन नहीं हो रहा था. बाद में जब ओम वहां से निकलने लगे तो उन्होंने चाय वाले को बोलते हुए सुना, "बेचारा. गरीब आदमी. बड़े दुख की बात है इसकी क्या हालत हो गई है, कितना अच्छा एक्टर हुआ करता था. अब रिक्शा चला रहा है!"
जाते-जाते ओम ये सुन रहे थे और स्माइल कर रहे थे क्योंकि उनकी मेहनत रंग लाई और लोग उन्हें रिक्शा वाला मान रहे थे.#4. ये थी ओम पुरी की पहली फिल्म जिसकी आज कोई फुटेज नहीं
1974 के करीब ओम पुरी ने कन्नड़ और हिंदी नाटककार व फिल्ममेकर बी. वी. कारंथ की एक घंटे की फिल्म 'चोर चोर छुप जाये' में काम किया था. ये बच्चों की फिल्म थी. इसमें ओम के सह-कलाकार थे एक बंदर और एक बच्चा. ये माधव नाम के गूंगे बच्चे की कहानी थी जिसके पास खिलौने तो बहुत हैं लेकिन खेलने के लिए कोई दोस्त नहीं. फिर वो रामू नाम के बंदर और उसके मालिक से दोस्ती करता है. मालिक का ये रोल ओम ने किया था जो चोरियां करता है.
ओम का ये किरदार जब देखता है कि बंदर रामू से बात करने की कोशिश में बच्चा माधव घीरे-धीरे बोल पा रहा है तो वो भावुक हो जाता है. इतना कि वो चोरी करना छोड़ने का निश्चय करता है. लेकिन क्या ईमानदारी की जिंदगी उसके लिए इतनी आसान होगी? और क्या माधव पूरी तरह से बोलने लगता है? इसी के जवाब आगे फिल्म में मिलते हैं.
इस फिल्म की कोई फुटेज आज नहीं मिलती है. ये ओम की पहली फिल्म थी, हालांकि आमतौर पर 1976 में आई 'घासीराम कोतवाल' को उनकी पहली फिल्म कहा जाता है जिसका निर्देशन के. हरिहरन और मणि कौल ने किया था.
#5. अनिल कपूर को एक्टिंग सिखाई थी ओम पुरी ने साथ ही गुलशन ग्रोवर को भी..
एफटीआईआई से निकलने के अगले एक-दो वर्षों में ओम पुरी को फिल्में तो मिल रही थीं लेकिन उन्हें किसी स्थिर रोजगार की जरूरत थी ताकि वे अपना मासिक किराया चुका सकें. तब एफटीआईआई में उनके टीचर रहे रोशन तनेजा ने बंबई में अपना एक्टिंग स्कूल एक्टर्स स्टूडियो खोला था. तनेजा ने 800 रुपये महीने की तनख्वाह पर ओम को जॉब ऑफर की. ओम को वहां छात्रों को स्पीच और मूवमेंट की ट्रेनिंग देनी थी. ओम ने वहां एक साल तक प्रशिक्षण दिया.
यहां उनके सबसे कामयाब छात्र थे अनिल कपूर, गुलशन ग्रोवर, मजहर ख़ान, सुरिंदर पाल और मदन जैन. ओम उन्हें उत्साह से भरे ऐसे जवान छोकरों के रूप में याद करते थे जो ब्रेक के दौरान उन्हें अपने सवालों से तंग किया करते थे. अनिल और बाकी स्टूडेंट बातें करते करते ओम को जुहू के बस स्टॉप तक छोड़ने भी जाया करते थे.
अनिल कपूर ने अपने इन प्रशिक्षक को बाद के दिनों में ऐसे याद किया, "स्कूल और कॉलेज के मेरे सब टीचर्स में से ओम पुरी सबसे अधिक मासूम, बच्चे जैसे और vulnerable थे. एक प्रशिक्षक के लिहाज से वे हमें इतना कुछ देना चाहते थे कि एक बार ये सोचकर रोने लगे कि वे जो बात हमें समझाना चाहते थे वे सटीक तरीके से नहीं समझा पाए और असफल रहे. उन्हें बड़ी ही ईमानदारी और निष्कपटता से बिमल रॉय की पुरानी फिल्मों के दृश्यों को एक्ट करते और व्याख्या करते देखना हमारे लिए जबरदस्त आनंद था. वो हमारे लिए टीचर से ज्यादा बड़े भाई की तरह थे."
इसी तरह गुलशन ग्रोवर ने भी उनके बारे में कहा था, "मैंने ओमजी से जो सीखा वो था subtext का महत्व. एक शिक्षक के तौर पर वे गंभीर थे और बाद में एक सह-कलाकार के तौर पर खुशमिजाज थे. वो अपनी महानता को बहुत गंभीरता से नहीं लेते थे और एेसे कोई नखरे सेट पर लेकर नहीं आते थे."
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